आइए हाथ उठाएँ हम भी
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- Name: लाल्टू
- Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India
बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप
Sunday, January 25, 2015
अदना
पर असाधारण इंसान
(आज 'दैनिक भास्कर' की 'रसरंग' पत्रिका में प्रकाशित)
मोहनदास
करमचंद गाँधी की हत्या हुए
तकरीबन सत्तर साल होने को हैं।
वक्त के साथ गाँधी की छवि और
उनका महत्व बदलता रहा है। अपने
देश में ही नहीं,
अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर गाँधी को आज महान चिंतक
या दार्शनिक माना जाता है।
अहिंसा पर उनके खयाल और प्रयोगों
की वजह से वे बीसवीं सदी के
भारत की अनोखी देन बन गए हैं।
मानव के विकास में अगर किसी
एक धारणा का महत्व समय के साथ
बढ़ा है, वह
अहिंसा है।
एक
ज़माना था जब गाँधी की गंभीर
आलोचना होती थी। नांबूद्रीपाद
और हीरेन मुखर्जी जैसे चिंतकों
ने आज़ादी की लड़ाई में गाँधी
की भूमिका पर और आर्थिक-राजनैतिक
ताकतों के बीच उनकी जगह पर
किताबें लिखीं। संघ परिवार
का दुष्प्रचार भी कुछ हद तक
प्रभावी था। उनका कहना है कि
गाँधी हिंदुओं के हितों के
खिलाफ थे,
इसलिए
गोडसे का उनको कत्ल करना वाजिब
था।
गाँधी
की छवि में बड़ा गुणात्मक बदलाव
सत्तर के दशक से हुआ। अमेरिकी
नागरिक अधिकार आंदोलन के नेता
मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने
बार-बार
उनका नाम लिया और कहा कि वे
गाँधी की बतलाई राह पर चल रहे
हैं। अस्सी में ऐटेनबोरो की
फिल्म 'गाँधी'
रिलीज़
हुई। आशीष नंदी,
सुधीर
कक्कड़ आदि ने गाँधी को मनोवैज्ञानिक
नज़रिए से देखा। इतिहासकार
सुमित सरकार ने गाँधी की सफल
रणनीति को परखा। एक तो गाँधी
के बारे में नई समझ बनी तो दूसरी
ओर हर कोई गाँधी का नाम लेने
लगा। कॉंग्रेस ने तो गाँधी
की कमाई करनी ही थी,
सत्ता
में आने से पहले से ही राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के साथ जुड़ी
पार्टी भाजपा भी गाँधी जपने
लगी थी।
आज
गाँधी ऐसा नमूना बनते जा रहे
हैं कि हर छली आदमी उनका फायदा
उठाने को लगा है। सत्तासीन
दल के लिए कभी वे स्वच्छता के
प्रतीक बन जाते हैं तो कभी इसी
दल के सहयोगियों के सिर उनके
हत्यारे का मंदिर बनाने की
धुन सवार हो जाती है। इसी बीच
में असली गाँधी खो जाते हैं।
गाँधी
को याद करते हुए सबसे पहले
हमें जानना चाहिए कि वे एक
अदना शख्स थे जिन्होंने अपनी
साधारणता से ऊपर उठकर बड़ी
छलाँगें लीं। उनकी समझ बौद्धिक
कम और ज़ेहनी ज्यादा थी और
अपने समय के चिंतकों से अलग
ज़िद के साथ ज़ेहनी समझ की राह
पर वे चलते चले। ग़लतियाँ कीं
और सीखा। अरुंधती राय ने आंबेडकर
की 'जाति
का विनाश'
पुस्तक
के नए संस्करण की भूमिका में
उनकी कई बुनियादी कमियों का
उल्लेख किया है। उनकी सबसे
बड़ी कमज़ोरी वर्णाश्रम व्यवस्था के
प्रति उनका मोह था। अपनी इसी
कमज़ोरी से नई तालीम के बारे
में उनकी शुरूआती सोच पिछड़ी
थी। आंबेडकर से हुई बहस से
सीखते हुए उन्होंने अपनी समझ
को सुधारा और सर्वांगीण तालीम
के सिद्धांत अपनाए।
गाँधी
के ज्यादातर भक्तों में उनको
एक इंसान की जगह अलौकिक कुछ
मानने की प्रवृत्ति है। बेशक
उनमें ऐसी कोई अलौकिकता नहीं
थी। वकालत की औपचारिक पढ़ाई
का फायदा उठाने में वे असफल
थे। यूरोप में पढ़ाई के दौरान
वहाँ हो रही युगांतरकारी
घटनाओं के बारे में उनकी सोच
या समझ का कोई लेखाजोखा नहीं
है। दक्षिण अफ्रीका में शुरुआत
में उनकी दृष्टि नस्लवादी
थी, जो
बाद में बदली। पर भारतीय समाज
में रहते हुए संस्कारों को
औरों से ज्यादा गंभीरता से
लेने के साथ मानव-मूल्यों
को लेकर उनमें तीखी बेचैनी
