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Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Thursday, April 09, 2009

रात है अँधेरा है हम हैं जी हाँ हम हैं

हम हैं

पहले उन्होंने कहा - भ्रम है तुम्हें, हार तुम्हारी होगी
आसपास थी वीरानी फैल रही
अनमने से उसे जगह दे रहे
बचे खुचे झूमते पेड़
हम देर तक नाचते
चलते चले पेड़ों की ओर

वे आए
अट्टहास करते हुए बोले
देखते नहीं हार रहे हो तुम

जाने क्या था नशा
हमारे बढ़े हाथों को मिलते चले हाथ
गीतों के लफ्जों में ऊपर चढ़ने
रास्तों के पास बैठने की जगहें बनीं
जहाँ रामलीला की शाम मटरगश्ती से लेकर
बचपन में छिपकर बागानों से
आम चुराने की कहानियाँ सुनानी थीं हमने
एक दूसरे को

इस बार कहा उन्होंने गहरी चिंता के साथ
हार चुके तुम
हार रहे हो
हारोगे हारोगे

एक चेहरा बचा था मुस्कराता हरेक के पास
एक ही बचा था गीत
समवेत हमारे स्वर उठे
बिगुल बजाया किसी न किसी ने
एक के बाद एक सारी रात

रात है
अँधेरा है
हम हैं हम हैं
जी हाँ
हम हैं।
(उत्तरार्द्ध - १९९६; प्रतिबद्ध - १९९८; क्या संबंध था सड़क का उड़ान से - १९९५)

2 Comments:

Blogger डॉ .अनुराग said...

गजब है जी...

7:57 PM, April 09, 2009  
Blogger संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर लिखा ... बधाई।

10:53 AM, April 10, 2009  

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