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Showing posts from March, 2006

Cdnuolt blveiee taht

मसिजीवी को लंबे समय से छेड़ा नहीं। अब टिप्पणी आई तो मन हुआ कि लिख दें - अरुणा राय, लाल सलाम! मैं जब कालेज में था तो अक्सर दोस्त बाग मुझे छेड़ा करते थे। कभी कभी मैं भी छेड़ देता था। मैंने अक्सर पाया है कि कुछ लोग छेड़ना सह नहीं पाते। याद आता है कि कई बार गालियाँ सुनी हैं, एकबार तो निंबोरकर नामक एक बंधु मुझे चौथी मंज़िल की खिड़की से भी धक्का मारकर फेंकने वाला था। मैं अपनी कक्षा में सबसे कम उम्र का था और अच्छे बच्चे से कब शरारती बच्चे में तबदील हो चुका था पता ही नहीं था। स्वभाव से अब भी शरारती हूँ, पर अब नाराज़ होने वालों की संख्या कम और प्यार करने वालों की बढ़ गई है। पर जो नाराज़ हैं वे भयंकर नाराज़ हैं। चलो, कभी कोई तरकीब निकालेंगे कि प्रकाश की गति से ज्यादा तेजी से पीछे की ओर दौड़कर पुरानी घटनाओं को बदल डालें ताकि नाराज़ लोग भी मुझपर खुश हो जाएँ। बहरहाल पिछली बार मैंने प्रसंग के आधार पर समझ की बात की थी। पिछले महीने मेरे मित्र राकेश बिस्वास ने, जो डॉक्टर है और इनदिनों मलयेशिया में कहीं है, एक रोचक उदाहरण भेजा था। पता तो मुझे अरसे से था, पर देखा पढ़ा मैंने भी पहली बार ही है। जरा नीचे लि...

लेकिन।

सूचनाः- महज सूचना और अवधारणात्मक समझ के साथ सूचना में फर्क है। जब साधन कम हों तो रटना भी फायदेमंद है। भारतीय परंपरा में लिखने पर कम और श्रुति पर जोर ज्यादा था। चीन में बड़े पैमाने पर तथ्य दर्ज किए गए, पर वहाँ भी स्मृति पर काफी जोर रहा है। गरीब बच्चे जिनके पास पुस्तकें कम होती हैं, उनके लिए रटना कारगर है। यानी स्मृति का महत्त्व है। लेकिन। एक कहानी है, जो मैंने बचपन में सुनी थी - बाद में शायद लघुकथा के रुप में 'हंस' में छपी थी। पंडित का बेटा चौदह साल काशी पढ़ कर आया। गाँव में शोर मच गया। लोग बाग इकट्ठे हो गए। हर कोई बेटे से सवाल पूछे। आखिर चौदह साल काशी पढ़ कर आया है। विद्वान बेटा जवाब दर जवाब देता जाए। आखिर जमला जट्ट भी भीड़ देख कर वहाँ पहुँच गया। जमले से रहा नहीं गया। कहता कि एक सवाल मैं पूछूँ तो बेटे जी से जवाब नहीं दिया जाएगा। लोगबाग हँस पड़े। बेटे ने नम्रता से कहा पूछो भई। जमला के कंधे पर हल था। उसने हल की नोक से ज़मीन पर टेढ़ी मेढ़ी लकीर बनाई। लोग देखते रहे। जमला ने पूछा - बोल विद्वान भाई,यह क्या है? बेटा क्या कहता, हँस पड़ा - यह तो एक रेखा है। जमला ने सिर हिलाया - ...