थी। इसलिए ऐसी तमाम बातें,
जैसे
सिगरेट पीना,
यौनिकता,
आदि,
जो औरों
को थोड़े वक्त से ज्यादा तंग
नहीं करतीं,
वे इस
पर इतना सोचते थे कि अपनी
आत्मकथा और सत्य के साथ प्रयोगों
पर लिखते हुए उन्होंने इन
बातों का जिक्र किया। यूरोपी
आधुनिकता का उन पर असर था और
वे ईसाई धारणाओं और पश्चिम
के मानवतावादी चिंतकों से
गहरे प्रभावित हुए। पर पश्चिमी
आधुनिकता में दिखते मानव-मूल्यों
की गिरावट बारे में वे बहुत
बेचैन थे। उनकी पारंपरिक
गाँव-आधारित
सामाजिक-आर्थिक
संरचना पर लोग बात करते हैं,
पर वे
स्वयं महज अपनी ज़ेहनी समझ
से ही भविष्य के बारे में सोचते
थे। 1931 में
लंदन के गोलमेज सभा में उन्होंने
दावा किया कि उपनिवेश-कालीन
अंग्रेज़ी तालीम के प्रसार
के पहले भारत में साक्षरता
अधिक थी। जब एक शिक्षाविद
हार्टोग ने इसका प्रमाण माँगा
तो वे नहीं दे पाए। आठ साल तक
हार्टोग ने उनसे प्रमाण माँगा,
पर गाँधी
असफल रहे। पर उनके अनुयायियों
ने इस बात को सत्य मानकर आज़ादी
के पहले और बाद में मुल्क में
तालीम की बदहाली के लिए पूरी
तरह उपनिवेश कालीन अंग्रेज़ी
प्रशासन को दोषी ठहराया,
जबकि
सचाई इससे काफी ज्यादा जटिल
है।
कई
लोग बढ़ती उम्र में अपनी असुरक्षाओं
और सोच के धुँधलेपन से परेशान
होकर गाँधी में अपनी मुक्ति
ढूँढते हैं। अक्सर ऐसे नए
मुल्लों में गाँधी के प्रति
अंधभक्ति कुछ ज्यादा ही होती
है और वे अपनी बहुत सारी ऊर्जा
इसमें लगाते हैं कि कैसे गाँधी
को एक इंसान के रूप में देखने
वालों की खिल्ली उड़ाई जाए।
पर सच यह है कि गाँधी एक अदना
इंसान ही थे जिन्होंने अपनी
समकालीन परिस्थितियों में
अनोखी बातें कर दिखलाईं। एक
ऐसे समाज में जहाँ गैरबराबरी
और धर्मांधता इतना ज्यादा न
होती, जितनी
कि हमारे यहाँ थी और है,
गाँधी
शायद उस फलक पर न पहुँच पाते
जहाँ वे हैं। पर सिर्फ इतना
कहना सरलीकरण और गाँधी के
प्रति अन्याय होगा। भारत जैसे
एक देश में इतनी बड़ी तादाद में
लोगों को नमक आंदोलन में शामिल
कर पाना या चरखा कातने की सीख
दे पाना कोई आसान काम नहीं है।
गाँधी ऐसा कर पाए तो उनकी इस
असाधारणता को मानना जरूरी
है। लोगों में ज़ेहनी ही सही,
आधुनिकता
की आलोचना का बीज रोप पाना भी
उनका अवदान है। अपने धर्म के
प्रति निष्ठा रखते हुए दूसरे
की आस्था का आदर कर पाने की
ऐसी सीख उन्होंने दी कि आजतक
घोर सांप्रदायिक आदमी को भी
सार्वजनिक जीवन में इसे निभाना
पड़ता है। नोआखाली और कोलकाता
में सांप्रदायिक तनाव के कठिन
माहौल में उन्होंने कमाल की
दृढ़ता दिखलाई।
एक
इंंसान की हत्या ज़ुर्म होता
है। ऐसा ज़ुर्म करने वाला
मानसिक रोगी ही हो सकता है।
हत्यारे को देखने समझने का
कोई और तरीका नहीं होता। जब
गाँधी की हत्या की गई,
उस वक्त
वे काफी हद तक असहाय थे। उन्होंने
अपने मानवीय मूल्यों को सामने
रख कर नए बने मुल्क पाकिस्तान
को दिल्ली के नियंत्रण में
खजाने का उचित हिस्सा देने
की उचित माँग की थी। यह विड़ंबना
है कि उनके हत्यारे को महान
कहने वाले छल बल कौशल से आज
समाज और सत्ता पर हावी हैं।
Saturday, January 24, 2015
अमावस तुमसे पूछता हूँ
रुक
जाओ
अमावस
तुमसे पूछता हूँ
क्या मैं दुनिया के सभी पीड़ितों के लिए रो सकता हूँ
मेरे गीत बेसुरे कैसे हो गए
कैसे लटका रह गया मैं
वक्त के झूले में
स्मृति में रह गईं
बिलखती स्त्रियाँ
जिनसे प्रेम किया
क्या वे जीते जी तारे बन गईं
अँधेरी रात मैं पूछता हूँ
इस देश में
क्या प्रेम पर बातचीत सही है
क्या सही है कि हम रंगों पर बात करें
तुम गुजर जाओगी
आएगी पंख फड़फड़ाती सुबह
और दरख्तों पर लटकी होंगी वे
रुक जाओ थोड़ी देर कि
बेटियों को आखिरी लोरी सुनाकर
