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Showing posts from January, 2013

आदम की संतानें हैं इतनी बीमार

कितने आँसुओं का बोझ   एक दिन धरती फेंक देगी हमें शून्य में नहीं सहा जाता इतना बोझ आस्मान नहीं स्वीकारेगा हमारी यातनाएँ कौन ब्रह्म हमें सँभालने अपनी हथेली पसारेगा धरती के इस ओर से उस ओर दुर्वासा के कदमों की थाप काँप रहा गगन एक व्यक्ति ढूँढने निकला है आदि आदिम को धरती और आस्मान विस्मित हैं पूछ रहे एक दूसरे से कि किसकी गलती है कि आदम की संतानें हैं इतनी बीमार एक व्यक्ति योजनाएँ बना रहा है कि वह हर बदले का बदला लेगा बदलों की सूची बनाते हुआ वह रुक गया है आदम तक पहुँच कर क्यों फेंके थे पत्थर आदम ने जब और कोई न था धरती पर उसके सिवा। (2009; 'नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध' में संकलित )

अगड़म बगड़म

कुछ साल पहले मैंने सुकुमार राय की अनोखी कृति ' आबोल ताबोल ' से अनूदित कविताएँ पोस्ट की थीं। 1988 में अशोक अग्रवाल ने संभावना प्रकाशन से मेरी अनूदित ऐसी 20 कविताओं की पुस्तिका प्रकाशित की थी। ये नॉनसेंस कविताएँ हैं और इनका अनुवाद कठिन काम है। मुझमें हमेशा एक असंतोष की भावना रह गई थी कि अनुवाद ठीक हुआ नहीं है। डेढ़ साल पहले काफी मेहनत से प्रो . सुवास कुमार के साथ बैठ कर मैंने दुबारा यह काम किया और इस बार विजय गुप्त ने साम्य पत्रिका की पुस्तिका के रूप में इसे छापा है। इसकी भूमिका के लिए विजय जी ने भी लिखा और हमने भी एक लेख तैयार किया। मेरा यह लेख संक्षिप्त रूप में तीन साल पहले अंग्रेज़ी में निकलती पत्रिका ' हिमाल ' में छपा था। यहाँ हिंदी में पूरे आलेख को पेस्ट कर रहा हूँ। पुस्तिका का आवरण बनतन्वी दासमहापात्रा ने तैयार किया है। प्रति ( कीमतः 30/-) के लिए लिखें :- श्री विजय गुप्त , ब्रह्म रोड , अम्बिकापुर 497001, जिला - सरगुजा , छ . ग . --> भूमिका भारतीय उपमहाद्वीप की तमाम भाषाओं में आधुनिक काल में बच्चों के लिए लेखन की प्रचुरता की वजह से बांग्...

इन जंगों में कौन मरा?

इस आलेख का एक संक्षिप्त प्रारूप आज के जनसत्ता में आया है। कुछ बातें पुरानी हैं जो 11 साल पहले जनसत्ता मेंही छपे एक आलेख में थीं, कुछ इसी ब्लॉग के पुराने चिट्ठों में थींः लकीरें खींच कर माँ को बच्चों से जुदा करने के खिलाफ एक सत्तर साला दादी माँ अपने परिवार के साथ रहना चाहती है ; परिवार तक पहुँचने की उसकी दौड़ दो मुल्कों के बीच छोटी सी जंग की शुरूआत है। इस बात को हमें कई कई बार कहना चाहिए। हो सकता है कि बार बार कहते रहने से कभी हम समझ ही जाएँ कि देश, देश की ज़मीन, सुरक्षा आदि शब्द कितने भयानक होते हैं, जब वे हुक्मरानों और उनके सिपहसालारों का मसला बनकर पेश आते हैं। जंग कभी भी 'छोटी' नहीं होती। एक सिपाही की मौत एक इंसान की मौत है। एक वयस्क की मौत, जिससे उसके बच्चे अनाथ हो जाते हैं। साहिर की पंक्तियाँ हैं- 'टैंक आगे बढ़ें या पीछे हटें, कोख धरती की बांझ होती है'। एक सैनिक के मरने या घायल होने पर सरकार उसे पुरस्कार दे दे या उसे धन दे दे तो तो उस क्षति कि पूर्ति नहीं होती जो एक बाप, भाई या आजकल की स्त्री सिपाही, माँ या बहन के अचानक दुनिया से कूच क...