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Showing posts from February, 2014

"ग़म की लौ थरथराती रही रात भर"

कौन थरथराता है किसकी रुकती है साँस कायनात की सारी कारवाई रोक दी जाए सारे अंजील और देव सारे उतर आओ धरती पर कि किसी के ग़म की लौ से पिघलने लगा है शेषनाग का सीना कौन काँपता है सिसकता हुआ चाहत किस रब की साझा करता कौन मुझसे यूँ और मैं धरती के सबसे ऊँचे पहाड़ पर खड़ा होकर चीखता हूँ और मैं पिघलता जाता हूँ आ कि तेरे नम चश्म को चूम लूँ आ कि तेरी गोद में टपका दूँ मेरा आखिरी आँसू आ तू कि तेरी थरथराहट में विलीन होता हुआ मैं खुद को रच लूँ आ तू । ( रविवारी जनसत्ता - 2013)

आम आदमी

शुक्रवार पत्रिका के फरवरी के दूसरे अंक में छपी कविता -    आम आदमी चाँद , तू भी क्या आम आदमी है ? सूरज शाम मधुशाला में छिप जाता है तू बीस रातों को पहरेदारी करता है क्या अमावस तेरा भयकाल है ? अँधेरा तुझे डराता वैसे ही क्या जैसे मैं डरता हूँ भूतों से भूत बढ़े चले आ रहे हैं कितनी अमावसें छिपेंगे हम तुम ऐसे ही चलेगा पूरनमासी और अमावस का खेल और डर से ही भिड़ने तुझे साथ लेने निकला हूँ अँधेरे के भूतों देख लो कि आम आदमी क्या बला है।                      (शुक्रवार - 2014)

चेतन-6

बेंगलूरु में आई आई एस सी , आई एस आई , और चेन्नै में आईमैथ्स ( इंस्टीटिउट ऑफ मैथेमेटिकल साइँसेस ) के वैज्ञानिक साथियों ने नाभिकीय विस्फोटों के खतरों से अवाम को सचेत करने के लिए एक स्लाइ़ड शो तैयार किया था। आई एस आई ( इंडियन स्टैस्टिकल इंस्टीटिउट ) में मेरा बहुत ही प्रिय दोस्त विश्वंभर पति ( प्रख्यात स्त्री - आंदोलन कार्यकर्त्ता कुमुदिनी का भाई ) अध्यापक है। उससे स्लाइ़ड्स मँगवाईं। उन्होंने चेन्नै को ग्राउंड ज़ीरो  नाभिकीय बम जहाँ गिरता है उसके बिल्कुल पास का क्षेत्र ) बनाकर दिखलाया था। चेतन ने इसे बदल कर चंडीगढ़ को ग्राउंड ज़ीरो बनाया। पता नहीं हमलोगों ने कितने स्कूलों , समुदाय केंद्रों में इसे दिखलाया। नाभिकीय विस्फोटों की बात करते हुए हम दक्षिण एशिया में शांति के पक्ष में और सांप्रदायिकता के खिलाफ तर्क रखते। अधिकतर जगह मैं भाषण देता। कहीं कहीं और साथी बोलते। हमने सांप्रदायिकता के खिलाफ मोर्चा बुलंद किया हुआ था। वह बड़ा कठिन समय था। 1998 के विस्फोटों के साल भर बाद कारगिल युद्ध हुआ। हमलोग लगे रहे। गुरशरण सिंह ने स्लाइड शो के आधार पर नाटक लिखा और वह सैंकड़ों जगह खेला गया। चेतन ...

चेतन-5

आखिर चेतन में ऐसी क्या बात थी कि उस पर संस्मरण लिखा जाए। यह तो हर कोई जो उसे जानता था खुद सोचेगा , पर मुझे लगता है चेतन के बहाने मैं अपने ही अतीत की पड़ताल कर रहा हूँ। किसी भी दो लोगों की तरह चेतन और मुझमें भी कुछ मिलती - जुलती बातें थीं और कुछ ऐसी जहाँ हमारा स्वभाव एक दूसरे से बिल्कुल अलग था। हम दोनों शहरी ग़रीब मजदूर पिता के बच्चे थे। चेतन के पिता कपड़े सीने का काम करते थे , मेरा बापू सरकारी ड्राइवर था। वे दो भाई एक बहन तो हम तीन भाई एक बहन। वे मुंबई में गुजराती तो हम कोलकाता में आधे पंजाबी। पृष्ठभूमि से वे इस्माइली मुसलमान तो हम आधे सिख। विचारों में दोनों नास्तिक , वाम की तरफ झुके पर अराजक। दोनों का बचपन सामुदायिक आवासों में गुजरा। वैसे पाँच की उम्र से हम सरकारी फ्लैट में आ गए थे। सबसे बड़ी समानता दोनों में जहालत और सामंती मूल्यों के प्रति असहिष्णुता थी। मैं फिर भी काफी हद तक समझौता कर लेता , पर चेतन भिड़ जाता। साइकिल चलाते हुए अकसर ऐसे लोगों का सामना करना पड़ता है जो आपको साइकिल से भी कम समझते हैं। मैं तो अधिकतर नज़रअंदाज़ कर देता पर चेतन उनके साथ लड़ लेता। माउंट विउ होटल में सामने...