सुला दूँ
लिख सकूँ गीत
कि वे जागें तो पढ़ें बेहतर सपनों के खाके
मैं सवाल बन सकूँ
रुक जाओ मेरी आखिरी रात
रुक जाओ।
(समकालीन
भारतीय साहित्य :
2014)
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Thursday, January 22, 2015
कितनी बार चाय पी दिन में
कितने
कितनी
बार चाय पी दिन में
सपनों को दरकिनार कर
कितना न कहने की कोशिश में
कितनी बार बहुत कुछ कहते रहे
बिना पलक झपके
कहते रहे झूठ
कितने पल गँवाए
गिनो तो जरा लगाओ हिसाब
लाख एक या दो-चार
दो जनों के झूठ के पल
इतने हो सकते हैं
यह जानकर तुम अपने और मैं अपने
ग्रह में नज़रें झुकाए बैठे हैं
इतनी दूर से मेरी आँखों से
तुम्हारी नज़र नहीं टकराती
विड़ंबना कि
गँवाए उन पलों ने बाँधा हमें
घनचक्कर से काटते रहे अनगिनत सूर्यों के चक्कर
जानते कि मुझे तुम्हारी और तुम्हें मेरी ज़रूरत है
अब नींद भरी आँखों से परस्पर को देखते हैं
जैसे किसी मायालोक में हमारे उठे हाथ
छू नहीं पाते एक दूजे को
कहना बस इतना
कितनी बार चाय पी दिन में।
(समकालीन भारतीय साहित्य : 2014)
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Wednesday, January 21, 2015
खो गए दुःख सो गए
दुःखों
के सागर से चाँद
जुटा हुआ निकलने की आखिरी कोशिश में हूँ हँसता
तभी आता चाँद सागर से निकलता
देखो कहना मत किसी से कि मैं आया
तुम्हारे पास सिर्फ तुम्हारे लिए
जब चाहूँगा आऊँगा
खिलानी होगी खीर कहता
लगा जैसे कोई इंसान हर रोज हल्का दिमाग हल्की बातें मिलता
पर वह चाँद ही सागर से निकला था
धब्बे ही धब्बे उस पर
सदियों के सुलगते घाव
रह रह अपने सूखे हाथों से
सीना जो टूटने को था थामता
जब - चाँद, आराम कर लो दो पल - कहा
वह उछला पर नहीं उछला हँसा पर नहीं हँसा
अभी ज़रुरत है कहीं अधिक मेरे होने की- बोला
इन घावों को मत सोचो
ये तुम्हारे ही हैं माल-मता
शब्दों का प्रवाह मैदानों में उमड़ रहा
भूत प्रेत उसे ठिठक कर देखते
उस की ठंडक में भरोसा फैलता
कि फिर सुबह होगी और तब आई नींद परी
खो गए दुःख सो गए
चाँद और सुबह बदन को धो गए।
(समकालीन
भारतीय साहित्य :
2014)
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Tuesday, January 20, 2015
सारे प्रेम विलीन हो रहे
सहे
जाते हैं
अब बहुत कुछ सहा जाता है
हर दूसरे दिन कोई जाते हुए कह जाता है
चुका नहीं अभी हिसाब
तुम भी आओ हम खाता खोले रखेंगे
अपना कुछ चला गया
पहले ऐसा सालों बाद कभी होता था
अब सहता हूँ हर दिन खुद का गुजरना
जड़ गुजरती दिखती कभी तो कभी तना हाथ हिलाता है
एक एक कर सारे प्रेम विलीन हो रहे हैं
फिर भी सहे जाते हैं खुद के बचे का बचा रहना
छिपाए हुए उन सबको जो गए
और जो जा रहे हैं।
(समकालीन
भारतीय साहित्य :
2014)
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Saturday, January 17, 2015
इस जंग में ताक़त लगाइए
यह
जंग है,
इस
जंग में ताक़त लगाइए
(जनसत्ता में 16 जनवरी 2015 को प्रकाशित)
हाल
की दो बड़ी घटनाएँ खासी बहस में
रही हैं। आमिर खान की फिल्म
पी के पर हर किसी को कुछ कहना
है। हिंदी के एक वरिष्ठ कवि
से लेकर सत्तासीन दल के साथ
जुड़े संघ परिवार के उग्रवादी
संगठनों के सदस्यों तक हर किसी
ने कुछ कहना है। दूसरी घटना
मुंबई में भारतीय विज्ञान
महासभा के सम्मेलन में किसी
कैप्टेन बोदास का अतीत में
भारत में विमानों के उड़ने को
लेकर परचा पढ़ा जाना थी। ये दो
घटनाएँ अलग लगती हैं,
पर दोनों
के साथ वर्तमान राजनैतिक
परिदृश्य का संबंध है और गहराई
से सोचने पर दोनों इकट्ठी चरचा
की माँग रखती हैं।
पी
के को लेकर बजरंग दल आदि कुछ
संगठनों के शोर मचाने के बावजूद
आम लोगों ने इसे खूब देखा।
इसके राजनैतिक महत्व को समझते
