सहे
जाते हैं
अब बहुत कुछ सहा जाता है
हर दूसरे दिन कोई जाते हुए कह जाता है
चुका नहीं अभी हिसाब
तुम भी आओ हम खाता खोले रखेंगे
अपना कुछ चला गया
पहले ऐसा सालों बाद कभी होता था
अब सहता हूँ हर दिन खुद का गुजरना
जड़ गुजरती दिखती कभी तो कभी तना हाथ हिलाता है
एक एक कर सारे प्रेम विलीन हो रहे हैं
फिर भी सहे जाते हैं खुद के बचे का बचा रहना
छिपाए हुए उन सबको जो गए
और जो जा रहे हैं।
(समकालीन
भारतीय साहित्य :
2014)
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