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Showing posts from April, 2009

छोटे शहर की लड़कियाँ

१९८८ में हरदा एक छोटा शहर था। अब जिला मुख्यालय है। मैं बड़े शहर में जन्मा पला, इसके पहले कभी किसी छोटे शहर में रहा न था। सबसे ज्यादा जिस बात ने मुझे प्रभावित किया, वह था युवाओं की छटपटाहट। मुझे लगता था कि ऊर्जा का समुद्र है, जो मंथन के लिए तैयार है। बहरहाल, संस्था के केंद्र में एक पुस्तकालय था, जहाँ छोटे बच्चों से लेकर कालेज की लड़कियाँ तक आती थीं। खास तौर पर लड़कियों में मुझे लगता था जैसे उनके लिए केंद्र में आना घर परिवार के संकीर्ण माहौल से मुक्ति पाना था। मुझे तब पहली बार लगा था कि इस देश में अगर लड़कियों को घर से बाहर रहने की आज़ादी हो तो आधे से ज्यादी लड़कियाँ निकल भागेंगी। लगता था अगर हम लड़कियों के लिए सुरक्षित जगहें बना सकें तो बहुत बड़ा काम होगा। हाँ भई, उम्र कम थी, संवेदनशील था, तो ऐसा ही सोचता था। उन दिनों यह कविता लिखी थी जो तीन चार पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई और मेरे पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में भी है। छोटे शहर की लड़कियाँ कितना बोलती हैं मौका मिलते ही फव्वारों सी फूटती हैं घर-बाहर की कितनी उलझनें कहानियाँ सुनाती हैं फिर भी नहीं बोल पातीं मन की बातें छोटे शहर...

अरे! वो आतंकवाद वाली फाइल लाना

कुछ मित्रों ने कहा कि एकलव्य के साथ गुजारे डेढ़ सालों के बारे में कुछ लिखूँ। मैंने एकलव्य संस्था में मई १९८८ से नवंबर १९८९ तक डेढ़ साल गुजारे थे। यह अनुभव बहुत मूल्यवान था और इस छोटी सी अवधि में जिस तरह के दोस्त मैंने बनाए, वैसा और शायद ही कभी हुआ। हरदा और उसके आस पास अध्यापकों और युवाओं के साथ बिताए उन दिनों में मैंने बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ पाया। यहाँ सिर्फ शुरुआत की एक रोचक घटना का जिक्र करुँगा। १९८६ में प्रोफेसर यशपाल ने यू जी सी का अध्यक्ष बनते ही एक अनोखा काम किया। कालेज और यूनीवर्सिटी अध्यापकों को फेलोशिप्स दी गईंं कि वे ज़मीनी स्तर पर शिक्षा पर काम कर रही स्वैच्छिक संस्थाओं के साथ काम कर सकें। कागज़ी तौर पर इस तरह किए काम को उनकी जिम्मेदारियों का हिस्सा माना गया और इसे पदोन्नति आदि में बाधा नहीं माना जाना था (हालांकि मेरा अनुभव इसके विपरीत था - लंबे समय तक मेरे उन डेढ़ सालों के काम को मेरे खिलाफ इस्तेमाल किया गया)। इसके लिए यू जी सी से संस्थान के प्रमुख को बाकायदा निर्देश आता था कि प्रार्थी को फेलोशिप के काम पर भेजा जाए और संस्थान से ड्यूटी लीव मिलती थी। मैं विदेश में शोध करते ...

हमकलम

राजेश उत्साही ने अपने ब्लॉग 'गुल्लक' में जिक्र किया कि एक ज़माने में हम लोगों ने 'हमकलम' गुट नाम से साइक्लोस्टाइल साहित्यिक पैंफलेट निकाले थे। हमलोग मतलब सत्यपाल सहगल, मैं और रुस्तम। उन दिनों लगता था कि साइड ऐक्टीविटी है, पर अब सोचता हूँ तो लगता है कि एक महत्त्वपूर्ण काम था। १९८५: मैं ताजा ताजा अमरीका से लौटा था, रुस्तम आर्मी से रिज़ाइन कर पोलीटिकल साइंस में एम ए करने आया था। पार्टी के साथ जुड़ा था और मार्क्स पर काम कर रहा था। अमरीका से लौटा मैं लिबरेशन थीओलोजी, निकारागुआ, एल साल्वादोर, गुआतेमाला जैसे खयालों से भरा हुआ था और इस कोशिश में था कि बाकी भी इन खयालों में सराबोर हो जाएँ। कभी फ्रांत्ज़ फानों, कभी मैल्कम एक्स, इन पर कुछ न कुछ बकता रहता। कुछ अनुवाद वगैरह भी किया। कैंपस में हम तीन ऐसे लोग थे जिन्हें नाम से सिख पहचाना जाता था, पर जो केशधारी नहीं थे (- सत्यपाल नहीं, तीसरा व्यक्ति भूपिंदर बराड़ है जो हमसे उम्र में भी बड़ा था और अधिक गंभीर, रुस्तम उसी के साथ शोध कार्य कर रहा था)। मेरी आदत थी कि इधर उधर किसी न किसी से उलझ लेता, तब डरता नहीं था, अब सोच कर डर लगता है। ...

