बुझाए
न बुझे
एक
वक्त था, बहुत
पहले नहीं -
बस सौ
साल पहले,
जब भारत
में अधिकतर शादियाँ बीस की
उम्र के पहले हो जाती थीं।
गाँवों में लड़के की उम्र बीस
होने तक बच्चे पैदा हो जाते
थे। वह स्थिति बच्चों और माँ-बाप
दोनों के लिए बहुत अच्छी नहीं
थी। स्त्रियों के लिए वह आज
से बदतर गुलामी की स्थिति थी।
यह अलग बात है कि कई लोग उन
दिनों के जीवन में सुख ढूँढ़ते
हैं और आधुनिक जीवन को दुखों
से भरा पाते हैं। जैसा भी वह
जीवन था, एक
बात तो जाहिर है कि प्राणी के
रुप में मानव के जीवन में
किशोरावस्था से ही शारीरिक
परिपक्वता के ऐसे बदलाव होते
हैं कि जैविक रूप से वह यौन-संपर्क
के लिए न केवल तैयार,
बल्कि
बेचैन रहता है। इस बात को
यौन-संबंधित
साहित्य या दृश्य-सामग्री
का व्यापार करने वाले अच्छी
तरह जानते हैं। हिंसक शस्त्रों
और यौन-संबंधित
सामग्री का व्यापार ही आज की
आर्थिक दुनिया के सबसे बड़े
धंधे है। अरबों-खरबों
की तादाद में डालर-यूरो-येन
और बिटसिक्कों का लेन-देन
इन्हीं दो क्षेत्रों में होता
है।
पता
नहीं कैसे हमें कुदरत के नियमों
के विपरीत यह बात समझा दी गई
कि भले लोग खासी उम्र तक यौन-संबंध
से परहेज करते हैं। खूब ब्रह्मचर्य
का पाठ पढ़ा। कुछ तो हमारी अपनी
परंपरा में था,
कुछ
ऐतिहासिक कारणों से मिला। पर
इस कुछ से अलग परंपरा में और
भी बहुत कुछ रहा है। मुक्त-प्रेम
को धार्मिकता के साथ जोड़ कर
कुदरत की इस अनोखी देन – प्रेम
– को जिस तरह हमारी परंपरा में
देखा और जाना-समझा
गया है, ऐसा
और कहाँ है। शंकर के सौंदर्यलहरी
से लेकर सूर के कृष्णकाव्य
तक जैसे अनोखे मिथक हमारी हर
भाषा में गढ़े गए हैं। अनपढ़ लोग
इस खुलेपन को पश्चिम की देन
कहते रहते हैं,
जबकि
आज के हमारे समाज जैसी ही कुंठित
स्थिति कभी पश्चिमी देशों
में भी थी। नब्बे साल पहले
व्हिलहेल्म राइख़ नामक एक
ऑस्ट्रियन मनश्चिकित्सक ने
'द
सेक्सुअल स्ट्रगल इन यूथ'
(युवाओं
में यौनिकता के मुश्किलात)
नामक
किताब लिख कर वहाँ मौजूद कुंठा
के माहौल के खिलाफ शंखनाद किया
था। रोचक बात यह है कि यौनिकता
पर रोक लगाकर कुदरती प्रक्रियाएं
रुकती नहीं हैं। यह बात हमारे
यहाँ भी उतनी ही सही है जितनी
कहीं और। इसीलिए तो अभिसारिका
और शृंगार के विवरणों से हमारा
साहित्य भरा पड़ा है। वारेन
बीटी की प्रसिद्ध फिल्म 'रेड्स'
में
हेनरी मिलर एक सवाल के जवाब
में कहते हैं कि उस जमाने में
भी अमेरिका में जिस्मानी संबंध
खूब थे, बस
यही कि उन्हें सामाजिक मान्यता
न थी। फ्रांस जैसे देश में
रहते हुए भी मारी कूरी जैसी
नोबेल विजेता को अपने पति की
मौत के कुछ साल बाद साथी वैज्ञानिक
लाँजवाँ के साथ प्रेम की वजह
से कई यातनाएँ सहनी पड़ी थीं।
बड़ी
आलमी जंगों का एक असर यह था कि
पश्चिम में इन जड़ताओं के टूटने
में आसानी रही। बीसवीं सदी
के बीचोंबीच उन मुल्कों में
भारी बदलाव आए। ब्रह्मचर्य
को कुंठाओं से जोड़ कर देखा
जाने लगा। पर बदलाव ऐसे अपने-आप
