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Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Monday, April 06, 2009

नीचे को ही ढो रहा हूँ ऊपर का धोखा देते हुए

क्या महज संपादित हूँ

अगर चढ़ रहा हूँ ऊँचाई पर
तो कभी नीचे रहा हूँगा
झाँक कर देखूँ
वह क्या था जो नीचे था

क्या सचमुच आ गया हूँ ऊपर
या जैसे घूमते सपाट ज़मीं पर
किसी परिधि पर वैसे ही
किसी और गोलक के चक्कर काट रहा हूँ
क्या महज संपादित हूँ या सचमुच बेहतर लिखा गया हूँ

जो अप्रिय था उसे छोड़ आया हूँ कहीं झाड़ियों में
या दहन हो चुका अवांछित, साधना और तपस में

ऊपर से दिखता है नीचे का विस्तार
बौने पौधे हैं ऊपर छाया नहीं मिलती जब तीखी हो धूप
नीचे समय की क्रूरता है हर सुंदर है गुजर जाता एकदिन
ऊपर अवलोकन की पीड़
संगीत में दिव्यता; गूँज, परिष्कार हवा
नहीं हैं विकार

ऊपर कब तक है ऊपर
एकदिन ऊपर भी दिखता है नीचे जैसा
बची खुची चाहत सँजोए फिर चढ़ने लगता हूँ कहीं और ऊपर
जानते हुए भी कि कुछ भी नहीं छूटा सचमुच
नीचे को ही ढो रहा हूँ ऊपर का धोखा देते हुए।
 
-साक्षात्कार (अक्तूबर 2008)

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3 Comments:

Blogger Anil Kumar said...

किसी अनचाही टिप्पणी की व्यथा-कथा प्रतीत हो रही है बंधुवर!

7:53 PM, April 06, 2009  
Blogger शिरीष कुमार मौर्य said...

ये कविता मुझे आपकी संपादन वाली बात से जोड़ती है! ये एक अनोखा एहसास है, इसके लिए शुक्रिया बड़े भाई !

2:10 PM, April 07, 2009  
Blogger राजेश उत्‍साही said...

लाल्‍टू भाई सलाम। हम भी हाथ उठाकर आपके साथ हैं। राजेश उत्‍साही

11:12 AM, April 08, 2009  

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