कितने
कितनी
बार चाय पी दिन में
सपनों को दरकिनार कर
कितना न कहने की कोशिश में
कितनी बार बहुत कुछ कहते रहे
बिना पलक झपके
कहते रहे झूठ
कितने पल गँवाए
गिनो तो जरा लगाओ हिसाब
लाख एक या दो-चार
दो जनों के झूठ के पल
इतने हो सकते हैं
यह जानकर तुम अपने और मैं अपने
ग्रह में नज़रें झुकाए बैठे हैं
इतनी दूर से मेरी आँखों से
तुम्हारी नज़र नहीं टकराती
विड़ंबना कि
गँवाए उन पलों ने बाँधा हमें
घनचक्कर से काटते रहे अनगिनत सूर्यों के चक्कर
जानते कि मुझे तुम्हारी और तुम्हें मेरी ज़रूरत है
अब नींद भरी आँखों से परस्पर को देखते हैं
जैसे किसी मायालोक में हमारे उठे हाथ
छू नहीं पाते एक दूजे को
कहना बस इतना
कितनी बार चाय पी दिन में।
(समकालीन भारतीय साहित्य : 2014)
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