तो आने न थे। साठ के दशक में
युवाओं ने हल्ला बोला और
जिस्मानी-प्रेम
का परचम बुलंद हो गया। एक दशक
में ही कालेजों-विश्वविद्यालयों
में युवाओं में यौन-संबंधों
पर पूरी तरह रोक से हटकर पूरी
छूट की स्थिति बन गई। अब बात
इतनी रह गई थी कि युवाओं को
यौन-संबंधों
से होने वाले मानसिक और शारीरिक
समस्याओं के लिए कैसे तैयार
किया जाए। अनचाहे गर्भ से युवा
स्त्रियों को कैसे बचाया जाए।
स्कूलों कालेजों में बड़े
पैमाने पर यौन-शिक्षा
शुरू हुई। साहित्य,
कला आदि
हर क्षेत्र से यौनिकता की
अभिव्यक्ति पर से पाबंदी हटी।
जनांदोलनों ने यौन-शिक्षा
के परचे निकाले। स्त्रियों
ने खुलकर यौनिकता पर बातें
शुरू कीं। बॉस्टन विमेन्स
ग्रुप की स्त्रियों द्वारा
स्त्रियों के बारे में 'आवर
बॉडीज़ आवरसेल्व्स'
(हमारे
शरीर और हम)
जैसी
किताब लिखी गई। अब स्थिति ऐसी
है कि उन मुल्कों में युवाओं
में स्नेह से लेकर संभोग तक
प्रेम की हर संभावना को स्वीकृति
है। अगर कोई इस पर सवाल खड़ा
करे तो उसे सिरफिरा ही माना
जाएगा। और हमारे यहाँ के
संस्कृति के ठेकेदारों के
तमाम फतवों के बावजूद उन मुल्कों
में कोई भयानक अस्थिरता नहीं
दिखती। संबंध बनते और टूटते
हैं, पर
ऐसी मारकाट वहाँ नहीं दिखती
जितनी हमारे यहाँ है।
पश्चिमी
देशों में ये बदलाव समाज में
पहले बड़े शहरों मे,
फिर
धीरे-धीरे
अंदरूनी इलाकों में हुए। कालेज
कैंपसों में पुराने अनुशासन
का विरोध हुआ,
पर वह
समाज से अलग नहीं था। जैसे-जैसे
समाज बदला,
कैंपस
का माहौल भी बदला। हमारे यहाँ
स्थिति कुछ और है। यहाँ कैंपस
सरगर्म हैं। कुछ हद तक खुला
माहौल है। व्यवस्था अभी बदली
नहीं है, पर
कई संस्थानों में प्रबंधन
युवाओं में संबंधों को उदारता
के साथ देखते हैं। यह सही है
कि यौनिकता का खुला प्रदर्शन
नहीं है, पर
पहले की तुलना में माहौल काफी
उदार है। कैंपस से बाहर समाज
में कुंठाओं का समुद्र है।
एक ओर तो सच्चाई यह है कि पुरुषों
में जिसको मौका मिलता है,
एम एम
एस में हर तरह का यौन-प्रदर्शन
देख रहा है। आभासी दुनिया में
जिस्म के कारोबार का बाज़ार
बढ़ता जा रहा है। हिंसा बढ़ रही
है। सभ्य शालीन माने जाने वाले
पुरुषों में भी कई,
पेशे
में अपने वरिष्ठ पद से मिली
ताकत का ग़लत फायदा उठाकर,
स्त्रियों
पर ज़बरन अपनी यौनेच्छा थोपते
हैं। वयस्क स्त्रियाँ ही नहीं,
बच्चों
तक पर हमले बढ़ते जा रहे हैं।
दूसरी ओर मजाल क्या है कि आप
संबंधों में खुलेपन की बात
कर लें। कहीं संगठित खाप हैं
तो कहीं अकेला मर्द सीना पीट
रहा है। कोई सेना का तो कोई
संघ का सिपाही है,
जो स्वस्थ
संबंधों पर हमला करने के लिए
अपने एम एम एस को रोक कर सड़क
पर उतरा है। खुले प्रेम को
चुनौती देती ललकार यह कि हम
बलात्कार करने आ रहे हैं।
जिन
भले लोगों के समर्थन की वजह
से आज ये हिंसक ताकतें इतनी
मुखर हैं,
उनमें
से कइयों को अचंभा होता है।
कैसे लोगों को सत्ता दे दी।
पर क्यों,
क्या
