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शिक्षा का मकसद, सांप्रदायिकता और लोकतंत्र, अदालत की राय आदि



शिक्षा, सांप्रदायिकता और लोकतंत्र



शिक्षा का मकसद क्या है? बगैर स्कूल गए भी आदमी जी लेता है, हमारे देश में हाल तक अधिकांश लोग ऐसे ही जीते रहे हैं। समाज हर नागरिक के लिए शिक्षा को ज़रूरी मानता है और देश का संविधान सरकार को समाज की इस माँग को पूरा करने को कहता है तो इसके पीछे कारण क्या हैं, उन्हें समझना चाहिए। इंसान अकेले में नहीं जीता, उसे जीने के लिए समाज और कुदरत के साथ संबंध बनाना पड़ता है। इसलिए उसमें यह जैविक गुण है कि वह अपने बारे में, समाज और कुदरत के बारे में जानकारी इकट्ठी करे। जन्म से भी पहले से ज्ञान पाने की प्रक्रियाओं में वह सक्रिय हो जाता है। भाषा, अहसास, तर्कशीलता और भावनात्मकता जैसे साधनों को वह सीखता और अपनाता है और इनका भरपूर इस्तेमाल करता है। पर अपने आप एक सीमा तक ही हम ज्ञान पा सकते हैं। जैविक विकास के साथ इंसान ने ऐसी काबिलियत पा ली है कि वह तकनीकी, कलात्मक और दीगर आयामों में ज्ञान बढ़ाता रहा है, जिससे उसे जीवन के नए अर्थ मिलते चले हैं। हर समाज यह चाहता है कि उसके सदस्यों में यह क्षमता और बढ़ती रहे ताकि इससे सामूहिक रूप से हर कोई बेहतर ज़िंदगी जी पाए। इस वजह से स्कूल, कालेज जैसे तालीम पाने क औपचारिक संस्थाएँ बनाई गई हैं। बदकिस्मती से होता यह है कि अक्सर समाज क संपन्न और ताकतवर लोग न संस्थाओं को अपने हितों में इस्तेमाल करते हैं और हमारी ज्ञान पाने की कुदरती क्षमताओं को दबा कर हम पर संकीर्ण मूल्यों को थोपते है। सरकारी स्कूली व्यवस्था को हाशिए में रखना, उसे लगातार बदहाली में धकेलते रहना, यह जनविरोधी तरीका हमारे संपन्न शासक वर्गों ने अपनाया। इलाहाबाद की उच्च अदालत ने इस स्थिति की पहचान करते हुए सरकारी कर्मचारियों और ऐसे लोगों को जिन्हें सरकारी वेतन या मानदेय मिलता है, अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने की जो राय दी है, वह तालीम को निहित स्वार्थों से बचाकर भावी नागरिकों को बेहतर इंसान बनाने की तरफ का एक ज़रूरी और व्यापक कदम है।



एक स्तर पर मजहब, जाति या लिंग आदि के आधार पर एक इंसान को दूसरों से अलग करना एक सामान्य-सी बात लगती है। आखिर इंसान तो क्या, कुदरत में कोई एक जीव बिल्कुल दूसरे जैसा नहीं होता। यह विविधता हममें कुदरत के रहस्यों के प्रति उत्सुकता बढ़ाती है। हम दूसरों में अपने से अलग खासियतों को पहचानते हुए खुद को और दूसरों को सराहना चाहते हैं। पर यह फ़र्क तब सहज नहीं रह जाता जब इसका इस्तेमाल एक दूसरे के खिलाफ और ऊँच-नीच का भेद बनाए रखने के लिए किया जाए। समान स्कूली व्यवस्था में बच्चे इस बात को जानते हुए बड़े होते हैं कि हम सब अपनी विविधताओं के बावजूद एक ही जैसे हैं। हमारे मन में परस्पर के लिए सम्मान बढ़ता है। हम एक दूसरे के मजहब और इतिहास को समझना चाहते हैं। इसके विपरीत फिरकापरस्ती आपस में नफ़रत बढ़ाती है। कुछ लोग इसी नफ़रत के जरिए सत्ता पाने का रास्ता ढूँढते हैं। इस नफ़रत को बनाए रखने के लिए ये ताकतें स्कूली पाठचर्या और पाठ्यक्रम को बदलने के लिए जोर डालती हैं। हमारी समृद्धि का कारण हमारी विविधता और बहुलता है, जिसमें सराबोर हमलोग सदियों से साथ-साथ जीते रहे हैं; से दरकिनार कर एकांगी मूल्यों की संस्कृति थोपने की कोशिश होती है। पूरे दक्षिण एशिया में ये ताकतें इतिहास को वैज्ञानिक धरातल से हटाकर खास नज़रिए से लिखने की कोशिश कर रही है, ताकि कल्पना और झूठ के आधार पर ताकतवर संप्रदाय अपनी सत्ता को मजबूत कर सकें। अगर समान स्कूली व्यवस्था के हालात बेहतर हों तो ये ताकतें अपने मकसद में सफल नहीं हो पाएँगीं, क्योंकि बच्चे खुदबखुद तर्कशील ढंग से सोचेंगे और सही सामग्री को ढूँढने के लिए तत्पर होंगे। इसलिए सांप्रदायिक ताकतें अपने ढंग के स्कूल चाहती हैं या सरकारी स्कूलों कॉलेजों की स्वायत्तता खत्म करना चाहती हैं। ऐसी हालत में इंसान महज एक राजनैतिक औजार बन जाता है और तालीम का कोई मायना नहीं रह जाता। इसलिए अदालत की राय पढ़ते हुए हम इस बात को भी समझें कि यह महज स्कूल की इमारत और भीतरी सुविधाओं को बेहतर बनाने की बात नहीं है हमें गंभीरता से सोचना पड़ेगा कि हम कैसे तालीम को फिरकापरस्ती और दूसरे भेदभावों से न केवल मुक्त करें, बल्कि ऐसे बदलाव कैसे लाएँ कि बच्चों में इनके प्रति सही सवाल उठाने की काबिलियत आ जाए। इसके विपरीत मौजूदा हालात जिनमें भारत में संघ परिवार और पाकिस्तान में तालिबानी संगठनों के द्वारा तालीम में फिरकापरस्त रंग ढाले जा रहे हैं, इससे समाज में भाईचारा कम होगा और मारकाट बढ़ेगी।