चेतन-4

चंडीगढ़ के हमारे युवा दोस्त जो अब इतने युवा नहीं रहे , उन्हें जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे परिचय के शुरूआती अध्याय में चेतन को न केवल बड़े राजनैतिक मुद्दों में रुचि न थी , उसे इनसे चिढ़ थी। इस बात की जानकारी एक और साथी , मृगांक , जो एक जुझारू वाम दल का कार्यकर्त्ता है , उसे है। इमटेक में बस एक आदमी मृगांक था , जिसकी वाम राजनीति में गहरी रुचि और भागीदारी थी। बाद में उसने नौकरी छोड़ दी और वह पार्टी का पूर्णकालीन कार्यकर्त्ता बन गया। मेरी ही एक छात्रा से उसकी शादी हुई। इन दिनों वे दिल्ली में रहते हैं। साहित्य में भी चेतन की रुचि सतही थी। चूँकि पिता इप्टा के स्वर्ण - युग के दिनों में मुंबई इकाई के सचिव रह चुके थे , इसलिए जन - गीतों में उसकी रुचि थी। इसके अलावा फिल्म उसकी लाइफ - लाइन थी। पर मेरे पहले कविता - संग्रह , जो 1991 में आ चुका था , में उसकी कोई रुचि न थी। कहानियों में फिर भी थोड़ी रुचि थी। 1995-96 तक चेतन से मेरा संबंध मुख्यतः कंप्यूटर और निजी संदर्भों का था। मैं सैद्धांतिक रसायन में शोध करता रहा हूँ और कागज़ कलम के अलावा कंप्यूटर ही मेरा मुख्य उपकरण है। पंजाब विश्वविद्यालय क...

चेतन-3

नब्बे के दशक के पहले सालों में भारत से इंटरनेट पर जाने वाली सारी मेल मुंबई में टी आई एफ आर में मौजूद 'शक्ति' नामक एक सर्वर से होकर जाती थी। चंडीगढ़ से मुंबई के इस गेटवे तक मेल के जाने के लिए एस टी डी ( दूर संचार ) फ़ोन के अलावा कोई तरीका न था। फ़ोन का खर्चा दिन को अधिक होता , रात को कम। आजकल युवाओं को यह सब अजीब लग सकता है , पर बीसेक साल पहले भी टेक्नोलोजी इसी स्तर की थी। चेतन की रात को काम करने की आदत थी। वह सुबह देर से उठता और ग्यारह-बारह बजे के पहले दफ्तर न आता। पर रात को देर तक सबकी इकट्ठी हुई मेल शक्ति गेटवे तक भेजता। उन दिनों सूचना प्रौद्योगिकी की जो स्थिति थी , कई तरह की गड़बड़ियाँ होती रहतीं। पर चूँकि चंडीगढ़ आने के पहले टी आई एफ आर में जो भी कंप्यूटर और सूचना प्रोसेसिंग की मशीनें थीं , उन पर चेतन ने काम किया हुआ था , कई तो उसने खुद इंस्टाल और कन्फिगर की थीं और उन दिनों देश भर में इस तरह की मशीनों पर काम करने वाले इने गिने लोगों से वह न केवल परिचित था , बल्कि उनको सलाह - मशविरा देता रहता था। इसलिए कहीं कोई दिक्कत होती तो चंडीगढ़ में बैठे ही फ़ोन पर बात कर वह समस्या सु...

चेतन-2

कई दोस्तों ने कहा कि यह संस्मरण पूरा होना चाहिए। यह शायद मेरे लिए संभव न हो। पर थोड़ा-थोड़ा जोड़ते चलें तो शायद बात कुछ बढ़े। आखिर क्या - क्या लिखें। हिंदी में टाइप करना भी कहाँ कोई आसान काम है। इसी बीच हमारे प्रिय , जन - गीतों के गायक पीट सीगर की मौत हो गई। जैसे एक जमाना गुजर गया। कभी उन पर भी लिखना है। चेतन से पहली मुलाकात का किस्सा ई - मेल के इतिहास से जुड़ा है। अस्सी के शुरूआती सालों में मैं जब अमेरिका में पी एच डी के लिए शोध कार्य कर रहा था , ई - मेल तब नई बात थी। और मेल सिर्फ स्थानीय स्तर पर , अपनी ही संस्था तक सीमित थी। बाद में हालाँकि ई - मेल का इस्तेमाल वैज्ञानिकों ने ही शुरू किया था , पहले - पहल व्यापक तौर पर इसका फायदा अमेरिका और नेटो ताकतों के साथ जुड़ी सुरक्षा - संस्थाओं के लोगों को मिला। हमलोग यानी आम वैज्ञानिक लोग इसका इस्तेमाल तकरीबन 1989 साल से ही कर पाए थे। मैंने पहली बार 1990 में सांता फे इंस्टीटिउट में एक समर स्कूल में भागीदारी करते हुए अपने शहर से बाहर किसी को ई - मेल भेजी थी। उसी साल देश लौट आए तो हमारी बेटी शाना जन्मी। उसकी गंभीर शारीरिक समस्याओं की वजह से ...