Sunday, December 24, 2006

कद्दूपटाख

अफलातून की ओर से सबको बड़े दिन का यह उपहार:

कद्दूपटाख

कद्दूपटाख

(अगर) कद्दूपटाख नाचे-
खबरदार कोई न आए अस्तबल के पाछे
दाएँ न देखे, बाएँ न देखे, न नीचे ऊपर झाँके;
टाँगें चारों रखे रहो मूली-झाड़ पे लटका-के!

(अगर) कद्दूपटाख रोए-
खबरदार! खबरदार! कोई न छत पे बैठे;
ओढ़ कंबल ओढ़ रजाई पल्टो मचान पे लेटे;
सुर बेहाग में गाओ केवल "राधे कृष्ण राधे!"

(अगर) कद्दूपटाख हँसे-
खड़े रहो एक टाँग पर रसोई के आसे-पासे;
फूटी आवाज फारसी बोलो हर साँस फिसफासे;
लेटे रहो घास पे रख तीन पहर उपवासे!

(अगर) कद्दूपटाख दौड़े-
हर कोई हड़बड़ा के खिड़की पे जा चढ़े;
घोल लाल रंग हुक्कापानी होंठ गाल पे मढ़े;
गल्ती से भी आस्मान न कतई कोई देखे!

(अगर) कद्दूपटाख बुलाए-
हर कोई मल काई बदन पे गमले पे चढ़ जाए;
तले साग को चाट के मरहम माथे पे मले जाए;
सख्त ईंट का गर्म झमझम नाक पे घिसे जाए!

मान बकवास इन बातों को जो नज़रअंदाज करे;
कद्दूपटाख जान जाए तो फिर हरजाना भरे;
तब देखना कौन सी बात कैसे फलती जाए;
फिर न कहना, बात मेरी अभी सुनी जाए।


इस कविता का अनुवाद सही हुआ नहीं था, इसलिए 'अगड़म बगड़म' में यह शामिल नहीं है। नानसेंस (बेतुकी) कविता संस्कृति सापेक्ष होती है और स्थानीय भाषा के प्रयोगों पर आधारित होती है। चूँकि हिन्दी क्षेत्रोंं में कई भाषाएँ प्रचलित हैं, ऐसा अनुवाद जो हर क्षेत्र में सही जम जाए, बहुत कठिन है। सुकुमार राय की मूल रचना में कई शब्द ऐसे हैं, जिनका न केवल सही अनुवाद ढूँढना मुश्किल है, उनसे मिलते जुलते शब्द भिन्न इलाकों में भिन्न हैं। पहले अनुच्छेद में 'मूली' दरअसल 'हट्टमूली' है, जिसे शायद जंगली मूली कहना ठीक होगा। इसी तरह 'लाल रंग' मूल रचना में 'आल्ता' है, जिसे प्रत्यक्षा या बिहार के लोग समझ जाएँगे, पर दूसरे इलाकों के लोग नहीं। बहरहाल, अगर सुनील को जँचे तो इसे कम से कम नेट पर तो डाला ही जा सकता है। इधर सुनील दस तारीख को बंगलौर आए थे, तब से उनका चिट्ठा लेखन बंद पड़ा है। जरा फिक्र हो रही है, सब ठीक तो है न!
मैं अपने नए मकान में आने के बाद से सुबह के ध्वनि प्रदूषण से दूर हूँ। लंबे समय के बाद पिछवाड़े में छोटा सा जंगल होने की वजह से सुबह चिड़ियों की आवाज सुन पाता हूँ।