कारगर लोकतंत्र के लिए लाजिम है कि हर नागरिक को बेहतर तालीम मिलेइंसान में वक्त के साथ यह समझ बढ़ी है कि हमें सामूहिक निर्णय लेकर अपनी बेहतरी की ओर बढ़ना चाहिए। सामूहिकता के लिए तालीम में बराबरी लाना एक ज़रूरी कदम है। महज लोगों की भागीदारी से ही लोकतंत्र कारगर नहीं होता। हमारे मुल्क में लोकतंत्र में लोगों की अच्छ तादाद में भागीदारी है। पर आज तक अधिकांश लोगों के पक्ष में प्रतिबद्ध सरकार नहीं बन पाई है। इसकी एक मुख्य वजह सही तालीम का अभाव है। आज़ादी के बाद चार दशकों तक सरकारी स्कूलों का पुराना ढाँचा पहले से थोड़ा और बड़ा हुआ, पर उसमें गुणात्मक बदलाव कम ही आए। उसके बाद सत्तासीन वर्गों ने नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ अपनाते हुए, खुले आम समान स्कूली व्यवस्था को तबाह करना शुरू कर दिया। इसी के साथ सांप्रदायिकता बढ़ती रही। उसका नतीज़ा यह है कि एक ओर हम चाँद और मंगल जा रहे हैं, स्मार्ट सिटी और बुलेट ट्रेन की बातें कर रहे हैं, दूसरी ओर किसानों की आत्महत्याएँ बढ़ती जा रही हैं, आदिवासियों पर अत्याचार बढ़ रहे हैं, चुनाव जीतने के लिए कुछ सियासी पार्टियाँ हर तरह के फिरकापरस्त हथकंडे अपना रही हैं। क्या हमें वह तालीम मिल रही है, जिससे हम सर्वांगीण ज्ञान पाते हुए बेहतर इंसान बनें? ऐसा नहीं हुआ है और इसका मतलब है कि तालीम के बुनियादी मकसद से हम दूर हैं। सांप्रदायिक ताकतें सरमाएदारों के साथ मिलकर हमें इंसानियत से हटाकर हैवानियत की ओर ले जा रही हैं। उच्च-शिक्षा को भी सेवा का क्षेत्र मानकर विश्व-व्यापार संगठन के लिए खुला छोड़ने के लिए सरकार ने मन बना लिया है। इसका विरोध होना बहुत ज़रूरी है। अधिकतर निजी संस्थानों में तालीम महज एक व्यवसाय है और ऐसे माहौल में तर्कशीलता और भावनात्मकता के लिए जगह नहीं बचती है। इससे सांप्रदायिकता का ज़हर बढ़ता है।



लाहाबाद की अदालत की राय को मुल्क में सत्तासीन ताकतें जल्दी नहीं मानेंगीं। इसके लिए हमें सरकार को मजबूर करना पड़ेगा कि वह इस ऐतिहासिक राय को नज़रअंदाज़ न करे। जिस रफ्तार से यह देश विनाश की ओर बढ़ता दिख रहा है, उसे रोकने के लिए यह ज़रूरी कदम साबित होगा। समान स्कूली व्यवस्था की दुरुस्ती से ही सांप्रदायिकता खत्म होगी, बराबरी का समाज बन पाएगा और तब आज़ादी के लिए लड़ने वालों का सपना कि 'उरूज--कामयाबी पर कभी हिंदोस्ताँ होगा', पूरा होगा।

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