कुछ मित्रों ने कहा कि एकलव्य के साथ गुजारे डेढ़ सालों के बारे में कुछ लिखूँ। मैंने एकलव्य संस्था में मई १९८८ से नवंबर १९८९ तक डेढ़ साल गुजारे थे। यह अनुभव बहुत मूल्यवान था और इस छोटी सी अवधि में जिस तरह के दोस्त मैंने बनाए, वैसा और शायद ही कभी हुआ। हरदा और उसके आस पास अध्यापकों और युवाओं के साथ बिताए उन दिनों में मैंने बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ पाया। यहाँ सिर्फ शुरुआत की एक रोचक घटना का जिक्र करुँगा।
१९८६ में प्रोफेसर यशपाल ने यू जी सी का अध्यक्ष बनते ही एक अनोखा काम किया। कालेज और यूनीवर्सिटी अध्यापकों को फेलोशिप्स दी गईंं कि वे ज़मीनी स्तर पर शिक्षा पर काम कर रही स्वैच्छिक संस्थाओं के साथ काम कर सकें। कागज़ी तौर पर इस तरह किए काम को उनकी जिम्मेदारियों का हिस्सा माना गया और इसे पदोन्नति आदि में बाधा नहीं माना जाना था (हालांकि मेरा अनुभव इसके विपरीत था - लंबे समय तक मेरे उन डेढ़ सालों के काम को मेरे खिलाफ इस्तेमाल किया गया)। इसके लिए यू जी सी से संस्थान के प्रमुख को बाकायदा निर्देश आता था कि प्रार्थी को फेलोशिप के काम पर भेजा जाए और संस्थान से ड्यूटी लीव मिलती थी।
मैं विदेश में शोध करते वक्त ही एकलव्य के काम से परिचित हो चुका था। १९८३ के आस पास इंडिया टूडे में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम (होविशिका) पर रीपोर्ताज़ छपा था। मेरा मन था कि देश लौटते ही इस प्रयास से जुड़ूँ। अमरीका से लौटते हुए जिनको जानता था, उनको ख़त लिखा कि मैं किसी कालेज में नौकरी लेना चाहता हूँ, ताकि ईमानदारी से ज़मीनी स्तर पर काम कर सकूँ (उस वक्त भोली सी समझ यह थी कि यूनीवर्सिटी या आई आई टी आदि में नौकरी लूँ तो उच्च शिक्षा और शोध पर ही सारा वक्त लगाना पड़ेगा - यह बाद में पता चला कि इस सामंती समाज में जितने ऊपर हो, उतनी छूट है, सामान्य संस्थानों में बंधन ज्यादा हैं - यह अलग बात है कि बेकार कामों के लिए बंधन नहीं हैं - बहुत सारे कालेज अध्यापक ट्यूशन के धंधे में ही लगे रहते हैं)। बहरहाल मित्रों ने शायद मुझे भोला समझकर ही कोई जवाब नहीं दिया। आखिरकार यूनीवर्सिटी में नौकरी ली। १९८६ में अपने शोध कार्य पर IITK भाषण देने गया तो पहले से संपर्क में आए अमिताभ मुखर्जी के साथ मुलाकात हुई, जो उस वक्त वहाँ कुछ समय से postdoctoral काम कर रहा था। वहीं से एकलव्य के विनोद रायना का पता चला। विनोद को ख़त लिखा तो उसने तुरंत होविशिका के प्रशिक्षण शिविर के लिए बुलाया। होशंगाबाद और उज्जैन दो शहरों में मिडिल स्कूल के अध्यापकों के लिए शिविर शुरु हो रहे थे। चंडीगढ़ लौटते ही मैंने उज्जैन जाने की सोची। उन दिनों आज जितनी ट्रेनें न थीं। दिल्ली आया और सीधे रतलाम की ओर जाती गाड़ी पकड़ ली। अनारक्षित कोच में बैठा। भीड़ भाड़ में किसी ने ऊपर से खाना वाना गिरा दिया। गंदे कपड़ों में पहले नागदा और फिर उज्जैन पहुँचा। पहुँचते ही स्टेशन के पास