उन्हें सूचनाओं की कमी थी,
क्या
वे इन ताकतों के बारे में नहीं
जानते थे?आज
अचंभे में डूबे ये लोग भूल गए
हैं कि जानबूझ कर ही इन्हें
सत्तासीन किया था,
तब ऐसा
लगता नहीं था कि लघु-संख्यकों
के अलावा ये किसी और पर भी हमला
करेंगे। जब तक हम खुद लघु-संख्यक
समुदाय के नहीं हैं तो क्या
फिक्र। उनकी नीतियों से हम
प्रभावित नहीं होते और ग़रीब-गुरबे
छले जा रहे हैं तो हमें क्या!
अब भी
वे भले लोग प्रधानमंत्री पर
बहस करते हैं,
कि
बयानबाजी से अलग सरकार ने क्या
कुछ किया आदि। प्रधानमंत्री
और उनकी सरकार ने सचमुच बहुत
कुछ कर दिया है,
जैसा
उनसे अपेक्षित था,
वे करते
जा रहे हैं। पूँजी की लूट और
सांप्रदायिक जहर का घोल उनका
धर्म है, वे
और उनके परिवार के सदस्य मजे
से वह खेल खेल रहे हैं। साथ
में वह सारी कुंठित भीड़ खूँखार
होती जा रही है,
जिनको
एम एम एस में जिस्मों की चीरफाड़
देखने के अलावा सिर्फ ऐसे
मौकों की तलाश है कि वे कब किसी
अकेली स्त्री या कमजोर बच्चे
पर हमला कर सकें। स्त्री को
वस्तु मात्र नहीं,
बल्कि
उसे अपनी कुंठाओं का लक्ष्य
मानना इन लोगों की मजबूरी है।
ये भयंकर बीमार लोग हैं। इसलिए
वे प्रेम के दुश्मन हैं।
प्रेम
– स्नेह से संभोग तक – प्राणियों
को कुदरत की सबसे अनोखी देन
है। आखिर हममें से हर कोई धरती
पर अपने माँ-बाप
के जिस्मानी उन्माद से ही आया
है। शरीरों का वह मिलन इतना
खूबसूरत है कि हम देवी-देवताओं
तक को जिस्मानी प्रेम में
लिप्त देखना चाहते हैं। सूफी
मत में इश्क ही मोक्ष का साधन
है। भक्ति में खोया प्रेमी
पूछता है कि मैं बीच सड़क में
खड़ा उलझन में हूँ कि एक ओर तो
रब का घर है और दूसरी ओर यार
का, मैं
किधर जाऊँ। आखिर वह यार को
चुनता है क्योंकि रब तो यार
के दिल में है। उसमें किसी को
अगर कुछ ग़लत दिखता है तो वह
अपना इलाज़ करवाए।
आज
जब चारों तरफ से जिस्म का
कारोबार हमारी संवेदना को हर
तरह से खोखला करता जा रहा है,
यह सोचने
की ज़रूरत है कि युवाओं में
प्रेम की माँग को हम कैसे देखें।
हमें इस बात को समझना होगा कि
युवाओं में प्रेम एक स्वस्थ
प्रवृत्ति है,
और इस
समझ के साथ हमें स्कूलों कालेजों
में ऐसे इंतज़ाम करने होंगे
कि युवा मानसिक और शारीरिक
रूप से स्वस्थ रहें और अपने
संबंधों की वजह से जीवन के
दूसरे पहलुओं को बिगड़ने न दें।
हमें युवाओं से यह भी कहना
होगा कि प्रेम के बगैर जिस्मानी
संबंध जीवन को अँधेरे की ओर
धकेलता है। यह भी कि हम अपनी
परंपरा को जानें -
टी वी
और विकीपीडिया से नहीं,
जरा
मेहनत करें और पुस्तकालयों
में जाकर पढ़ें कि शिव ने पार्वती
की स्तुति में क्या कहा है,
भ्रमर
गीत पढ़ें,
लोगों
से जानें कि हमारी लोक परंपराओं
में प्रेम का क्या महत्त्व
है। आखिर क्या वजह है कि
हीर-राँझा,
सोहनी-महीवाल
या शीरीं-फरहाद
आज भी गाँवों में गाए जाते
हैं। और अंग्रेज़ी में नहीं,
भारतीय
भाषाओं में पढ़ें। अंग्रेज़ी
में प्यार भी क्या प्यार है!