दढ़ियल फटीचर

अनुनाद ने हिंदी शब्दों के अच्छे उदाहरण दिए हैं जो उनके अंग्रेजी समतुल्य शब्दों की तुलना में ज्यादा सहज लगते हैं। मुझे अनुनाद की बातों से पूरी सहमति है। चिट्ठालेखन की यही तो समस्या है कि अक्सर आप थोड़ी सी ही बात कर पाते हैं जिसे पढ़ने वाला सीमित अर्थों में ही ग्रहण करता है। जब मैंने यह लिखा कि reversible के लिए रीवर्सनीय या 'विपरीत संभव' भी तो कहा जा सकता है, मैं यह नहीं कह रहा कि ग्रीक या लातिन से लिए गए कठिन शब्दों को लागू किए जाए, मैं तो इसके विपरीत यह कह रहा हूँ कि जो प्रचलित शब्द हैं, उनका पूरा इस्तेमाल किया जाए। स्पष्ट है कि ऐम्फीबियन हिंदी में प्रचलित शब्द नहीं है, जैसे उत्क्रमणीय भी नहीं है। इसलिए ऐम्फीबियन की जगह अगर उभयचर का उपयोग होता है, तो उत्क्रमणीय की जगह विपरीत संभव नहीं तो रीवर्सनीय या ऐसा ही कोई शब्द व्यवहार करना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि रीवर्स जैसे शब्द का उद्गम संस्कृत नहीं है, यह तय नहीं करता कि वह हिंदी का शब्द नहीं है। जी हाँ, मेरे मुताबिक लोग जो बोलते हैं, वही उनकी भाषा होती है। उत्क्रमणीय हमारे लिए ग्रीक या लातिन ही है। हिंदी वह नहीं जो भाषा विशेषज्ञ तय कर...

'शिक्षा' और 'विद्या'

'शिक्षा' और 'विद्या' में फर्क है। विद्या मानव में निहित ज्ञान अर्जन की क्षमता है, अपने इर्द गिर्द जो कुछ भी हो रहा है, उस पर सवाल उठाने की प्रक्रिया और इससे मिले सम्मिलित ज्ञान का नाम है। शिक्षा एक व्यवस्था की माँग है। अक्सर विद्या और शिक्षा में द्वंद्वात्मक संबंध होता है, होना ही चाहिए। शिक्षा हमें बतलाती है राजा कौन है, प्रजा कौन है। कौन पठन पाठन करता है, कौन नहीं कर सकता आदि। तो फिर हम शिक्षा पर इतना जोर क्यों देते हैं। व्यवस्था के अनेक विरोधाभासों में एक यह है कि शिक्षा के औजार विद्या के भी औजार बन जाते हैं। जो कुछ अपने सीमित साधनों तक हमारे पास नहीं पहुँचता, शिक्षित होते हुए ऐसे बृहत्तर साधनों तक की पहुँच हमें मिलती है। जब हम जन्म लेते हैं, बिना किसी पूर्वाग्रह के ब्रह्मांड के हर रहस्य को जानने के लिए हम तैयार होते हैं। उम्र जैसे जैसे बढ़ती है, माँ-बाप, घर परिवार, समाज के साथ साथ शिक्षा व्यवस्था हमें यथा-स्थिति में ढालती है। इसलिए औपचारिक शिक्षा में पूर्व ज्ञान का इस्तेमाल वैकल्पिक कहलाता है। औपचारिक शिक्षा में भाषा हमारी भाषा नहीं होती, गणित हमारे अनुभव से दूर ...

एकदिन अनुदैर्ध्य ही सही, अनुत्क्रमणीय रुप से

मुसीबत यह है कि एक तो शिक्षा व्यवस्था पर बहुत सारे लोगों द्वारा बहुत सारी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। दूसरी बात यह है कि हिंदी में टंकन की आदत न रहने की वजह से ब्लॉग पर विस्तार से कुछ लिख पाना मुश्किल है। मैंने समय समय पर आलेख लिखे हैं, पर कभी ऐसा शोधपरक काम नहीं किया जिसे गंभीर चर्चा के लिए पेश किया जा सके। मतलब यह है कि अनुभवों के आधार पर कुछ दो चार बातें कहनी एक बात है और वर्षों तक चिंतन कर विभिन्न विद्वानों की राय का मंथन कर सारगर्भित कुछ करना या कहना और बात है। जब उम्र कम थी तो हरफन मौला बनने में हिचक न थी। जहाँ मर्जी घुस जाते थे और अपनी बात कह आते थे। पर अब शरीर भी और दिमाग भी बाध्य करता है कि अपने कार्यक्षेत्रों को सीमित रखें। इसलिए शिक्षा व्यवस्था पर सामान्य टिप्पणियाँ या विशष सवालों के जवाब तो चिट्ठों में लिखे जा सकते हैं, पर विस्तृत रुप से लिखने के लिए तो अंग्रेज़ी का सहारा लेना पड़ेगा (मुख्यतः समय सीमा को ध्यान में रखते हुए)। प्रोफेसर कृष्ण कुमार की पुस्तकें गंभीर शोध पर आधारित हैं और गहन अंतर्दृष्टिपूर्ण हैं। राज, समाज और शिक्षा से लेकर उनकी दूसरी पुस्तकों मे...

