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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Wednesday, January 21, 2015

खो गए दुःख सो गए


दुःखों के सागर से चाँद



जुटा हुआ निकलने की आखिरी कोशिश में हूँ हँसता
तभी आता चाँद सागर से निकलता
देखो कहना मत किसी से कि मैं आया
तुम्हारे पास सिर्फ तुम्हारे लिए
जब चाहूँगा आऊँगा
खिलानी होगी खीर कहता


लगा जैसे कोई इंसान हर रोज हल्का दिमाग हल्की बातें मिलता
पर वह चाँद ही सागर से निकला था
धब्बे ही धब्बे उस पर
सदियों के सुलगते घाव
रह रह अपने सूखे हाथों से
सीना जो टूटने को था थामता


जब - चाँद, आराम कर लो दो पल - कहा
वह उछला पर नहीं उछला हँसा पर नहीं हँसा
अभी ज़रुरत है कहीं अधिक मेरे होने की- बोला
इन घावों को मत सोचो
ये तुम्हारे ही हैं माल-मता


शब्दों का प्रवाह मैदानों में उमड़ रहा
भूत प्रेत उसे ठिठक कर देखते
उस की ठंडक में भरोसा फैलता


कि फिर सुबह होगी और तब आई नींद परी
खो गए दुःख सो गए
चाँद और सुबह बदन को धो गए।
(समकालीन भारतीय साहित्य : 2014)

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