पाँच कविताएँ 1 जाते हुए अच्छा या चलूँ जैसा कुछ कहा था तुमने आने वाले तूफानों से अंजान वह लम्हा था हम अलग - अलग यात्राओं पर निकल पड़े थे मैंने ज़हन में सँभाल रख ली थीं तुम्हारी नाज़ुक भंगिमाएँ तुम्हारे चुप - चुप नयन मेरे हर तज़ुर्बे में साथ चल ते थे मेरी आँखों में हसरत बस गई थी हर मंज़र में ख़ून दौड़ता था हर सिम्त तुम्हारी महक थी दरख्तों के पत्तों में बेसब्र सिहरन थी हर पल लगता था कि कहीं से देख रही हो मुझे कि मुझे धरती पर खुला छोड़ने के लिए बेताब हो तुम जितना कि मैं तुमसे बँधा रहना चाहता था या कि तुम भी मुझे बाँध रखना चाहती थी और मैं तुम्हें पँखुड़ियों सा खोलना चाहता था ( तुम्हारी चुप आँखें कह रही हैं मुझे कि मैं वही हूँ कितना चाहा था मैंने तुम्हें इसका हिसाब लगा रहा हूँ ) 2 कल शाम देर तक बिजली कड़कती रही दूर चट्टानों पर बादल बिछ गए थे गीली हवा थी और मैं प्यासा था तुम्हारे बिन मेरा बदन बेजान - सा फर्श पर टिका था गरज - गरज बादल अँधेरे की चुप्पी...