Thursday, December 21, 2006

लाल्टू डॉट जेपीजी


लो भई अफलातून, तुम्हारी तस्वीर। मतलब मेरी। जिसने स्कैन किया, उसने फाइल का नाम रखा, लाल्टू डॉट जेपीजी। बड़ी मेहनत करनी पड़ी इसे अपलोड करने में। पता नहीं क्या माजरा है, ब्लॉगस्पॉट के पेजेस खुलना ही नहीं चाहते। जब खुलते हैं तो जाने कौन सी भाषा खुलती है, जो रामगरुड़ की समझ से बाहर है। लगता है सभी पन्नों पर काम चल रहा है।
ये लो, अपलोड होते होते रुक गया। अरे भई, रात हो गई, अभी अभी नए मकान में शिफ्ट किया है, अब जल्दी करो और सोने दो।
Ah! Finally...
साइनबोर्ड पर लिखा है - हँसना मना है।

Tuesday, December 19, 2006

रामगरुड़ का छौना

अफलातून ने देखा कि अच्छा मौका है, ये लाल्टू रोता रहता है, इसकी खिंचाई कर ली जाए। तो कह दिया कि 'रामगरुड़ेर छाना' का अनुवाद भी लाइए। तो लो भई, पढ़ो और खूब खींचो मेरी टाँग:- पर हँसना मना है!

रामगरुड़ का छौना

रामगरुड़ का छौना, हँसना उसको म-अ-ना
हँसने कहो तो कहता
"हँसूँगा न-ना, ना-ना,"

परेशान हमेशा, कोई कहीं क्या हँसा!
एक आँख से छिपा-छिपा
यही देखता फँसा

नींद नहीं आँखों में, खुद ही बातों-बातों में
कहता खुद से, "गर हँसे
पीटूँगा मैं आ तुम्हें!"

कभी न जाता जंगल न कूदे बरगद पीपल
दखिनी हवा की गुदगुदी
कहीं लाए न हँसी अमंगल

शांति नहीं मन में मेघों के कण-कण में
हँसी की भाप उफन रही
सुनता वह हर क्षण में!

झाड़ियों के किनार रात अंधकार
जुगनू चमके रोशनी दमके
हँसी की आए पुकार

हँस हँस के जो खत्म हो गए सो
रामगरुड़ को होती पीड़
समझते क्यों नहीं वो?

रामगरुड़ का घर धमकियों से तर
हँसी की हवा न घुसे वहाँ
हँसते जाना मना वहाँ।

(अगड़म-बगड़म; सुकुमार राय के 'आबोल-ताबोल' की कविताओं का अनुवाद; १९८९)

मेरे अनूदित संग्रह में सुकुमार राय द्वारा अंकित रामगरुड़ की तस्वीर है, पर मुझे स्कैन करने के लिए दो मंज़िल नीचे उतरना पड़ेगा। एक बार गया भी तो कोई और लोग इस्तेमाल कर रहे थे। नेट पर तस्वीर मिल नहीं रही है। चलो बाद में लगा देंगे। वैसे अफलातून शायद मेरी तस्वीर को ही रामगरुड़ मनवाना चाहे....
जिनको पता न हो, वे जान लें कि सुकुमार राय प्रसिद्ध फिल्म निर्माता/निर्देशक सत्यजित राय के पिता थे। बांग्ला संस्कृति और मानस पर उनकी अमिट छाप है। उनके बारे में यहाँ देखें।

Sunday, December 17, 2006

खिचड़ी





खिचड़ी



बत्तख था, साही भी, (व्याकरण को गोली मार)
बन गए बत्ताही जी, कौन जाने कैसे यार!

बगुला कहे कछुए से, "बल्ले-बल्ले मस्ती
कैसी बढ़िया चले रे, बगुछुआ दोस्ती!"

तोतामुँही छिपकली, बड़ी मुसीबत यार
कीड़े छोड माँग न बैठे, मिर्ची का आहार!


छुपी रुस्तम बकरी, चाल चली आखिर
बिच्छू की गर्दन जा चढ़ी, धड़ से मिला सिर!

जिराफ कहे साफ, न घूमूँ मैदानों में
टिड्डा लगे भला उसे, खोया है उड़ानों में!

गाय सोचे - ले ली ये कैसी बीमारी
पीछे पड़ गई मेरे कैसे मुर्गे की सवारी!

