दुःखों
के सागर से चाँद
जुटा हुआ निकलने की आखिरी कोशिश में हूँ हँसता
तभी आता चाँद सागर से निकलता
देखो कहना मत किसी से कि मैं आया
तुम्हारे पास सिर्फ तुम्हारे लिए
जब चाहूँगा आऊँगा
खिलानी होगी खीर कहता
लगा जैसे कोई इंसान हर रोज हल्का दिमाग हल्की बातें मिलता
पर वह चाँद ही सागर से निकला था
धब्बे ही धब्बे उस पर
सदियों के सुलगते घाव
रह रह अपने सूखे हाथों से
सीना जो टूटने को था थामता
जब - चाँद, आराम कर लो दो पल - कहा
वह उछला पर नहीं उछला हँसा पर नहीं हँसा
अभी ज़रुरत है कहीं अधिक मेरे होने की- बोला
इन घावों को मत सोचो
ये तुम्हारे ही हैं माल-मता
शब्दों का प्रवाह मैदानों में उमड़ रहा
भूत प्रेत उसे ठिठक कर देखते
उस की ठंडक में भरोसा फैलता
कि फिर सुबह होगी और तब आई नींद परी
खो गए दुःख सो गए
चाँद और सुबह बदन को धो गए।
(समकालीन
भारतीय साहित्य :
2014)
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