विवेकानंद कालोनी में एकलव्य के दफ्तर पहुँचा - विवेक पायस्कर और अरविंद गुप्ते उज्जैन केंद्र में काम करते थे, इनके अलावा और लोगों में एक कमाल का व्यक्ति मनमौजी था, जिसने बाद में ओरीगामी आदि में महारत हासिल कर ली थी। उस वक्त वहाँ कोई नहीं मिला, वहाँ से सभी एजुकेशन कालेज चले गए थे, जहाँ शिविर था। तो कहीं से दो ग्लास लस्सी पी (तभी पता चला कि मध्य प्रदेश की लस्सी पी नहीं चम्मच से खायी जाती है) और शिविर पहुँचा। विनोद ने मिलते ही गले लगाया तो मैंने बतलाया कि दूर रहो, कपड़े गंदे हैं। जिनसे भी मिला तो बड़ा प्यार का माहौल सा था। मैं पहले दिन जिस क्लास में बैठा था, वहाँ स्रोत व्यक्ति अरविंद गुप्ते थे, जिन्होंने जीव जगत पर बहुत कुछ लिखा है और चकमक आदि पत्रिकाओं में बहुत सारी यह सामग्री प्रकाशित हुई है। उनके समझाने के तरीके का मैं तब से कायल रहा हूँ। देवास केंद्र का प्रभारी राम नारायण स्याग भी वहीं था, और बिल्कुल पंजाबी अंदाज में दमघोटू जफ्फी के साथ उसके साथ परिचय हुआ।
वह थी एकलव्य में मेरी शुरुआत। उन दिनों माहौल प्रोफेशनल और बोहेमियन का मिश्रण सा था। दिनभर शिविर में स्थानीय ग्रामीण अध्यापकों के साथ मिलकर प्रशिक्षण का काम – शाम को सब मिलकर गाने बजाने बैठते। जनगीत गाए जाते। शिक्षाविदों के अलावा राजनैतिक सोच वाले कार्यकर्त्ता भी जुटे थे - लोग दूर दूर से शिविर में आए थे। हिंदुस्तान में कम्युनिटी लिविंग जैसा ऐसा माहौल मैंने पहली बार पाया था। बहुत मजा आया। लौटकर यू जी सी फेलोशिप के लिए दरख़ास्त भेज दी। उन दिनों कुलपति गणित के प्रोफेसर बांबा थे। प्रोफेसर यशपाल के मित्र थे और जन विज्ञान जैसी बातों में रुचि रखते थे। तो तय हो गया कि दो वर्षों के लिए एकलव्य जा रहा हूँ। कागज़ात निकलने में देर हो गई, मई १९८८ से जाने का तय हो गया। मैं इस बीच १९८६ के दिसंबर में सत्यपाल सहगल को साथ लेकर देवास और भोपाल केंद्रों में आया (राजेश उत्साही से शायद तभी पहली बार भोपाल केंद्र में मुलाकात हुई और उसी यात्रा के दौरान पहली बार वरिष्ठ कवि राजेश जोशी से मिला)। १९८७ की गर्मियों में देवास में बाल मेले में आया; उस मेले की स्मृति ऐसी है जैसे बहुत उम्दा संगीत सुनने का अनुभव होता है; वहाँ शुभेंदु को छाओ नाच नाचते देखा और स्याग भाई के साथ तो मुहब्बत ही हो गई – (इसमें बहुत बड़ा हिस्सा उसके शिव बटालवी के गीतों को गाने के असर का है - मैंनूँ तेरा शबाब लै बैठा.....)। वहाँ से होशंगाबाद के शिविर में। इसी दौरान विनोद से कुछ बातों में मतभेद भी पनपे। इस पर फिर कभी।
१९८७ की उन गर्मियों में होशंगाबाद में मीरा सदगोपाल से मुलाकात हुई। मीरा से मिलते ही मैं उसका भक्त हो गया। एक दिन शाम को मीरा ने गिटार बजाते हुए पीट सीगर और जोन बाएज़ के पुराने गीत गाए। अनिल सदगोपाल से पिछले साल ही उज्जैन में मिल चुका था और मैं अनिल से बहुत प्रभावित था।