हुए बिहार और यू पी की सरकारों
ने इस करमुक्त घोषित कर दिया।
फिल्म के प्रति लोगों की भावनाएँ
क्या हैं,
यह बॉक्स
आफिस में हिट होना ही दिखला
देता है। आज के जमाने में जब
लाखों लोग मुफ्त में चुराई
हुई फिल्म देखते हैं,
एक फिल्म
का करोड़ों कमा लेना यह दिखलाता
है कि लोगों को फिल्म की कहानी
पसंद आई है। इससे यह जाहिर
होता है कि लोग कर्मकांडों
का जीवन जीते हैं,
पर कोई
ज़रूरी नहीं कि रस्मों में
उन्हें कोई गहरा विश्वास हो।
रामायण,
महाभारत
और उपनिषदों की कहानियों में
या बाइबिल,
हदीस
के किस्सों में क्या सच है और
क्या नहीं,
इससे
भी लोगों को कोई खास मतलब नहीं
है। लोगों को ईश्वर से,
वह कैसा
भी हो, मतलब
है, और
उन्हें यह भी मालूम है कि ईश्वर
की नज़र में हर कोई समान है।
कथाएँ हैं और जीवंत हैं क्योंकि
ईश्वर है।
कैप्टन
बोदास कौन हैं और अतीत में
भारत में हवा में उड़ने वाले
यंत्र थे या नहीं,
इससे
ज्यादातर आम लोगों को कुछ लेना
देना नहीं है। ईश्वर की कल्पना
के साथ विमान की कल्पना जुड़ी
है, इसलिए
बोदास की बात के सही ग़लत होने
से लोगों को वैसे ही कोई फर्क
नहीं पड़ता। ईश्वर की धारणा
वैज्ञानिक है या नहीं,
इससे
उन्हें कोई मतलब नहीं है।
मामला पेंचीदा इसलिए हुआ कि
बोदास ने आस्था के साथ जुड़ी
इस बात को कि अतीत में विमान
थे, एक
परचे के रूप में विज्ञान महासभा
के सम्मेलन में पढ़ा। यह एक
अद्भुत विड़ंबना है। पिछली
सदी में और खास तौर पर हाल के
दशकों में यह धारणा मजबूत होती
गई है किसी भी बात के सही होने
के लिए उसका वैज्ञानिक आधार
होना ज़रूरी है। आस्था के
प्रसंग में इसमें एक विरोधाभास
है, पर
आम लोग इस विरोधाभास को सहज
ढंग से जीते हैं।
आज़ादी
के बाद देश में बड़े पैमाने पर
आधुनिक तालीम फैलने लगी तो
पुरानी व्यस्थाओं के साथ टक्कर
लेते नए खयाल भी फैले। एक ओर
तो समूची दुनिया में विज्ञान
और आस्था के बीच लकीर साफ होती
जा रही थी,
वहीं
हमारे यहाँ आस्था के नाम पर
बाज़ार और राजनीति का खेल बढ़ता
जा रहा था। ऐसे में देश के
संविधान में वैज्ञानिक चेतना
के प्रसार का जिक्र होना और
तरक्कीपसंद सोच के साथ उसे
जोड़ना उन निहित-स्वार्थों
के खिलाफ जाता है,
जो आस्था
के बाज़ार और राजनीति का फायदा
उठाते हैं। ऐसी स्थिति में
उभरती जटिल सामाजिक परिस्थितियों
को समझाने के लिए अस्सी-नब्बे
के दशकों में कुछेक उत्तरआधुनिक
चिंतकों ने आस्था के सवाल को
अकादमिक रूप से उठाया। बहस
यह थी कि आधुनिक दृष्टि से
आस्था के सवाल को समझा नहीं
जा सकता। यह भी कि तर्कशील
नज़रिया आस्था को समझने में
पूरी तरह नाकाबिल है। भारत
की जनता तो आस्था में जीती है,
इसलिए
हमें तर्क से अलग हटकर अपने
समाज को समझने की ज़रूरत है।
वह नई समझ कैसी होगी यह तो साफ
नहीं हो रहा था,
पर
विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना
की सीमाओं को बखानते हुए इन
चिंतकों ने तर्कशीलता की जम
कर पिटाई की। दूसरी ओर ऐसी
कोशिशें भी चल रही थीं कि आस्था
पर आधारित रस्मों का वैज्ञानिक
आधार है। आम लोग इस विरोधाभास
को कैसे लेते हैं,
पीके
फिल्म यह बात साफ दिखलाती है।
लोगों में यह समझ भरपूर है कि
आस्था का बाज़ार उनको लूटता
जा रहा है। जो लोग आस्था के
नाम पर राजनीति करते हैं,
उनसे
मुठभेड़ करने में कोई हर्ज़
नहीं होना चाहिए।
आखिर
विज्ञान क्या है?
संक्षेप
में कहा जाए तो
यह हमें ऐसी मान्यताओं तक ले
जाता है,
जिन्हें
तर्क और प्रयोगों के आधार पर
सत्यापित किया जा सके। इस तरह
विज्ञान ज्ञान पाने के दूसरे
सभी तरीकों से अलग और अनोखा
तरीका है। आखिर इसमें ऐसी क्या
विशेषताएँ
हैं कि इसे अनोखा माना जाए?