सांस्कृतिक
फासीवाद अभी पूरी तरह हावी
हुआ नहीं है। उसके पंजे लगातार
बढ़ते चले आ रहे हैं। संवेदना
की घोर कमी ने ऐसा सांप्रदायिक
माहौल बनाया है कि हम अपने ही
रचे झूठ में फँसते जा रहे हैं।
समाज के दबे कुचले,
मेहनतकश
तबकों को भड़का कर एक दूसरे के
साथ भिड़ंत करवा कर एक के बाद
एक चुनाव जीतने की कोशिशें
हैं। जब व्यवस्था पर निरंकुश
नियंत्रण हो जाएगा,
तब
ये क्या करेंगे?
कुंठित
ताकतें खुला प्रेम नहीं सह
सकतीं। युवाओं को यह समझना
होगा कि हमारा भविष्य दुरुस्त
और खुशहाल हो,
उसके
लिए हमें इन कुंठित ताकतों
के खिलाफ लड़ना होगा। अभी ज़ुल्म
की शुरूआत है। वे हमारी शक्लें,
हमारे
पहनावे,
हमारी
ज़ुबान,
हमारे
विश्वास,
हमारी
हर साँस पर हमला करेंगे। आखिरी
जीत प्रेम की होगी,
पर
उसके पहले जो तबाही होने वाली
है, उसकी
कल्पना से आतंक होता है। इसलिए
युवाओं को संगठित होना होगा
कि इस हमले के खिलाफ आवाज़
उठाएँ। यह लड़ाई सिर्फ कैंपसों
में रहकर नहीं लड़ी जाएगी,
इसे
व्यापक समाज में फैलाना होगा।
प्यार की प्रतिष्ठा के लिए
उनके खिलाफ भी आवाज़ उठानी
होगी जो प्यार और चाहत को शोषण
का जरिया बनाते हैं। यह समझना
होगा कि संस्कृति के ठेकेदारों
को उस बहुराष्ट्रीय जिस्मानी
धंधे से कोई एतराज नहीं जिनसे
उन्हें फायदा मिलता है। नहीं
तो देश में हर
साल ग़रीबी से लाचार हजारों
युवा किशोरियाँ बिकती हैं,
उसके
खिलाफ ये फतवेबाज कभी कुछ
क्यों नहीं करते। इन्हें प्रेम
से एतराज है क्योंकि प्रेम
हमारी गायब होती मानवता को
वापस ले आता है। प्रेम हमें
अन्याय के खिलाफ सचेत करता
है। प्रेम में रोते हुए हम हर
उत्पीड़ित का दुख अपनाने लगते
हैं। इसी मानवता को फासीवादी
सह नहीं पाते। वे प्रेम के
खिलाफ धर्म,
जाति
और हर तरह के रस्मों की दीवारें
खड़ी करते हैं। पर बकौल ग़ालिब
- ये
वो आतिश ग़ालिब,
जो
लगाए न लगे और बुझाए
न बुझे।
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