रात है अँधेरा है हम हैं जी हाँ हम हैं

हम हैं पहले उन्होंने कहा - भ्रम है तुम्हें, हार तुम्हारी होगी आसपास थी वीरानी फैल रही अनमने से उसे जगह दे रहे बचे खुचे झूमते पेड़ हम देर तक नाचते चलते चले पेड़ों की ओर वे आए अट्टहास करते हुए बोले देखते नहीं हार रहे हो तुम जाने क्या था नशा हमारे बढ़े हाथों को मिलते चले हाथ गीतों के लफ्जों में ऊपर चढ़ने रास्तों के पास बैठने की जगहें बनीं जहाँ रामलीला की शाम मटरगश्ती से लेकर बचपन में छिपकर बागानों से आम चुराने की कहानियाँ सुनानी थीं हमने एक दूसरे को इस बार कहा उन्होंने गहरी चिंता के साथ हार चुके तुम हार रहे हो हारोगे हारोगे एक चेहरा बचा था मुस्कराता हरेक के पास एक ही बचा था गीत समवेत हमारे स्वर उठे बिगुल बजाया किसी न किसी ने एक के बाद एक सारी रात रात है अँधेरा है हम हैं हम हैं जी हाँ हम हैं। (उत्तरार्द्ध - १९९६; प्रतिबद्ध - १९९८; क्या संबंध था सड़क का उड़ान से - १९९५)

नीचे को ही ढो रहा हूँ ऊपर का धोखा देते हुए

क्या महज संपादित हूँ अगर चढ़ रहा हूँ ऊँचाई पर तो कभी नीचे रहा हूँगा झाँक कर देखूँ वह क्या था जो नीचे था क्या सचमुच आ गया हूँ ऊपर या जैसे घूमते सपाट ज़मीं पर किसी परिधि पर वैसे ही किसी और गोलक के चक्कर काट रहा हूँ क्या महज संपादित हूँ या सचमुच बेहतर लिखा गया हूँ जो अप्रिय था उसे छोड़ आया हूँ कहीं झाड़ियों में या दहन हो चुका अवांछित , साधना और तपस में ऊपर से दिखता है नीचे का विस्तार बौने पौधे हैं ऊपर छाया नहीं मिलती जब तीखी हो धूप नीचे समय की क्रूरता है हर सुंदर है गुजर जाता एकदिन ऊपर अवलोकन की पीड़ संगीत में दिव्यता ; गूँज , परिष्कार हवा नहीं हैं विकार ऊपर कब तक है ऊपर एकदिन ऊपर भी दिखता है नीचे जैसा बची खुची चाहत सँजोए फिर चढ़ने लगता हूँ कहीं और ऊपर जानते हुए भी कि कुछ भी नहीं छूटा सचमुच नीचे को ही ढो रहा हूँ ऊपर का धोखा देते हुए।   - साक्षात्कार ( अक्तूबर 2008)

कहिए कि क्या बात है

शिकायत आनी ही थी कि रीलैक्स यार, बहुत सीरियसली ले रहे हो ज़िंदगी को। अब क्या करें दोस्तो कि क्या कहिए कि क्या बात है। यह बेकार सी ग़ज़ल लिखी थी कोई आठ महीने पहले। लो भाई, रीलैक्स! रोशनी में दिखती हर चीज़ साफ है, पर कहने को बात होती इक रात है सुध में जुबां चलती लगातार है, जरा सी पी ली तो कहिए कि क्या बात है इसकी सुनी उसकी सुनी सबकी सुनी, दिन भर सुनी सुनाई सुनते रहे दिन भर दिल यह कहता रहा कि कुछ तुम्हारी भी सुनें कि क्या बात है मिलता ही रहा हूँ हर दिन तुमसे, कैसी आज की भी इक मुलाकात है क्या दर्ज़ करूँ क्या अर्ज़ करुँ, ऐ मिरे दोस्त क्या कहूँ कि क्या बात है मुफलिसी से परेशां हम हैं सही, अब देखो कि यह घनी बरसात है कुछ तो चूएगा पानी छत से, कुछ आँखों से कहो कि क्या बात है बहुत हुआ दिन भर की सियासत दिन भर दौड़धूप, अब तो रात है अब मैं, तुम, शायर मिजाज़ शब-ए-ग़म, अब कहिए कि क्या बात है दोस्तों को लग चुका है पता कि हम भी क्या बला क्या चीज़ हैं कमाल लाल्टू कि ज़हीन इतने, कहते कि क्या बात है क्या बात है।

एक बूँद ही सही

समय गुजरता रहता है। हर दिन कोई घटना होती है, हर दिन मन करता है नया चिट्ठा पोस्ट करें। पर कर नहीं पाता। शाम थकान लिए आती है, फिर लगता है कुछ भी तो किया नहीं दिन भर, ब्लॉग लिख ही लेते। पिछले दिनों छात्रों की एक सभा में इस पर बात हुई कि उनके वार्षिक उत्सव में आयोजन कैसा रहा और आगे के छात्रों को इस बारे में क्या सोचना है। आम बात है, हर साल ही इस तरह की सभा होती है। पर इस बार अनोखी बात यह हुई कि कुछ बड़ी उम्र के स्नातकोत्तर छात्रों ने आखिर में कुछ बातें कहीं, जिनको लेकर मैं देर तक सोचता रहा। एक बात यह थी कि लड़कियाँ 'अधनंगी (जहाँ तक याद है, हाफ नेकेड कहा गया था) होकर अध्यापकों या माँ-बाप के सामने कैसे आती हैं? बाद में वरिष्ठ साथी अध्यापक से बात हुई तो उसका भी कहना था कि नहीं मैं अपनी बेटी को तो इस तरह परेड करते नहीं देख सकता। मैंने सोचा कि सचमुच मेरी बेटी भी ऐसी स्थिति में हो तो मुझे भी परेशानी होगी। पर परेशानी का कारण मेरे लिए दूसरों से अलग है। मुझे चिंता है कि अक्सर लड़कियों के पहनावे या उनकी साज-सज्जा को उनके प्रति हिंसक रवैए की वजह मान लिया जाता है। आखिर जीना तो है। पर यही अगर सही क...