विज्ञान
के हर पक्ष
का कोई
सरलीकृत विवरण नहीं दिया
जा सकता। हम जानते हैं कि
विज्ञान की नींव प्रत्यक्ष
प्रमाणों पर आधारित है। प्रयोग
दुहराने पर बार-बार
एक जैसे अवलोकनों को प्रत्यक्ष
देख पाने की,
मापने
में राशियों पर नियंत्रण -
यानी
कौन सी राशि नियत हो और कौन सी
घट-बढ़
रही हो,
इसको
नियंत्रण करने की,
और
सैद्धांतिक प्रस्तावनाओं
को ग़लत साबित कर पाने की स्थितियों
की कल्पना की माँग विज्ञान
में ज़रूरी
होती है। कुल मिला कर विज्ञान
ज्ञान और सत्य के
निकट तक
पहुँचने का तक पहुँचने का
सर्वांगीण तरीका है,
जिसके
लिए शुरूआती चरणों में सरल
तरीके अपनाए
जाते
हैं,
पर
सरलीकरण की साफ समझ होना ज़रूरी
है। अवलोकन और
मापन में अनिश्चितताओं को
अधिकतम निश्चितता के साथ दर्ज़
करने की जैसी माँग विज्ञान
में है,
ऐसी
और कहीं नहीं है।
अक्सर
विज्ञान और तक्नोलोजी का
विकास समांतर में हुआ है,
हालाँकि
यह कतई ज़रूरी नहीं कि ऐसा
समांतर विकास हो और न ही हमेशा
ऐसा होता है। उन्नीसवीं सदी
तक यूरोप और भारत में तक्नोलोजी
में विकास का ऐसा बड़ा अंतर हो
चुका था कि नई तक्नोलोजी के
साथ आ रहे विज्ञान की उपमहाद्वीप
में कोई जड़ें पहले से मौजूद
नहीं थीं। यूरोप में उच्च
शिक्षा संस्थाओं में बड़ी
प्रयोगशालाएँ आम हो गई थीं।
उपमहाद्वीप में ऐसा कुछ भी
नहीं था। आधुनिक विज्ञान में
सिद्धातों और प्रयोगों को
साथ-साथ
देखा जाना जाता है,
यह
यूरोप में हो चुका था। भारत
में ये दो अलग बातें थीं। हाथों
से काम करना निचली जातियों
के लिए था। यहाँ तक कि
चिकित्सा-शास्त्रों
में ऊँचाइयों तक पहुँचने के
बावजूद उस पर आध्यात्मिकता
का लबादा ओढ़ा गया और शरीर,
खास
तौर पर मृतकों पर काम करने
वाले शोधकों को अस्पृश्य माना
गया। इसलिए आज के विज्ञान के
नज़रिए से जो तरक्की हमारे
यहाँ हुई थी,
वह
खंडित,
और
अक्सर वाचिक परंपरा में सीमित
रही। अगर बाहरी प्रभाव न होता
तो उपनिवेश काल में भारत में
विज्ञान का जैसा विकास हुआ,
उससे
बेहतर कुछ होने की संभावना
नहीं थी। मीमांसा के आधुनिक
तरीकों के साथ समझौता करते
और उसे अपनाते हुए जो विकास
पिछली दो सदियों में हुआ,
वह
सीखने का ऐसा ढाँचा था,
जिसमें
अधिकतर लोगों को मौका नहीं
दिया गया। अतीत में समाज में
जो मान्यताएँ प्रचलित थीं,
उन
पर अधकचरी समझ ज्यादातर लोगों
में बनी रही। पर वह वैज्ञानिक
समझ नहीं कहला सकती।
बोदास
ने जो बातें अपने परचे में
कहीं,
उनका
खंडन चालीस साल पहले किया जा
चुका था। वह कोई हवाई खंडन
नहीं था,
बाकायदा
गहन अध्ययन के बाद एरोस्पेस
(उड्डयन)
इंजीनियरिंग
के वैज्ञानिक प्रो.
मुकुंद
और उनके चार सहयोगियों ने
प्रतिष्ठित पत्रिका में परचा
लिख कर यह साबित किया था कि
जिन सूत्रों का हवाला बोदास
ने दिया है,
वह
कपोल कल्पना हैं। तो बोदास
ने कैसे यह परचा पढ़ा?
क्या
विज्ञान महासभा किसी को भी
कुछ पढ़ने की अनुमति दे सकती
है?
यह
सामाजिक हिंसा के समांतर चलती
बौद्धिक गुंडागर्दी है।
बौद्धिक दुनिया में धौंस जमाए
बिना बाज़ार और राजनीति कमज़ोर
पड़ जाती है। इसलिए समाज को
अंधकूप में डालकर फायदा उठाने
वाले बौद्धिक गुंडागर्दी
करते हैं। चिंता की बात यह है
कि आम बुद्धिजीवी इतना असहाय
हो गया है कि या तो वह इस गुंडागर्दी
को चुपचाप सह रहा है या इसका
साथ देते हुए अपना फायदा निकालने
के फेर में पड़ा है। ऐसा बुद्धिजीवी
जितना भी विज्ञान पढ़ा हो,
महज
समझौतापरस्त ही नहीं,
रुढ़िवादी
ही कहलाएगा। बदकिस्मती से
हमारे देश के अधिकतर वैज्ञानिक
इसी श्रेणी में आते हैं। समाज
के बारे में औसत वैज्ञानिक
की जागरुकता कितनी है,
वह
इसी बात से जाहिर हो जाती है
कि अधिकतर तो अपनी भाषाओं में
विज्ञान पर बात ही नहीं कर
सकते। वैसे इसका कारण यह भी
है कि तमाम परचेबाजी के बावजूद
उनमें विज्ञान की समझ कमज़ोर
है।
स्टीवेन
पिंकर ने कहा है कि
पिछली सदियों के मुकाबले में
समाज में हिंसा आम तौर पर कम
हुई है। जिस तरह हर रोज हिंसा
की खबरें आती हैं,
