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Showing posts from May, 2009

रोशनी

कभी कभी तारों भरा आस्माँ देख थक जाता हूँ। इत्ती बड़ी दुनिया छोटा मैं फिर खयाल आता है तारे हैं क्योंकि वे टिमटिमाते हैं रोशनी देख सकने की ताकत का अहसास मुझे एक तारा बनने को कहता है तब आस्माँ बहुत सुंदर लगता है। (1988: अप्रकाशित)

अभी समय है

अभी समय है अभी समय है कि बादलों को शिकायत सुनाएँ धरती के रुखे कोनों की मुट्ठियाँ भर पीड़ गज़ल कोई गाएँ अभी समय है आषाढ़ के रोमांच का मिथक यह रिमझिम भ्रमजाल हटाएँ सहज दिखता पर सच नहीं जो सब झूठ है सब झूठ है चिल्लाएँ अभी समय है बिजली को दर्ज़ यह कराएँ बिकती सड़कों पर सौदामिनी उसकी गीली रात भूखी है सिहरती बच्ची के बदन पर शब्द कुछ सही बिछाएँ अभी समय है कुछ नहीं मिलता कविता बेचकर कविता में कुछ कहना पाखंड है फिर भी करें एक कोशिश और दुनिया को ज़रा और बेहतर बनाएँ। (दैनिक भास्कर – चंडीगढ़ २०००)

तुम्हारी दाढ़ी को क्या हुआ

बिनायक सेन, बिनायक सेन, तुम्हारी दाढ़ी को क्या हुआ। चलो एक तो अच्छी खबर आई। बिना दाढ़ी का बिनायक सेन जेल से छूटा । पर जैसा कि हिंदू में आज कार्टून छपा है, फुर्र नहीं हो सकते- जमानत ही है। पर फुर्र होना भी क्यों? जनता का आदमी, जनता के बीच ही रहेगा। खतरनाक लोगों के बीच रहने की उसको आदत है। बेशर्म हुक्मरान अपनी जिद पर हैं। अभी अभी बस्तर में एक गाँधी वादी संगठन का दफ्तर तोड़ा है। गरीबों की ओर से बोलने वाले की हर पार्टी दुश्मन। ऊपर से बस्तर में सरकार संघियों की है। वे लोग तालिबानी हैं, गलती से हिंदू पैदा हो गए हैं, इसलिए खुले आम कह नहीं सकते, केंद्र में फिर सरकार इनकी बन जाए तो खुले आम भी घोषणा कर दें, क्या पता। केंद्र में हारे तो मंगलूर में सीट जीतने की खुशी में मुसलमानों को पीटा । तो बिनायक न भी डरे, उसकी ओर से डर हम पर हावी है। सुनील ने भी आज इस पर लिखा है।

अचंभित दुनिया देखती है औरत।

मन तो मेरा था कि बुर्जुआ लोकतंत्र के चुनावों पर एक पेटी बुर्जुआ अराजकतावादी के कुछ अवलोकनों को लिखूँ। पर अफलातून जो इन दिनों मेरे संस्थान में आया हुआ है ने समझा दिया कि मुल्क में मेरे जैसे पेटी बुर्जुआ टिप्पणीकारों की भरमार है। इसी बीच पुराने पोस्ट में 'छोटे शहर की लड़कियाँ' शीर्षक कविता पर टिप्पणी आई कि दूसरी कविता 'बड़े शहर की लड़कियाँ' भी पोस्ट कर दूँ। तो फिर वही सही। यह कविता भी मेरे पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित है। यह कविता लाउड है, इसमें शब्दों के सैद्धांतिक अर्थ हैं, जिनसे हर कोई परिचित नहीं होता, जैसे 'गोरा' शब्द रंग नहीं, सामाजिक राजनैतिक सोच है। यह कविता संभवतः पल-प्रतिपल पत्रिका में भी १९८९ में प्रकाशित हुई थी। 'छोटे शहर की लड़कियाँ' जैसी हल्की न होने की वजह से यह आम पाठकों पर भारी पड़ती है। बड़े शहर की लड़कियाँ शहर में एक बहुत बड़ा छोटा शहर और निहायत ही छोटा सा एक बड़ा शहर होता है जहाँ लड़कियाँ अंग्रेज़ी पढ़ी होती हैं इम्तहानों में भूगोल इतिहास में भी वे ऊपर आती हैं उन्हें दूर से देखकर छोटे शहर की लड़कियों को बेवजह तंग क...

चिढ़

चिढ़ मैं चिढ़ता हूँ तो मेरी दुनिया भी चिढ़ती रहती है मेरी दुनिया को चिढ़ है और दुनियाओं से मेरी चिढ़ मेरी दुनिया भर की चिढ़ है दुनिया भर की चिढ़ को सँभालना कोई आसान काम तो नहीं है मैं हार गया हूँ अपनी चिढ़ को किसी अदृश्य थाल पर लिए चलता हूँ तुम बतलाते हो कि मैं चिढ़ कर बोलता हूँ तो मुझे पता चलता है कि मैं चिढ़ कर बोलता हूँ मैं किसी और से कहता होऊँगा कि वह चिढ़ कर बोलता है वह किसी और से यह सिलसिला चलता ही रहता है बहुत सारी चिढ़ का पहाड़ ढोते हैं हम सब मिलकर मैं क्यों चिढ़ता रहता हूँ ऐसा नहीं कि मैं चिढ़ कर खुश होता हूँ मैं तो सबसे मीठी बातें करता हूँ कोई और चिढ़ रहा हो तो उसे भी सहलाता हूँ तो मैं क्यों चिढ़ता रहता हूँ ऐसा क्यों नहीं करते कि हम यह सारी चिढ़ इकट्ठी कर अमरीका के राजदूत को या हमारे मुल्क को पाकिस्तान बनाने में जुटे मोदी सरीखों को दे दें हो सकता है हमारे उपहार को देख वे खूब हँसें कम से कम हमारी चिढ़ इस काम तो आएगी या यूँ करें कि यह सारी चिढ़ किसी सभ्य कवि को दे आएँ या किसी को जो माँग करता है कि कविता में गाँव होना ही चाहिए चिढ़ की पूँजी बाँटते रहें तो कम नहीं होती यह बात श...

गाँधीवाद या नक्सलवाद, तुम सच्चाई से डरते हो

बिनायक सेन को जेल में भरने के पीछे सिर्फ संघी हठवादिता नहीं, नक्सलवाद का हौव्वा हर कोई इस्तेमाल करता है। प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने कई बार कहा है कि देश को सबसे बड़ा खतरा नक्सलवाद से है। है कौन सा देश हे मनमोहन, जिसकी बातें करते हो मेरा देश भी है मनमोहन, जिससे डरते रहते हो यह सही कहा है तुमने कि खतरा बड़ा है देश को यूँ अपने देश में मनमोहन, हमें कहाँ तुम गिनते हो मेरे देश में हे मनमोहन, लड़ते हैं, मरते हैं लोग तेरे देश में हे मनमोहन, यूँ ज़मज़म जेबें भरते हो यहाँ बाढ़ है वहाँ है दंगा, ये मेरा तेरा देश मनोहर मेरे देश में आ मनमोहन, डगर डगर फिसलते हो तेरे देश में हे मनमोहन, किसको नींद है आती डरावने सपनों से घबराते, क्यों खर्राटे भरते हो गाँधीवाद या नक्सलवाद, तुम सच्चाई से डरते हो भूखे पेटों को मनमोहन, क्यूँ गप्पों से यूँ भरते हो।