उन दिनों एकलव्य के सात केंद्र थे। भोपाल, होशंगाबाद, हरदा, पिपरिया, उज्जैन, देवास और धार। जब आना तय हुआ तो हमारी इच्छा के मुताबिक केंद्र में जगह न मिली। हम चाहते थे कि हम पिपरिया जाएँ क्योंकि मीरा सदगोपाल बनखेड़ी में किशोर भारती में थी और वह पिपरिया से करीब था। मैं मीरा को बहुत पसंद करता था और मेरा खयाल था कि मेरी पत्नी कैरन को मीरा के पास होने से सहूलियत होगी। मीरा भी अमरीका से आई थी और भारत में बस गई थी।
हालांकि बाद में हरदा में आकर हम खुश थे (खासकर अनवर जाफरी की ज़िंदादिली की वजह से), शुरुआत में बहुत हताशा हुई कि हमें अपने मन मुताबिक केंद्र में जाने नहीं दिया गया। एकलव्य की अंदरुनी समस्याओं का यह पहला झटका था और अगर तब तक चंडीगढ़ में सबसे कह न दिया होता तो शायद हम उस वक्त मध्य प्रदेश आते ही नहीं। तब तक देर हो चुकी थी और वापस जाना संभव न था। मुझसे पहले कैरन ने एकलव्य में काम लिया। बहुत ही सामान्य तनख़ाह थी। शायद पंद्रह सौ रुपए मिलते थे। आते ही उसे कुछ शारीरिक समस्याएँ हुईं। मैं दो या तीन बार चंडीगढ़ से हरदा दौड़ता रहा। आखिर मई में सामान पैक करवा मैं भी रवाना हुआ। अब भी एग्ज़ाम ड्यूटी के लिए वापस आना था। इसी बीच एक अजीब संकट आ खड़ा हुआ।
१९८७ की शुरुआत में पिपरिया के पास एक गाँव में एक पुलिस के सिपाही का कुछ लोगों से झगड़ा हो गया। उसने अपने आप को मृत घोषित कर दिया और जिला पुलिस की उच्च-स्तरीय समिति के निरीक्षण में उसकी 'हड्डियाँ' कहीं से निकाली गईं। बस पुलिस का जुल्म शुरु हुआ। इसको पकड़, उसको पकड़। जवान लड़के मर्द जो बच सके, जंगलों में भाग गए। औरतों, बच्चों, बूढ़ों पर जुल्म चलता रहा। एकलव्य के कुछ साथी नागरिक अधिकारों पर काम करते थे। विरोध शुरू हुआ तो पी यू सी एल के स्थानीय कुछ लोगों को मदद मिलती थी। पंद्रह दिन बाद जब वह 'मृत' सिपाही इटारसी में ज़िंदा ढूँढ लिया गया तो अफरातफरी मच गई। जाँच शुरु हुई। पुलिस के आला अफसर परेशान। एकलव्य पर भी गाज पड़नी थी क्योंकि जिला मुख्यालय होशंगाबाद में था और कोर्ट कचहरी के काम में आए कार्यकर्त्ताओं को केंद्र में शरण भी मिलती थी और कागज, स्याही, टाइपराइटर भी।
ऐसे में आ पहुँचा खालिस्तानी आतंक वाले क्षेत्र पंजाब से हरजिंदर सिंह और साथ में विदेशी पत्नी। जिला पुलिस को इससे बेहतर मौका और क्या मिल सकता था। कैरन को नोटिस मिली कि जिला में रहने की अनुमति नहीं दी जाएगी। मैं पहुँचा ही था और दो दिनों में वापस चंडीगढ़ लौटना था। मई के पहले हफ्ते की बेतहाशा गर्मी। हरदा से भीड़ भरी बस में आम लोगों के अलावा बकरी भेड़ों के साथ होशंगाबाद आते हुए शिवपुर के पास रेलवे के फाटक पर घंटे भर बस का रुका रहना भूलता नहीं है। उन दिनों हरदा होशंगाबाद शहर का हिस्सा था और होशंगाबाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जिला था (लद्दाख और बस्तर के बाद)। जवान थे - होश बरकरार रहा। दूसरे दिन होशंगाबाद केंद्र के संचालक हृदय कांत दीवान (प्यार से हार्डी) की सलाह मुताबिक पुलिस मुख्यालय पहुँचा। एस पी से मिलना था। देर तक मुझे एक क्लर्क ने बैठाए रखा। कैरन के पुलिस कागजात चंडीगढ़ से पहुँचे नहीं थे, इस पर कुछ सवालात करते रहा। फिर दूर अपने साथी से चिल्लाकर कहा - अरे, वो आतंकवाद वाली फाइल लाना।
