राजेश उत्साही ने अपने ब्लॉग 'गुल्लक' में जिक्र किया कि एक ज़माने में हम लोगों ने 'हमकलम' गुट नाम से साइक्लोस्टाइल साहित्यिक पैंफलेट निकाले थे। हमलोग मतलब सत्यपाल सहगल, मैं और रुस्तम। उन दिनों लगता था कि साइड ऐक्टीविटी है, पर अब सोचता हूँ तो लगता है कि एक महत्त्वपूर्ण काम था। १९८५: मैं ताजा ताजा अमरीका से लौटा था, रुस्तम आर्मी से रिज़ाइन कर पोलीटिकल साइंस में एम ए करने आया था। पार्टी के साथ जुड़ा था और मार्क्स पर काम कर रहा था। अमरीका से लौटा मैं लिबरेशन थीओलोजी, निकारागुआ, एल साल्वादोर, गुआतेमाला जैसे खयालों से भरा हुआ था और इस कोशिश में था कि बाकी भी इन खयालों में सराबोर हो जाएँ। कभी फ्रांत्ज़ फानों, कभी मैल्कम एक्स, इन पर कुछ न कुछ बकता रहता। कुछ अनुवाद वगैरह भी किया। कैंपस में हम तीन ऐसे लोग थे जिन्हें नाम से सिख पहचाना जाता था, पर जो केशधारी नहीं थे (- सत्यपाल नहीं, तीसरा व्यक्ति भूपिंदर बराड़ है जो हमसे उम्र में भी बड़ा था और अधिक गंभीर, रुस्तम उसी के साथ शोध कार्य कर रहा था)। मेरी आदत थी कि इधर उधर किसी न किसी से उलझ लेता, तब डरता नहीं था, अब सोच कर डर लगता है। वो कहानियाँ फिर कभी। बहरहाल मैंने सुझाव रखा कि कैंपस में आतंक के माहौल से जूझने के लिए बौद्धिक सांस्कृतिक शून्य को भरना होगा। मेरे पास एक कैनन का इलेक्ट्रानिक टाइपराइटर था, मैंने दो विकल्प सुझाए, या तो हिंदी में साइक्लोस्टाइल पत्रिका निकालें या मेरे कैनन के यंत्र में अंग्रेज़ी में कुछ निकालें।
कुछ दिनों तक बोलता रहा तो सत्यपाल और रुस्तम मान ही गए। वे दोनों वैसे तो शुरुआत में देर कर रहे थे, पर काम को लेकर मुझसे ज्यादा गंभीर थे। सत्यपाल ने खुद को संपादक घोषित कर दिया। मेरा नज़रिया इन मामलों में उदारवादी था, रुस्तम शायद बहुत खुश नहीं था, पर पहला अंक १९८६ में 'खुले मैदान में' शीर्षक से सत्यपाल सहगल के नाम से ही निकला। अंक निकला तो व्यापक स्वागत हुआ। तेईस सेक्टर में भ्रा जी (गुरशरण सिंह) के नेतृत्व में नुक्कड़ नाटक सम्मेलन हुआ तो वहाँ पचास पैसे में बेचने की सोची। हालांकि अध्यापक मैं था, मुझे सड़क पर खड़े होकर बेचने में कोई लाज न थी, पर मेरे उन दिनों के शोध-विद्यार्थी साथीद्वय संशय में थे। उसी नुक्कड़ नाटक समारोह में 'चिनते पार्च्छिस' कहकर कालेज में मुझसे एक साल सीनियर शुभेंदु घोष जो अब दिल्ली में बायोफिज़िक्स का प्रोफेसर है और प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक है, ने मुझसे सालों बाद फिर से परिचय किया। आस पास लोग अचंभित थे कि मैं अचानक पंजाबी बोलते बोलते बांग्ला कैसे बोलने लगा हूँ।
दूसरा अंक अंग्रेज़ी में था और उसमें अधिकतर लातिन अमरीका की कविताएँ थीं। उसके बाद कोई भी अंक अंग्रेज़ी में नहीं आया। मुझे आश्चर्य था कि लोग इसे इतनी गंभीरता से ले रहे थे - एक तरह से मेरे लिए वह घातक था क्योंकि मैं ज़रुरत से ज्यादा सामाजिक कार्यों में रुचि ले रहा था - इसका हर्जाना आज तक भुगत रहा हूँ (मज़ा भी तो आता था न)। धीरे धीरे 'हमकलम' एक आंदोलन का रुप अख्तियार कर चुका था और टोहाना, मंडी आदि जगहों से भी उस तरह के साइक्लोस्टाइल पैंफलेट निकलने लगे। मैं दो साल के लिए मध्य-प्रदेश चला गया, तब भी हमकलम को रुस्तम ने चलाए रखा। इस बीच सत्यपाल अध्यापक बन चुका था और रुस्तम शायद एम फिल कर रहा था।