शिक्षा का स्वरुप कैसा हो?

इसके पहले कि इसका कोई जवाब ढूँढा जाए, यह जानना जरुरी है इस सवाल से बावस्ता सिर्फ उन्हीं का हो सकता है जो शिक्षा के क्षेत्र में रुचि के साथ आए हैं। मैं पहले ही बता चुका हूँ कि भारत में अन्य तमाम पेशों की तरह ही शिक्षा के क्षेत्र में भी व्यापक भ्रष्टाचार है और भले लोगों की कम और फालतू के लोगों की ज्यादा चलती है। बी एड, एम एड में पढ़ाया बहुत कुछ जाता है, पर कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी और हम जहाँ के तहाँ रह जाते हैं। संस्थागत ढाँचों से बाहर शिक्षा पर बहुत सारा काम हुआ है। या संस्थानों से जुड़े ऐसे लोग जो किसी तरह संस्थानों की सीमाओं से बाहर निकल पाएँ हैं, उन्होंने शिक्षा में बुनियादी सुधार पर व्यापक काम किया है। आज इस चिट्ठे में मैं सिर्फ कुछेक नाम गिनाता हूँ ताकि जिन्हें जानकारी न हो वे जान जाएँ। बीसवीं सदी में बुनियादी स्तर पर दो मुख्य वैचारिक आंदोलन हुए हैं। एक है गाँधी जी का शिक्षा दर्शन, जिसमें पारंपरिक कारीगरी को सिखाने पर बड़ा जोर है। दूसरा रवींद्रनाथ ठाकुर का प्रकृति के साथ संबंध स्थापित कर उच्च स्तरीय शिक्षा का दर्शन है। दोनों की अपनी अपनी खूबियाँ और सीमाएँ हैं। व्यवहा...

बाकी हर ओर अँधेरा

होली की पूर्व संध्या पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित हुआ। बड़ी दिक्कतें आईं। वैसी ही जैसी प्रत्यक्षा ने अपने चिट्ठे में बतलाई हैं। मैंने शुभेंदु से गुजारिश के उसे मनवा लिया था कि वह हमारे लिए एक शाम दे दे। उसका गायन आयोजित करने में मैं बड़ा परेशान रहता हूँ, क्योंकि भले ही दुनिया के सभी देशों में उसके कार्यक्रम हुए हैं, और भले ही जब शुभा मुद्गल को कोई चार लोग जानते थे, तब दोनों ने एकसाथ जनवादी गीतों का कैसेट रेकार्ड किया था, पर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से बंदे ने गायन को धंधा नहीं बनाया है। और गायन जिनका धंधा है, जो हर दूसरे दिन अखबारों में छाए होते हैं, ऐसे शास्त्रीय़ संगीतकारों को भी जब युवा पीढ़ी बड़ी मुशकिल से झेलती है, तो निहायत ही अपने दोस्तों तक सीमित गायक, जो अन्यथा वैज्ञानिक है, ऐसे गायक को कौन सुनेगा। खास तौर पर जब उनके अपने छम्मा छम्मा 'क्लासिकल सोलो (!)' नृत्य के कार्यक्रमों की लड़ी उसके बाद होनी हो। इसलिए आयोजन में मेरा वक्त, ऊर्जा, पैसा सबकुछ जाया होता है। इसबार मुझे समझाया गया था कि यहाँ लोकतांत्रिक ढंग से सबकुछ होता है और छात्रों के आयोजन में मैं टाँग न अड़...