ऐसा अनुभव मुझे पहले हो चुका था। १९८५ में अमरीका से लौटते हुए कलकत्ता हवाई अड्डे पर पुलिस ने परेशान किया था। उस वक्त आँखों में आँसू आ गए थे, पर तय किया था कि फिर कभी जितना भी पिट जाऊँ, हौसला नहीं छोड़ूँगा। बैठा रहा। आखिर एस पी साहब ने बुलाया। मैंने समझाया कि मैं यूनिवर्सिटी अध्यापक हूँ। विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम में स्रोत व्यक्ति की हैसियत से आया हूँ और हम अधिकारियों से पूरी तरह सहयोग करेंगे आदि। जनाब ने फरमाया - आपको विदेशी नागरिक से विवाह करने की इजाजत किसने दी?
भरपूर तनाव के बावजूद मैं जोर से हँस पड़ा। बतलाया कि भारत के संविधान में नागरिकों पर ऐसी कोई रोक नहीं है। पर सर पर कोई प्रभाव न पड़ा। हताश मैं निकला और वापसी की ट्रेन पकड़ने स्टेशन पहुँचा। दुखी होकर कैरन पर चिल्लाता रहा कि वापस जाओ। यह सब झमेला मुझसे नहीं झेला जाता।
कई लोगों को लगता होगा कि पुलिस से परेशान होने के लिए विनायक सेन जैसा धाँसू ऐक्टीविस्ट होना ज़रुरी है। मैंने अब तक तकरीबन समझौतापरस्त मध्यवर्गीय जीवन जिया है, फिर भी बार बार पुलिस या अन्य अधिकारियों से परेशान हुआ हूँ। पता नहीं जीवन में कैसी कैसी जटिलताएँ इन वजहों से आई हैं। सबसे ज्यादा परेशान करने की बात यह है कि भारत महान के सचेत बुद्धिजीवी हमें ही समझाते हैं - देखो, स्थितियाँ ऐसी हैं, इसलिए तुम्हें समझना चाहिए। सच यह है कि जैसा मेरे मित्र एच एस मेहता कहा करते हैं - इस मुल्क के हुक्मरानों में खानदानी बदतमीज़ी कूट कूट कर भरी हुई है। यह अद्भुत ही है कि यहाँ हम सब – हमसे कहीं ज्यादा वे जो विपन्न हैं, जो कम पढ़े लिखे हैं, कामगर लोग, लगातार जुल्म झेलते हैं और फिर भी यह व्यवस्था टिकी हुई है। सलाम है विनायक सेन जैसे महान लोगों को और सचमुच ऐसे लाखों लोग हैं जो रोजाना मुश्किलात झेलते हुए बेहतर समाज के लिए लड़ रहे हैं, और धिक्कार है इस मुल्क के हुक्मरानों और सुविधापरस्त बुद्धिजीवियों को जो इस व्यवस्था की दलाली में लगे हैं।
ऐसा नहीं कि आशा की किरणें नहीं हैं। हालांकि कैरन को पुलिस के झमेले से राहत गृह विभाग के कुछ अधिकारियों की मदद (जिन तक पहुँचने में संस्था की ही साथी ने मदद की थी, जिसके अफसरों से ताल्लुकात थे) से मिली थी, पर उस एस पी का ट्रांस्फर भी हुआ था - और वह जन संगठनों के संघर्ष का परिणाम था।