रुस्तम से जब पहली बार मिला - सहगल ने ही मिलाया था कैंपस में एक और गंभीर व्यक्ति से मिलाते हैं कहकर; तो यह जानकर कि वह मार्क्स पर काम कर रहा है, मैंने देर तक उसे समझाने की कोशिश की कि हमें 'स्ट्रैटेजी' पर काम करना चाहिए। एक नई रणनीति जिसमें सभी लोकतांत्रिक ताकतें एक संघ बनाएँ और मिलकर स्थितियों से जूझें। हालाँकि मैं समझता था कि मैं ऐतिहासिक स्थितियों को सही देख समझ रहा हूँ, और बड़े उत्साह के साथ बकवास करता रहा, पर रुस्तम ने सब सुनकर चार नंबर होस्टल के उस घटिया लंच के बाद कहा था 'आपके खयाल बड़े नावल (novel) हैं। ' (तब भी सुधर गया होता रे ...........!)।
बहरहाल दोस्तों के बारे में मजेदार बातें फिर कभी, फिलहाल तो राजेश उत्साही को धन्यवाद कि उसने उन दिनों की याद दिला दी, जब मैं सारी दुनिया को बदल देने की ऊर्जा से लबालब भरा हुआ था। (जैसा कि अब तक पढ़ने वाले समझ ही चुके हैं मैं बचपने में ही जी रहा हूँ अभी तक)। हो सकता है कभी किसी कोने से हमकलम के पैंफलेट निकालकर स्कैन प्रति ब्लॉग पर पोस्ट कर दूँ या कोई और ही करे। यह छोटा सा इतिहास हमारा भी।
मुसीबत यह कि टिप्पणी करने वालों की एक फौज है, जो मेरी ऊपर की बातों पर टिप्पणी करने को बेताब होगी। पचसियापा ही सही, पर लगता ज़रुर है कि दुनिया में बहुत सारे अनपढ़ लोग हैं। इसलिए दोस्तों से यही कहता हूँ कि इस बार टिप्पणी मत ही करना, फालतू की बमबारी में काम की बात खो जाएगी।
इसी बीच नईम गुजर गए। अभी सुदीप बनर्जी के गुजरने के सदमे से निकले भी न थे कि नईम के गुजरने की खबर आई। सुदीप से एक बार मिला था, कुरुक्षेत्र में साक्षरता मिशन के कार्यक्रम में भाषण देने आए थे, कोई पंद्रह साल पहले की बात है। उनकी कविताएँ खास पसंद आती थीं। नईम से कभी नहीं मिला, जब भी देवास गया हूँ, मिलना चाहता रहा, पर मिला नहीं। उनके गीतों को मैं झूम झूम कर गाता हूँ, बड़ी जटिल बातों को बहुत सुंदर ढंग से बाँधने की तरकीब कोई नईम से सीखे। कविता कोश से उनका यह नवगीतः
हो न सके हम - नईम
हो न सके हम
छोटी सी ख्वाहिश का हिस्सा
हो न सके हम बदन उधारे बच्चों जैसा
गर्मी या बारिश का हिस्सा
हुआ न मनुवां
किसी गौर की महफिल का गायक साज़िंदा
अपने ही मौरूसी घर का
रहा हमेशा से कारिंदा
दास्तान हो सके न रोचक
याकि लोक में प्रचलित किस्सा
जीवन जीने की कोशिश में
लगा रहा मैं भूखा–प्यासा
होना था कविता सा लेकिन
हो न सका मैं ढंग की भाषा
जनम जनम से
होता आया
इन–उन की ख्वाहिश का हिस्सा
जीवन बांध नहीं पाये हम
मंसूबे ही रहे बांधते
खुलकर खेल न पाये बचपन
यूं ही खिचड़ी रहे रांधते
हो न सके
जीवन जीने की
हम आदिम ख्वाहिश का हिस्सा ।
कुछ दिनों तक बोलता रहा तो सत्यपाल और रुस्तम मान ही गए। वे दोनों वैसे तो शुरुआत में देर कर रहे थे, पर काम को लेकर मुझसे ज्यादा गंभीर थे। सत्यपाल ने खुद को संपादक घोषित कर दिया। मेरा नज़रिया इन मामलों में उदारवादी था, रुस्तम शायद बहुत खुश नहीं था, पर पहला अंक १९८६ में 'खुले मैदान में' शीर्षक से सत्यपाल सहगल के नाम से ही निकला। अंक निकला तो व्यापक स्वागत हुआ। तेईस सेक्टर में भ्रा जी (गुरशरण सिंह) के नेतृत्व में नुक्कड़ नाटक सम्मेलन हुआ तो वहाँ पचास पैसे में बेचने की सोची। हालांकि अध्यापक मैं था, मुझे सड़क पर खड़े होकर बेचने में कोई लाज न थी, पर मेरे उन दिनों के शोध-विद्यार्थी साथीद्वय संशय में थे। उसी नुक्कड़ नाटक समारोह में 'चिनते पार्च्छिस' कहकर कालेज में मुझसे एक साल सीनियर शुभेंदु घोष जो अब दिल्ली में बायोफिज़िक्स का प्रोफेसर है और प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक है, ने मुझसे सालों बाद फिर से परिचय किया। आस पास लोग अचंभित थे कि मैं अचानक पंजाबी बोलते बोलते बांग्ला कैसे बोलने लगा हूँ।
