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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Sunday, September 14, 2014

रिसने न दें इतराना


कुछ है जो नहीं रिसता है


चुप्पी है, और दृश्य। दृश्यों में फिसफिसाहट सी बातचीत ।

इतराना। चलें जैसे तैर रहे। बीच हवा या धुंध हमें बाँधे हुए है और हम जब चाहें उड़ने को तैयार। चारों ओर पत्ते जिन्हें

सहलाते हुए चलें जैसे पत्ते हमारे अंदर गहरे घावों को सहलाते।

हम इसे रिसने न दें।

धरती में हर कुछ रिस रहा हो

कहें कि कुछ है जो नहीं रिसता है।

धरती का हर ज़र्रा रिस जाए

खूं का हर कतरा रिस जाए

रिसने न दें

अपना इतराना।

(दृश्यांतर - 2014)

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1 Comments:

Blogger Pratyaksha said...

अक्छी लगी

12:13 PM, September 16, 2014  

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