१९८६ में प्रोफेसर यशपाल ने यू जी सी का अध्यक्ष बनते ही एक अनोखा काम किया। कालेज और यूनीवर्सिटी अध्यापकों को फेलोशिप्स दी गईंं कि वे ज़मीनी स्तर पर शिक्षा पर काम कर रही स्वैच्छिक संस्थाओं के साथ काम कर सकें। कागज़ी तौर पर इस तरह किए काम को उनकी जिम्मेदारियों का हिस्सा माना गया और इसे पदोन्नति आदि में बाधा नहीं माना जाना था (हालांकि मेरा अनुभव इसके विपरीत था - लंबे समय तक मेरे उन डेढ़ सालों के काम को मेरे खिलाफ इस्तेमाल किया गया)। इसके लिए यू जी सी से संस्थान के प्रमुख को बाकायदा निर्देश आता था कि प्रार्थी को फेलोशिप के काम पर भेजा जाए और संस्थान से ड्यूटी लीव मिलती थी।
मैं विदेश में शोध करते वक्त ही एकलव्य के काम से परिचित हो चुका था। १९८३ के आस पास इंडिया टूडे में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम (होविशिका) पर रीपोर्ताज़ छपा था। मेरा मन था कि देश लौटते ही इस प्रयास से जुड़ूँ। अमरीका से लौटते हुए जिनको जानता था, उनको ख़त लिखा कि मैं किसी कालेज में नौकरी लेना चाहता हूँ, ताकि ईमानदारी से ज़मीनी स्तर पर काम कर सकूँ (उस वक्त भोली सी समझ यह थी कि यूनीवर्सिटी या आई आई टी आदि में नौकरी लूँ तो उच्च शिक्षा और शोध पर ही सारा वक्त लगाना पड़ेगा - यह बाद में पता चला कि इस सामंती समाज में जितने ऊपर हो, उतनी छूट है, सामान्य संस्थानों में बंधन ज्यादा हैं - यह अलग बात है कि बेकार कामों के लिए बंधन नहीं हैं - बहुत सारे कालेज अध्यापक ट्यूशन के धंधे में ही लगे रहते हैं)। बहरहाल मित्रों ने शायद मुझे भोला समझकर ही कोई जवाब नहीं दिया। आखिरकार यूनीवर्सिटी में नौकरी ली। १९८६ में अपने शोध कार्य पर IITK भाषण देने गया तो पहले से संपर्क में आए अमिताभ मुखर्जी के साथ मुलाकात हुई, जो उस वक्त वहाँ कुछ समय से postdoctoral काम कर रहा था। वहीं से एकलव्य के विनोद रायना का पता चला। विनोद को ख़त लिखा तो उसने तुरंत होविशिका के प्रशिक्षण शिविर के लिए बुलाया। होशंगाबाद और उज्जैन दो शहरों में मिडिल स्कूल के अध्यापकों के लिए शिविर शुरु हो रहे थे। चंडीगढ़ लौटते ही मैंने उज्जैन जाने की सोची। उन दिनों आज जितनी ट्रेनें न थीं। दिल्ली आया और सीधे रतलाम की ओर जाती गाड़ी पकड़ ली। अनारक्षित कोच में बैठा। भीड़ भाड़ में किसी ने ऊपर से खाना वाना गिरा दिया। गंदे कपड़ों में पहले नागदा और फिर उज्जैन पहुँचा। पहुँचते ही स्टेशन के पास विवेकानंद कालोनी में एकलव्य के दफ्तर पहुँचा - विवेक पायस्कर और अरविंद गुप्ते उज्जैन केंद्र में काम करते थे, इनके अलावा और लोगों में एक कमाल का व्यक्ति मनमौजी था, जिसने बाद में ओरीगामी आदि में महारत हासिल कर ली थी। उस वक्त वहाँ कोई नहीं मिला, वहाँ से सभी एजुकेशन कालेज चले गए थे, जहाँ शिविर था। तो कहीं से दो ग्लास लस्सी पी (तभी पता चला कि मध्य प्रदेश की लस्सी पी नहीं चम्मच से खायी जाती है) और शिविर पहुँचा। विनोद ने मिलते ही गले लगाया तो मैंने बतलाया कि दूर रहो, कपड़े गंदे हैं। जिनसे भी मिला तो बड़ा प्यार का माहौल सा था। मैं पहले दिन जिस क्लास में बैठा था, वहाँ स्रोत व्यक्ति अरविंद गुप्ते थे, जिन्होंने जीव जगत पर बहुत कुछ लिखा है और चकमक आदि पत्रिकाओं में बहुत सारी यह सामग्री प्रकाशित हुई है। उनके समझाने के तरीके का मैं तब से कायल रहा हूँ। देवास केंद्र का प्रभारी राम नारायण स्याग भी वहीं था, और बिल्कुल पंजाबी अंदाज में दमघोटू जफ्फी के साथ उसके साथ परिचय हुआ।