दूसरा अंक अंग्रेज़ी में था और उसमें अधिकतर लातिन अमरीका की कविताएँ थीं। उसके बाद कोई भी अंक अंग्रेज़ी में नहीं आया। मुझे आश्चर्य था कि लोग इसे इतनी गंभीरता से ले रहे थे - एक तरह से मेरे लिए वह घातक था क्योंकि मैं ज़रुरत से ज्यादा सामाजिक कार्यों में रुचि ले रहा था - इसका हर्जाना आज तक भुगत रहा हूँ (मज़ा भी तो आता था न)। धीरे धीरे 'हमकलम' एक आंदोलन का रुप अख्तियार कर चुका था और टोहाना, मंडी आदि जगहों से भी उस तरह के साइक्लोस्टाइल पैंफलेट निकलने लगे। मैं दो साल के लिए मध्य-प्रदेश चला गया, तब भी हमकलम को रुस्तम ने चलाए रखा। इस बीच सत्यपाल अध्यापक बन चुका था और रुस्तम शायद एम फिल कर रहा था।
रुस्तम से जब पहली बार मिला - सहगल ने ही मिलाया था कैंपस में एक और गंभीर व्यक्ति से मिलाते हैं कहकर; तो यह जानकर कि वह मार्क्स पर काम कर रहा है, मैंने देर तक उसे समझाने की कोशिश की कि हमें 'स्ट्रैटेजी' पर काम करना चाहिए। एक नई रणनीति जिसमें सभी लोकतांत्रिक ताकतें एक संघ बनाएँ और मिलकर स्थितियों से जूझें। हालाँकि मैं समझता था कि मैं ऐतिहासिक स्थितियों को सही देख समझ रहा हूँ, और बड़े उत्साह के साथ बकवास करता रहा, पर रुस्तम ने सब सुनकर चार नंबर होस्टल के उस घटिया लंच के बाद कहा था 'आपके खयाल बड़े नावल (novel) हैं। ' (तब भी सुधर गया होता रे ...........!)।
बहरहाल दोस्तों के बारे में मजेदार बातें फिर कभी, फिलहाल तो राजेश उत्साही को धन्यवाद कि उसने उन दिनों की याद दिला दी, जब मैं सारी दुनिया को बदल देने की ऊर्जा से लबालब भरा हुआ था। (जैसा कि अब तक पढ़ने वाले समझ ही चुके हैं मैं बचपने में ही जी रहा हूँ अभी तक)। हो सकता है कभी किसी कोने से हमकलम के पैंफलेट निकालकर स्कैन प्रति ब्लॉग पर पोस्ट कर दूँ या कोई और ही करे। यह छोटा सा इतिहास हमारा भी।
मुसीबत यह कि टिप्पणी करने वालों की एक फौज है, जो मेरी ऊपर की बातों पर टिप्पणी करने को बेताब होगी। पचसियापा ही सही, पर लगता ज़रुर है कि दुनिया में बहुत सारे अनपढ़ लोग हैं। इसलिए दोस्तों से यही कहता हूँ कि इस बार टिप्पणी मत ही करना, फालतू की बमबारी में काम की बात खो जाएगी।
इसी बीच नईम गुजर गए। अभी सुदीप बनर्जी के गुजरने के सदमे से निकले भी न थे कि नईम के गुजरने की खबर आई। सुदीप से एक बार मिला था, कुरुक्षेत्र में साक्षरता मिशन के कार्यक्रम में भाषण देने आए थे, कोई पंद्रह साल पहले की बात है। उनकी कविताएँ खास पसंद आती थीं। नईम से कभी नहीं मिला, जब भी देवास गया हूँ, मिलना चाहता रहा, पर मिला नहीं। उनके गीतों को मैं झूम झूम कर गाता हूँ, बड़ी जटिल बातों को बहुत सुंदर ढंग से बाँधने की तरकीब कोई नईम से सीखे। कविता कोश से उनका यह नवगीतः
हो न सके हम - नईम
हो न सके हम
छोटी सी ख्वाहिश का हिस्सा
हो न सके हम बदन उधारे बच्चों जैसा
गर्मी या बारिश का हिस्सा
हुआ न मनुवां
किसी गौर की महफिल का गायक साज़िंदा
अपने ही मौरूसी घर का
रहा हमेशा से कारिंदा
दास्तान हो सके न रोचक
याकि लोक में प्रचलित किस्सा
जीवन जीने की कोशिश में
लगा रहा मैं भूखा–प्यासा
होना था कविता सा लेकिन
हो न सका मैं ढंग की भाषा
जनम जनम से
होता आया
इन–उन की ख्वाहिश का हिस्सा
जीवन बांध नहीं पाये हम
मंसूबे ही रहे बांधते
खुलकर खेल न पाये बचपन
यूं ही खिचड़ी रहे रांधते
हो न सके
जीवन जीने की
हम आदिम ख्वाहिश का हिस्सा ।
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और उसी जैसा
पसंद आने वाला
मन पर रंग जमाने
वाला यह किस्सा।
आपकी ताकीद के बावजूद टिप्पणी कर ही दी!