शिक्षा का मकसद, सांप्रदायिकता और लोकतंत्र, अदालत की राय आदि
Labels: जनपक्ष, शिक्षा, सांप्रदायिकता
बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप
Labels: जनपक्ष, शिक्षा, सांप्रदायिकता
Labels: अमेरिका, ऐंटी-न्यूक, विज्ञान
And frogs in the pools singing at night,
And wild plum trees in tremulous white,
Robins will wear their feathery fire
Whistling their whims on a low fence-wire;
And not one will know of the war,
not one
Will care at last when it is done.
Not one would mind, neither bird nor tree
If mankind perished utterly;आएँगी हल्की फुहारें
(यह कविता रे ब्रैडबरी की कहानी में है - जिसका अनुवाद मैंने किया था जो 1996 में
साक्षात्कार में छपा था) आएँगी हल्की फुहारें,ज़मीं महकेगी, अबाबीलें तीखी चहकती आकाश में चक्कर लगाएँगीं;
रात को पोखर में में गाते दादुर होंगे
काँपती सफेदी में जंगली आलूबुखारे होंगे,आग-से धधकते पंख लिए रॉबिन पाखी होंगे
निचली बाड़ों पर बैठ मनमाफिक सीटियाँ बजाते होंगे;
किसी को नहीं पता होगा कि एक जंग छिड़ी थी,
कोई नहीं जानेगा आखिर जंग रुक जाएगी जब
किसी को फर्क नहीं पड़ेगा, न पंछी न पेड़ों को
आदमजात हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी जो
और खुद बहार जब सुबह जागेगी
बेखबर होगी न रहने से हमारे।
Too burning and too quick to hold,
Too lovely to be bought or sold,
Good only to make wishes on
And then forever to be gone.
गिरता तारा
देखा मैंने आस्मां में यूँ फिसला इक तारा,
गुजरा उत्तर को चौंधियाता वह,
तीखी चौंध और बड़ी जल्दी नज़रों से भागा
इतना प्यारा था कि बेचा जाए न खरीदा,
बस देखो उसे, तो कोई माँग लो मन्नत,
और अलविदा कहना भी उसका मान लो।
मैं तुम्हारी नहीं हूँ
मैं तुम्हारी नहीं, तुममें समाई भी नहीं
खोई नहीं, खो जाना चाहती लेकिन
दुपहर की धूप में
जैसे शमा खो जाए
या खो जाए बर्फ़ का फाहा समंदर में।
तुम मेरे आशिक हो, और अब भी मेरे लिए
रुह हो खूबसूरत और दमकती हुई
पर मैं तो मैं हूँ, और खोना चाहती हूँ
जैसे रोशनी में रोशनी खो जाए।
मुझे प्रेम में डुबो लो गहरे - बुझा दो
सब मेरे अहसास, सुनना देखना सब,
तुम्हारे प्रेम के तूफां में बह जाऊँ
झूमती हवाओं में ज्यों कोई तिनका।
There is no magic any more,
We meet as other people do,
You work no miracle for me
Nor I for you.
You were the wind and I the sea—
There is no splendor any more,
I have grown listless as the pool
Beside the shore.
But though the pool is safe from storm
And from the tide has found surcease,
It grows more bitter than the sea,
For all its peace.
औरों जैसे ही हम मिलते हैं
तुम कोई चमत्कार अब नहीं मेरे लिए
मैं भी नहीं तुम्हारे लिए
तुम हवा थे और मैं समंदर- अब कोई शौकत नहीं बची
साहिल पर बन आए पोखर जैसी
मैं हो गई बेजान
पोखर तूफाँ से बचा हुआ है गो और अलग थमा हुआ है उफनती लहरों से
समंदर से भी ज्यादा तड़पता है वो
दिखता हो चाहे कितना शांत।
Labels: अनुवाद, आज़ादी, कविता, जनपक्ष, स्त्री प्रसंग