अनुनाद की सिफारिश पर

अनुनाद ने टिप्पणी लिखी तो मन खुश हो गया। एक तो अरसे से अनुनाद की टिप्पणी पढ़ी न थी। दूसरे छेड़ा भी तो बिल्कुल निशाने पर तीर क्योंकि शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों को लेकर ही मैं वैचारिक रुप से सबसे ज्यादा पीड़ित हूँ। वैसे इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन क्षेत्रों पर कोई विशेष शोध कर रहा हूँ। कर ही नहीं सकता। न वक्त न साधन। इन दो क्षेत्रों की सच्चाइयाँ इतनी स्थूल हैं कि भयंकर शोध की ज़रुरत भी नहीं दिखती। इसलिए सबसे पहले तो मैं अपने एक पुराने चिट्ठे में लिखी लाइनें दुहराता हूँ (आँकड़े तकरीबन सही हैं, पर जिन्हें नुक्ताचीनी करनी है, वे करते रहें, बड़ा सच तो सच ही रहेगा, चाहे ३.२% का आँकड़ा ३.३% बन जाए) **************दिसंबर के चिट्ठे से************ भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की समस्याओं के बारे में दो सबसे बड़े सचः- १) सरकार ने अपने ही संवैधानिक जिम्मेवारियों के तहत बनाई समितिओं की राय अनुसार न्यूनतम धन निवेश नहीं किया है। लंबे समय से यह माना गया है कि यह न्यूनतम राशि सकल घरेलू उत्पाद का ६% होना चाहिए। आजतक शिक्षा में निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के ३.२% को पार नहीं कर पाया है। २) राष्ट्रीय बज...

गोलकंडा की थकान और एक अच्छे मित्र से मिलना

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है आओ यहाँ से चलें उम्र भर के लिए - यही पंक्ति है न दुष्यंत की जो हमलोग कालेज के जमाने में पढ़ते थे? वह धूप कुछ और है - उसका जिक्र आखिर में करुँगा। यहाँ जिस धूप की बात है वह वैसे तो अच्छी लगती है पर उस दिन इस निगोड़ी धूप ने थका ही दिया। गर्मियों में गणनात्मक यानी कंप्यूटेशनल भौतिक और जैव विज्ञान पर एक कार्यशाला करनी है - उनके पोस्टर बनवाने के सिलसिले में शहर गया था। वहाँ से लौटते हुए रास्ते में मेंहदीपटनम शुभेंदु की माताजी से दो मिनटों के लिए मिलने पहुँचा कि शुभेंदु की अनुपस्थिति में सब ठीक है कि नहीं - पता चला शुभेंदु आ पहुँचा है। फिर अभिजित का फ़ोन आ गया कि कानपुर से आए मित्र को शहर घुमाने ला रहा हूँ साथ चलो। मेरी क्लास नहीं थी तो कहा चलो एक दिन घूमना सही। पहले सलारजंग संग्रहालय गए। करीब एक घंटा लगाया। पहले दो चार बार हैदराबाद आया हूँ सलारजंग देखा नहीं था। सुना बहुत था। पर देखकर इतनी बड़ी बात लगी नहीं जितना सुना था। बहरहाल राज-रजवाड़ों में से किसी का निजी संग्रह इतना विशाल हो, बड़ी अच्छी बात है। फार ईस्ट यानी जापान से लाए उन्नीसवीं सदी के बर्त्तन...

आजीवन

१ फिर मिले फिर किया वादा फिर मिलेंगे। २ बहुत दूर इतनी दूरी से नहीं कह सकते जो कुछ भी कहना चाहिए होते करीब तो कहते वह सब जो नहीं कहना चाहिए आजीवन ढूँढते रहेंगे वह दूरी सही सही जिसमें कही जाएँगी बातें। (साक्षात्कार- मार्च १९९७) मुझे बार बार लग रहा है कि यह कविता मैं पहले पोस्ट कर चुका हूँ। अगर सचमुच की हो तो? बाप रे, पिटाई हो सकती है। चलो काफी दिनों तक पिटाई हुई नहीं (मसिजीवी के उल्टे सवालों को पिटाई थोड़े ही कहेंगे!) हो भी जाए तो क्या!

अपने उस आप को

अपने उस आप को अपने उस आप को कैसे समझाऊँ हर निषिद्ध पेय उतारना चाहता कंठ में हर आँगन के कोने में रख आता प्यार की सीढ़ी बो आता घने नीले आस्मान में उगने वाले बादलों के पेड़ जंगली भैंसें, मदमत्त हाथी सबके सामने खड़ा चाहता महुआ की महक हर वर्जित उत्तरीय ओढ़ता सपने भी वही जिनके खिलाफ संविधान में कानून बीच सड़क उड़ती गाड़ियाँ रोक चाहता दुःख, चाहता पृथ्वी भर का दुःख कहता सारे सुख ले लो ओ सुखी लोगो, बच्चों को उनकी कहानियाँ दे दो अपने उस आप को कैसे समझाऊँ मृत्यु स्वयं भी सामने आ जाए तो पढ़ता कविता चीख चीख कर रोता राष्ट्रपति कलाम के भाषण दौरान जब हर कोई मस्त उड़ रहा नशे में बच्चों को बाँसुरी की धुन पर ले जाता दूर अपने उस आप को कैसे समझाऊँ। २००५ (साक्षात्कार २००६)