ऐसा
लगता है कि पिंकर की
यह धारणा
सहीं नहीं होगी। पर सचमुच अगर
इंसान ने कोई तरक्की की है तो
वह हिंसा को नकारने की प्रवृत्ति
का बढ़ना ही
है। इंसान की जैविक बनावट ऐसी
है कि हिंसा और प्रेम दोनों
भावनाएँ उसमें प्रबल हो सकती
हैं। असहायता और असुरक्षा से
हिंसा पनपती है। राजनैतिक
ताकतें इस बात का फायदा उठाती
हैं -
कभी
यह आज़ादी या
बराबरी के लिए संघर्ष
में तो कभी सांप्रदायिक हिंसा
में दिखता है। हमारे यहाँ
पिछली सदी में सांप्रदायिक
ध्रुवीकरण और हिंसा का माहौल
घटता-बढ़ता
रहा है। अस्सी के दशक से लगातार
सांप्रदायिक भावनाओं को
भड़काकर,
लोगों
में असुरक्षा का अहसास पैदा
कर,
एक
हिंसक गुंडा
समाज बनाने
की कोशिशें चलती रही हैं। आज
उत्तर भारत में यह गुंडागर्दी
की प्रवृत्ति
व्यापक है। जिन
चिंतकों ने आस्था का सवाल
उठाते हुए इस बढ़ते ध्रुवीकरण
को समझने-समझाने
की कोशिश की थी,
पीके
फिल्म और इसके प्रति आम लोगों
का खिंचाव उन्हें खारिज करते
हैं। यह अकारण नहीं है कि इससे
सांप्रदायिक ताकतों और आस्था
का बाज़ार चलाने वालों को काफी
परेशानी हुई है और उन्होंने
इस फिल्म को बैन करने की माँग
उठाई है।
तर्कशील
होना किसी की आस्था का अपमान
नहीं है। जब तक कोई किसी को
अपनी हरकतों से चोट नहीं पहुँचा
रहा हो,
वह
अपनी
मर्ज़ी से तर्कशील या आस्थावान
हो सकता है। यह
बात उनको मालूम है,
जिन्होंने
आस्था का सवाल उठाकर आधुनिकता
के उस केंद्र को भी खारिज कर
दिया था,
जिसने
हमें न केवल कुदरत के बारे
में बेहतर समझ दी है,
बल्कि
इंसान की
सही ग़लत कारवाइयों पर सवाल
खड़ा करने की ताकत भी दी है।
आस्था
के सवाल का हौव्वा खड़ा करने
वाले सांप्रदायिक राजनीति
के खिलाफ मुखर रहे,
आज
भी हैं,
पर
वे समय-समय
पर डाँवाडोल सी बातें करते
रहते हैं। विज्ञान
और वैज्ञानिक सोच पर ऊल-जलूल
हमला करने वाले खुद किसी
निरपेक्ष धरातल से नहीं आते,
वे
सभी भयंकर गैरबराबरी पर आधारित
हमारे समाज
के सुविधा-संपन्न
वर्गों से आते हैं। इसलिए
आस्था के सवाल के
उनके शोर को निःशंक होकर नहीं
लिया जा सकता। पीके हमें
यही बात
बतलाती है। चालीस
साल पहले प्रतिष्ठित
वैज्ञानिकों द्वारा खारिज
किए जा चुके बकवास पर विज्ञान
महासभा में बोदास का परचा पढ़
सकना हमें बतलाता है कि आम
लोगों को बेवकूफ बनाकर हिंसक
गुंडा समाज बनाने की प्रक्रियाएँ
उरूज पर हैं। ऐसे
में प्रसिद्ध लोकप्रिय संगीत
मंडली 'इंडियन
ओशन'
के
गीत की यह पंक्ति ही दुहरा
सकते हैं कि 'बस
कीजिए आस्मान में नारे उछालना,
यह
जंग है इस जंग में ताक़त लगाइए।'
Labels: जनपक्ष, दमन और विरोध, सांप्रदायिकता
Wednesday, January 14, 2015
हे साधुजन, अपनी नज़र साफ करो
पिथागोरस का प्रमेय - सब्ब बेद में बा
(बांग्ला अखबार 'एई समय' मेंप्रकाशित आशीष लाहिड़ी के लेख का अनुवाद।
आशीष लाहिड़ी नैशनल
काउंसिल ऑफ साइंस म्युज़ियम
में विज्ञान के
इतिहास के
अध्यापक हैं)
वैज्ञानिक
मेघनाद साहा कम उम्र में ही
ताप-आधारित
आयनीकरण की खोज
कर दुनिया भर
में प्रख्यात हो चुके थे। उनका
मन हुआ कि बचपन के गाँव
जाकर
आम लोगों से बातचीत कर आएँ।
एक बूढ़े वकील ने उनसे पूछा,
'बेटा,
का खोजा
है तुमने कि एतना नाम हो गया।'
मेघनाद
ने समझाने की कोशिश की
कि सूरज
के प्रकाश में रंगों का विश्लेषण
कर वहाँ मौजूद या जो मौजूद
नहीं हैं,
उन तत्वों
को जानने का तरीका निकाला है।
सुनकर उम्रदराज वकील साहब
बोले, 'हँः,
इसमें
नया का है,
सब्ब
बेद में बा।'
बीजेपी
के सत्ता में आने के बाद यह
'सब्ब
बेद में बा'
बात
काफी फैल चुकी है।
ताप-आधारित
आयनीकरण की जगह पिथागोरस के
प्रमेय या अंग
ट्रांस्प्लांटेशन
(गणेश
इसके प्रमाण हैं)
ने ले
ली है। एन आर आई की ताकत के
बल
पर पहलवान बने बजरंगबली की
पूँछ में तीन 'म'शालें
धू-धू
जल रही हैं -
मनी,
मैनेजमेंट,
मीडिया।
हाल में इस मशाल की लपटें
विज्ञान महासभा तक
धधक उठीं।
भले लोग आतंकित हैं। पर अगर
ऐसा नहीं होता तो क्या हिसाब
ठीक रहता?