वह थी एकलव्य में मेरी शुरुआत। उन दिनों माहौल प्रोफेशनल और बोहेमियन का मिश्रण सा था। दिनभर शिविर में स्थानीय ग्रामीण अध्यापकों के साथ मिलकर प्रशिक्षण का काम – शाम को सब मिलकर गाने बजाने बैठते। जनगीत गाए जाते। शिक्षाविदों के अलावा राजनैतिक सोच वाले कार्यकर्त्ता भी जुटे थे - लोग दूर दूर से शिविर में आए थे। हिंदुस्तान में कम्युनिटी लिविंग जैसा ऐसा माहौल मैंने पहली बार पाया था। बहुत मजा आया। लौटकर यू जी सी फेलोशिप के लिए दरख़ास्त भेज दी। उन दिनों कुलपति गणित के प्रोफेसर बांबा थे। प्रोफेसर यशपाल के मित्र थे और जन विज्ञान जैसी बातों में रुचि रखते थे। तो तय हो गया कि दो वर्षों के लिए एकलव्य जा रहा हूँ। कागज़ात निकलने में देर हो गई, मई १९८८ से जाने का तय हो गया। मैं इस बीच १९८६ के दिसंबर में सत्यपाल सहगल को साथ लेकर देवास और भोपाल केंद्रों में आया (राजेश उत्साही से शायद तभी पहली बार भोपाल केंद्र में मुलाकात हुई और उसी यात्रा के दौरान पहली बार वरिष्ठ कवि राजेश जोशी से मिला)। १९८७ की गर्मियों में देवास में बाल मेले में आया; उस मेले की स्मृति ऐसी है जैसे बहुत उम्दा संगीत सुनने का अनुभव होता है; वहाँ शुभेंदु को छाओ नाच नाचते देखा और स्याग भाई के साथ तो मुहब्बत ही हो गई – (इसमें बहुत बड़ा हिस्सा उसके शिव बटालवी के गीतों को गाने के असर का है - मैंनूँ तेरा शबाब लै बैठा.....)। वहाँ से होशंगाबाद के शिविर में। इसी दौरान विनोद से कुछ बातों में मतभेद भी पनपे। इस पर फिर कभी।
१९८७ की उन गर्मियों में होशंगाबाद में मीरा सदगोपाल से मुलाकात हुई। मीरा से मिलते ही मैं उसका भक्त हो गया। एक दिन शाम को मीरा ने गिटार बजाते हुए पीट सीगर और जोन बाएज़ के पुराने गीत गाए। अनिल सदगोपाल से पिछले साल ही उज्जैन में मिल चुका था और मैं अनिल से बहुत प्रभावित था।
उन दिनों एकलव्य के सात केंद्र थे। भोपाल, होशंगाबाद, हरदा, पिपरिया, उज्जैन, देवास और धार। जब आना तय हुआ तो हमारी इच्छा के मुताबिक केंद्र में जगह न मिली। हम चाहते थे कि हम पिपरिया जाएँ क्योंकि मीरा सदगोपाल बनखेड़ी में किशोर भारती में थी और वह पिपरिया से करीब था। मैं मीरा को बहुत पसंद करता था और मेरा खयाल था कि मेरी पत्नी कैरन को मीरा के पास होने से सहूलियत होगी। मीरा भी अमरीका से आई थी और भारत में बस गई थी।
हालांकि बाद में हरदा में आकर हम खुश थे (खासकर अनवर जाफरी की ज़िंदादिली की वजह से), शुरुआत में बहुत हताशा हुई कि हमें अपने मन मुताबिक केंद्र में जाने नहीं दिया गया। एकलव्य की अंदरुनी समस्याओं का यह पहला झटका था और अगर तब तक चंडीगढ़ में सबसे कह न दिया होता तो शायद हम उस वक्त मध्य प्रदेश आते ही नहीं। तब तक देर हो चुकी थी और वापस जाना संभव न था। मुझसे पहले कैरन ने एकलव्य में काम लिया। बहुत ही सामान्य तनख़ाह थी। शायद पंद्रह सौ रुपए मिलते थे। आते ही उसे कुछ शारीरिक समस्याएँ हुईं। मैं दो या तीन बार चंडीगढ़ से हरदा दौड़ता रहा। आखिर मई में सामान पैक करवा मैं भी रवाना हुआ। अब भी एग्ज़ाम ड्यूटी के लिए वापस आना था। इसी बीच एक अजीब संकट आ खड़ा हुआ।