औरत गीत गाती है

हिंदी कथा हिंदी व्यथा हिंदी में लिखना जिसे कहते हैं बाई डेफीनीशन व्यथा पूर्ण है। जो लिखवाते हैं यानी संपादक वे भी व्यथा में डूबे हैं , हम जो लिखते हैं , हम भी। लघु पत्रिकाओं के संपादक बड़ी मुश्किल से जेब से पैसा लगा लगा के पत्रिका चलाते हैं। हम लोग लिखते हैं , अक्सर पता ही नहीं चलता कि सामग्री पहुँची भी कि नहीं। जब नया लिखना शुरु किया था , तब स्टैंप लगा जवाबी लिफाफा भेजते थे। धीरे धीरे जाना कि यह मूर्खता है क्योंकि हिंदीवाले जवाबी लिफाफा फेंक फाँक देते होंगे। अब तो वे दिन याद भी नहीं हैं। पहली कहानी कमलेश्वर के चयन से सारिका में छपी , पर जब तक छपी सारिका थोड़े दिनों के लिए बंद होकर फिर चली कन्हैया लाल नंदन के संपादन में। कमलेश्वर का खत जब आया था तो मैं फूला न समाया। पर फिर पत्रिका बंद ही हो गई। जब दुबारा प्रकाशन की सूचना मिली तो मैं प्रिंस्टन पहुँच चुका था। उन दिनों कहानी पढ़ कर लोग चिट्ठियाँ लिखा करते थे। घर वालों ने कोई सौएक चिट्ठियों में से छाँटकर तीस भेजीं। लंबे समय तक इनको सँजो कर रखा था। उनमें एक खत बी एच यू में पढ़ रहे एक लड़के का था , जिसने रोते हुए खत लिखा था। अक...

ले जा

अखबार की हेडलाइन हैः PM shows warmth, India heats up। चलो इसी बहाने कुछ हल्ला, कुछ गुल्ला। बसंत के दिन हैं आखिर, सकल बन फूल रही सरसों।।। ले जा बुश, प्रतिवाद-मुखरता के उस उत्सव में उड़ रही धूल ले जा, इस धूल में बसे अनंत जीवाणु तेरी नासिकाओं को खा जाएँ। करोड़ों के मन से निकले अभिशाप में मेरी सांद्र वितृष्णा का एक बूँद तेरे लिए।

तेरे दामन से जो आएँ उन हवाओं को सलाम

स्कूल वालों ने शाना को देशभक्ति पर शोध करने का काम दिया है। आम तौर पर इस तरह का गृहकार्य रुटीन तरीके से समेट लिया जाता है, पर शाना इस पर गंभीर है। चार महीने पहले भाषण प्रतियोगिता में देशभक्ति की आलोचना कर बड़ी सारी ट्राफी जीती थी। फ़ोन पर मैंने बतलाया कि मैं देशभक्त हूँ क्योंकि मुझे भारत की उन हवाओं से प्यार है जो पाकिस्तान भी आती जाती हैं। भारत की चिड़ियों से तो प्यार होगा ही क्योंकि वे चीन भी आती जाती हैं। वैसे शाना के शब्दकोष में 'पिता' का अर्थ बेतुकी बातें कहकर चिढ़ाने वाला शख्स जैसी कोई संज्ञा होगी, पर इस बार उसने साफ कहा यह सब देशभक्ति नहीं है। फिर मैंने एक पुराना अमरीकी लोकगीत गाकर सुनाया (यानी दो लाइन, मुझे हर गीत की दो लाइनें ही याद रहती हैं), ' दिस लैंड इज़ योर लैंड, दिस लैंड इज़ माई लैंड, फ्रॉम कैलिफोर्निया रेडवुड्स, टू न्यू यार्क आईलैंड्स, दिस लैंड इज़ मेड फॉर यू ऐंड मी'। वुडी गथरी का गाया क्लासिक गीत है, जिसे बाद में पीट सीगर, जोन बाएज़ जैसे कइयों ने गाया है। शाना का जवाब था - मुझे कंट्री म्युज़िक पसंद नहीं है। अब मेरे शब्दकोष में किशोरी पुत्री का अर्...