पढ़े
लिखे लोगों ने बीजेपी से इससे
अलग और क्या अपेक्षा रखी
थी?
पिछली
बार बीजेपी के सत्ता में आने
पर विश्वविद्यालयों में ज्योतिष(हस्तरेखा)-
'विज्ञान'
को अलग
विषय मानकर पढ़ाना लगभग चालू
ही हो गया था। नार्लिकर
समेत
दीगर वैज्ञानिकों ने विरोध
जताया था। यह सब जानकर ही तो
पढ़े लिखे
लोगों ने बीजेपी को
सत्ता दी है। तो फिर बंधु अब
क्यों चीखो मम्मी,
मम्मी...!'
सवाल
प्रधानमंत्री या बीजेपी के
आचरण का नहीं है। सवाल यह है
कि लोग
आज क्यों चौंक रहे हैं?
इसमें
बड़ी बेईमानी है। अगर बीजेपी
सत्ता में नहीं भी
होती,
तो क्या
देश के लोगों के बड़े हिस्से
की, वैज्ञानिकों
की भी, आस्था
क्या
ऐसी ही नहीं है?
सब्ब
बेद में होने की परंपरा तो
आधुनिक हिंदू-चेतना
में
अमिट,
अमर
है। विद्यासागर ने 1853
में कहा
था, 'भारत
के पंडितों'
के लिए
वैज्ञानिक सच गौण हैं,
गैरज़रूरी
हैं, वे
यह देखते हैं कि इस सच के साथ हिंदुओं
के शास्त्रों के किसी विचार
का सही या कल्पित मेल कितना
है। अक्षय दत्त ने
आजीवन ऐसे
खयालों का विरोध करते हुए खुद
को समाज से बहिष्कृत तक
करवा
लिया, पर
क्या इससे किसी का विचार बदला?
जी नहीं,
अगर
बदला
होता तो विवेकानंद क्यों
कहते कि न्यूटन के जन्म के एक
हजार साल पहले ही
हिंदुओं ने
गुरुत्वाकर्षण की खोज कर ली
थी। विवेकानंद के हमउम्र
प्रकांड
विद्वान योगेशचंद्र
राय विद्यानिधि ने इसका विरोध
करते हुए कहा था,
'कम
जानकारी रखने वाले कुछ लोग
भास्कराचार्य के कथन पेश कर
न्यूटन के महत्व
को कम करना
चाहते हैं। उन्हें यह जानना
चाहिए कि दोनों में ज़मीं
आस्मान का
फर्क है। मेघनाद
साहा स्वभाव से तीखा लिखते
थे, 'इस
देश में कई लोग
सोचते हैं कि
ग्यारहवीं सदी में भास्कराचार्य
गुरुत्वाकर्षण पर धुँधला सा
कुछ
कह गए तो वे न्यूटन के बराबर
हो गए। और न्यूटन ने नया क्या
किया है? पर
ये
'नीम
हकीम खतरे जान'
वाले
श्रेणी के लोग भूल जाते हैं
कि भास्कराचार्य ने
कहीं यह
नहीं कहा कि धरती और दीगर ग्रह
सूरज के चारों ओर अंडाकार
परिधि
में घूम रहे हैं। उन्होंने
कहीं यह सिद्ध नहीं किया कि
गुरुत्वाकर्षण और गति के
नियमों को जोड़कर धरती और दीगर
ग्रहों के गति-कक्ष
पता लगाए जा सकते
हैं। इसलिए
भास्कराचार्य या कोई हिंदू,
ग्रीक
या अरब केप्लर-गैलीलिओ
या
न्यूटन के बहुत पहले ही
गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत
खोज चुके हैं,
ऐसा
कहना
पागल का प्रलाप ही होगा।
बदकिस्मती से इस मुल्क में
ऐसे अंधविश्वास फैलाने
वाले
लोगों की कमी नहीं है,
ये लोग
सच के नाम पर महज खाँटी झूठ
फैला रहे
हैं।'
इससे
हमारी निष्क्रिय चेतना पर
कोई खरोंच पड़ी क्या?