१९८७ की शुरुआत में पिपरिया के पास एक गाँव में एक पुलिस के सिपाही का कुछ लोगों से झगड़ा हो गया। उसने अपने आप को मृत घोषित कर दिया और जिला पुलिस की उच्च-स्तरीय समिति के निरीक्षण में उसकी 'हड्डियाँ' कहीं से निकाली गईं। बस पुलिस का जुल्म शुरु हुआ। इसको पकड़, उसको पकड़। जवान लड़के मर्द जो बच सके, जंगलों में भाग गए। औरतों, बच्चों, बूढ़ों पर जुल्म चलता रहा। एकलव्य के कुछ साथी नागरिक अधिकारों पर काम करते थे। विरोध शुरू हुआ तो पी यू सी एल के स्थानीय कुछ लोगों को मदद मिलती थी। पंद्रह दिन बाद जब वह 'मृत' सिपाही इटारसी में ज़िंदा ढूँढ लिया गया तो अफरातफरी मच गई। जाँच शुरु हुई। पुलिस के आला अफसर परेशान। एकलव्य पर भी गाज पड़नी थी क्योंकि जिला मुख्यालय होशंगाबाद में था और कोर्ट कचहरी के काम में आए कार्यकर्त्ताओं को केंद्र में शरण भी मिलती थी और कागज, स्याही, टाइपराइटर भी।
ऐसे में आ पहुँचा खालिस्तानी आतंक वाले क्षेत्र पंजाब से हरजिंदर सिंह और साथ में विदेशी पत्नी। जिला पुलिस को इससे बेहतर मौका और क्या मिल सकता था। कैरन को नोटिस मिली कि जिला में रहने की अनुमति नहीं दी जाएगी। मैं पहुँचा ही था और दो दिनों में वापस चंडीगढ़ लौटना था। मई के पहले हफ्ते की बेतहाशा गर्मी। हरदा से भीड़ भरी बस में आम लोगों के अलावा बकरी भेड़ों के साथ होशंगाबाद आते हुए शिवपुर के पास रेलवे के फाटक पर घंटे भर बस का रुका रहना भूलता नहीं है। उन दिनों हरदा होशंगाबाद शहर का हिस्सा था और होशंगाबाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जिला था (लद्दाख और बस्तर के बाद)। जवान थे - होश बरकरार रहा। दूसरे दिन होशंगाबाद केंद्र के संचालक हृदय कांत दीवान (प्यार से हार्डी) की सलाह मुताबिक पुलिस मुख्यालय पहुँचा। एस पी से मिलना था। देर तक मुझे एक क्लर्क ने बैठाए रखा। कैरन के पुलिस कागजात चंडीगढ़ से पहुँचे नहीं थे, इस पर कुछ सवालात करते रहा। फिर दूर अपने साथी से चिल्लाकर कहा - अरे, वो आतंकवाद वाली फाइल लाना।
ऐसा अनुभव मुझे पहले हो चुका था। १९८५ में अमरीका से लौटते हुए कलकत्ता हवाई अड्डे पर पुलिस ने परेशान किया था। उस वक्त आँखों में आँसू आ गए थे, पर तय किया था कि फिर कभी जितना भी पिट जाऊँ, हौसला नहीं छोड़ूँगा। बैठा रहा। आखिर एस पी साहब ने बुलाया। मैंने समझाया कि मैं यूनिवर्सिटी अध्यापक हूँ। विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम में स्रोत व्यक्ति की हैसियत से आया हूँ और हम अधिकारियों से पूरी तरह सहयोग करेंगे आदि। जनाब ने फरमाया - आपको विदेशी नागरिक से विवाह करने की इजाजत किसने दी?
भरपूर तनाव के बावजूद मैं जोर से हँस पड़ा। बतलाया कि भारत के संविधान में नागरिकों पर ऐसी कोई रोक नहीं है। पर सर पर कोई प्रभाव न पड़ा। हताश मैं निकला और वापसी की ट्रेन पकड़ने स्टेशन पहुँचा। दुखी होकर कैरन पर चिल्लाता रहा कि वापस जाओ। यह सब झमेला मुझसे नहीं झेला जाता।
कई लोगों को लगता होगा कि पुलिस से परेशान होने के लिए विनायक सेन जैसा धाँसू ऐक्टीविस्ट होना ज़रुरी है। मैंने अब तक तकरीबन समझौतापरस्त मध्यवर्गीय जीवन जिया है, फिर भी बार बार पुलिस या अन्य अधिकारियों से परेशान हुआ हूँ। पता नहीं जीवन में कैसी कैसी जटिलताएँ इन वजहों से आई हैं। सबसे ज्यादा परेशान करने की बात यह है कि भारत महान के सचेत बुद्धिजीवी हमें ही समझाते हैं - देखो, स्थितियाँ ऐसी हैं, इसलिए तुम्हें समझना चाहिए। सच यह है कि जैसा मेरे मित्र एच एस मेहता कहा करते हैं - इस मुल्क के हुक्मरानों में खानदानी बदतमीज़ी कूट कूट कर भरी हुई है। यह अद्भुत ही है कि यहाँ हम सब – हमसे कहीं ज्यादा वे जो विपन्न हैं, जो कम पढ़े लिखे हैं, कामगर लोग, लगातार जुल्म झेलते हैं और फिर भी यह व्यवस्था टिकी हुई है। सलाम है विनायक सेन जैसे महान लोगों को और सचमुच ऐसे लाखों लोग हैं जो रोजाना मुश्किलात झेलते हुए बेहतर समाज के लिए लड़ रहे हैं, और धिक्कार है इस मुल्क के हुक्मरानों और सुविधापरस्त बुद्धिजीवियों को जो इस व्यवस्था की दलाली में लगे हैं।
ऐसा नहीं कि आशा की किरणें नहीं हैं। हालांकि कैरन को पुलिस के झमेले से राहत गृह विभाग के कुछ अधिकारियों की मदद (जिन तक पहुँचने में संस्था की ही साथी ने मदद की थी, जिसके अफसरों से ताल्लुकात थे) से मिली थी, पर उस एस पी का ट्रांस्फर भी हुआ था - और वह जन संगठनों के संघर्ष का परिणाम था।
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लेकिन विनायक सेन एक्टिविस्ट न होकर नक्सली आतंकवाद के पैरोकार है, हत्यारे सिर्फ बंदूक पर ट्रिगर दबाने वाले नहीं होते बल्कि वो भी होते है जो हत्यारों को सुराग देते है
विनायक सेन के लिये चिल्लाने वाले मानवाधिक्कार वादियों के आभा मंडल से ग्रस्त मत हो जाईये