नहीं,
अगर
पड़ती तो
हिग्स बोज़ोन की खोज
के बाद देश के उच्च-शिक्षित
लोग क्यों कह रहे थे कि
अब भारत
ने जो वेदांतिक सच खोजा था,
वह सिद्ध
हुआ।
1961
में
रवींद्रनाथ की विज्ञान-चेतना
की चर्चा करते हुए परिमल
गोस्वामी ने
लिखा था,
'प्राचीन
भारत में सब कुछ ग्रामीण
मान्यताओं पर आधारित था,
इस
देश
में विज्ञान के आने के बाद कई
पढ़े-लिखे
लोगों में इसका असर दिखने
लगा
था।... बिना
प्रमाण और तर्क के कई बार ऐसा
कहा गया है कि आधुनिक
यूरोपी
विज्ञान असल में प्राचीन
भारतीय विज्ञान के एक छोटे
से हिस्से की खोज
मात्र है।
मेरे विचार में बंगाल में आधुनिक विज्ञान को पूरी आस्था
के साथ
स्वीकार करने वाले पहले
व्यक्ति अक्षयकुमार दत्त थे।
पर अकेले उनके प्रचार
की औकात
ही क्या कि वह नए उभरते घमंड
के बनिस्बत तर्कशीलता की
प्रतिष्ठा करे। रवींद्रनाथ
के वक्त झूठे घमंड में बढ़ोतरी
होती चली थी।'
और
इसके
विरोध में रवींद्रनाथ ने
वयंग्य के औजार की मदद ली थी।
हेमंतबाला को
लिखे अमर ख़तों
में रवींद्रनाथ ने इस मूढ़ता
की जम कर खिंचाई की थी। क्या
उस तिरष्कार का कोई असर हम पर
पड़ा था? नहीं।
किसी भी बात से हम पर
कोई असर
नहीं पड़ने वाला।
1891
में
ज्योतिराव फुले ने लिखा था,
'कुछ
साल पहले मराठी में लिखी एक
पुस्तक में मैंने ब्राह्मणों
के संस्कारों के असली रुप की
पोल खोली थी।'
उसी
महाराष्ट्र में गणेश आगरकर
ने लिखा था,
'इंसान
के चमड़े के रंग से उसकी
काबिलियत
कैसे पहचानी जा सकती है?
इस
चतुर्वर्ण प्रथा को किसने
शुरू
किया?
किस ने
यह अतिवादी कथा चलाई कि ब्राह्मणों
का जन्म 'समाजपुरुष'
नामक
किसी पुराणकल्पित आदमी के
मुँह से और अछूतों का उसके पैर
से
जन्म हुआ?
ऐसे
अन्यायी शास्त्रों का विनाश
हो।' विनाश
हुआ क्या?
नहीं।
इसीलिए फुले-आगरकर
की चेतावनी के सौ सालों से भी
ज्यादा समय के बाद
उसी महाराष्ट्र
में ब्राह्मणवादी ताकतों के
हाथों तर्कशील जनसेवक चिकित्सक
नरेंद्र दाभोल्कर की मौत हुई।
सनातन धर्म संस्था के सिद्धांतों
के नेता डा.
जयंत
अठवले ने अपनी निजी मानविकता
का ब्रांड दिखलाते हुए सार्वजनिक
रूप से कहा,
हत्यारे
के हाथों मारा जाना दाभोलकर
का कर्मफल है;
अच्छा
ही
हुआ, डॉक्टर
की छुरी सहकर,
ऑपरेशन
टेबल पर मरने से तो यह तो बेहतर
है! उस
प्रांत के कुछ वैज्ञानिकों
के अलावा हममें से और किसी के
सीने में कहीं
कोई आग धधकी?
नहीं
धधकी। रोशनी नहीं चमकी।
हाँ,
यह मानना
पड़ेगा कि अंधविश्वास और
अंधविश्वास मौसेरे भाई हैं।
हिंदुत्ववादी सब्ब वेद में
है कहकर जो हुंकार देते हैं,
उसकी
बिल्कुल एक जैसी
प्रतिध्वनि
पश्चिमी सीमा के पार सुनाई
पड़ती है। बस 'बेद'
की जगह
वे 'कुरान'
कहते
हैं। पाकिस्तान के प्रसिद्ध
नाभिकीय भौतिकी के माहिर परवेज
हूदभाई ने
इसके कुछ नमूने पेश
किए हैं। जैसे 'इस्लामाबाद
में विज्ञान सम्मेलन में एक
जर्मन प्रतिनिधि ने कहा कि
उन्होंने गणितीय टोपोलोजी
का इस्तेमाल कर सिद्ध
कर दिया
है कि वे 'अल्लाह
का कोण' माप
सकते हैं। यह है पाई बटा n,
जहाँ
पाई का मान है 3.1415927...
और n
का मान
अनिश्चित है। पाठक इस
बात को
मानने से इन्कार कर सकते हैं।
सही है, ऐसा
अजीब हिसाब किसी के
दिमाग में
कैसे आ सकता है?
पर
पाकिस्तान के विज्ञान और
प्रौद्योगिकी
मंत्रालय के
इस्लामी विज्ञान सम्मेलन के
संक्षिप्त विवरण-ग्रंथ
(1983) के
पृ.
82 को
देखिए। अगर देखें तो अपनी ही
आँखों पर यकीन नहीं कर पाएँगे।
पाठक यह भी जान लेंगे कि इस
पागल को पाकिस्तान सरकार ने
निमंत्रण कर
उसकी आवभगत का
खर्च तक उठाया था। सवाल उठ
सकता है कि इस
आदमी को ईश निंदा
के ज़ुर्म में क्यों नहीं पकड़ा
गया? इसकी
दो वजहें हैं। एक
तो इस आदमी
की ऊल-जलूल
बातें (जो
छपी हैं) ऐसी
निरर्थक हैं,
कि वह
किसी के समझ नहीं आ सकतीं।
दूसरी बात यह कि उस सभा में वे
अकेले ऐसे
पागल नहीं थे।'
क्या
मुंबई विज्ञान कॉंग्रेस की
सभा में मौजूद विद्वान जन
हूदभाई
की इस पुरानी टिप्पणी
से वक्त रहते कोई सीख ले पाए?
इसलिए,
बीजेपी
का काम बीजेपी कर रही है,
इससे
दुखी होने का नाटक करने
से
पहले, हे
साधुजन, अपनी
नज़र साफ करो।
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