हाथील का हाल देखो, ह्वेल माँगे बहती धार
हाथी कहे - "जंगल का टेम है यार!"

बब्बर शेर बेचारा, सींग नहीं थे उसके
मिल गया जो हिरण, सींग आए सिर पे!

-सुकुमार राय
('आबोल ताबोल' की बीस कविताओं का अनुवाद
'अगड़म बगड़म' संभावना प्रकाशन, १९८९)
तस्वीरें सुकुमार राय की खुद की बनाई हैं।

Saturday, December 16, 2006

मकान बदलना है।

संस्थान के अपने मकान अभी कम हैं, आगे बनने वाले हैं।

जुलाई में सामान ले आया तो जल्दी में मकान चाहिए था।

हड़बड़ी में दो बेडरुम वाला मकान लिया। भारत सरकार ने कर्मचारियों के लिए हाउसिंग कॉम्प्लेक्स बनाए हैं, कर्मचारी मकान खरीद कर किराए पर देते हैं। जिस व्यक्ति का मकान है, वह करनाल में कृषि अनुसंधान परिषद के संस्थान में वैज्ञानिक है। उसके स्थानीय मित्र के हाथ मकान था। जिसने पता दिया उसने बतलाया कि सात हजार महीने के लगेंगे। मैंने कहा देंगे। पता चला कि साहब आनाकानी कर रहे हैं। अपने संस्थान के प्रशासनिक अफ्सर रमाना जी ने बातचीत की। पता चला साढ़े सात माँग रहे हैं। मैंने कहा चलो ठीक है। १२ जुलाई को सुबह सामान पहुँच रहा था, ग्यारह बजे चाभी का तय हुआ। सामान पहुँच गया, पर चाभी नहीं। चार बजे जनाब आए और कहा कि आठ चाहिए। रमाना ने फिर बात की औेर पौने आठ पर चाभी मिल गई। दो महीने का अडवांस और जुलाई के बारह दिनों के पैसे। साथ में जो एजेंट था, उसने अपनी फीस के लिए एक महीने का किराया माँगा। सबको नगद चाहिए। सुबह ट्रक वालों को बीस हजार दे चुका था - पता नहीं कैसे कैसे दो ए टी एम का इस्तेमाल कर पैसे दिए। हजार कम पड़ गए तो रमाना ने दे दिए।

रमाना ने बात की कि मसौदा बना कर कापी दी जाए। जनाब बोले ठीक है। फिर कहा कि कुछ लकड़ी का काम बाकी है, वह पूरा करना है। मैंने कहा चलो दो दिन और गेस्ट हाउस सही।

हफ्ता हो गया पर कोई काम नहीं हुआ। आखिर हम मकान में आ ही गए। न कपड़े लटकाने का इंतज़ाम, एक बाथरुम में पानी की टोंटी नहीं। बात की कि मैं लगवा रहा हूँ, किराए से काट लेंगे। महीने के अंत में जनाब पहुँचे और मैं भूल चुका था कि हजार जो कम पड़ गए थे रमाना ने दे दिए थे, मैंने पानी की टोंटी के पैसों का हिसाब कर हजार में से बाकी पैसे दे दिए। जनाब कह गए कि पहली को करनाल में कार्यरत असली मालिक के बैंक अकाउंट में किराया जमा कर दूँ। मसौदा बना कर लाए थे, मेरे हस्ताक्षर ले गए, पर कापी बाद में देने का वायदा कर गए। मैंने कहा कि भई कपड़े लटकाने का इंतज़ाम तो कर दो और बाकी जो लकड़ी का काम था - सब होगा कहकर जनाब दफा।

तो अगस्त में, सितंबर में किराया जमा किया। फोन पर बात की तो जनाब ने कहा कि दशहरे में मालिक आ रहे हैं, सब काम करवा देंगे। मैंने कहा चलो तभी हो जाएगा। मालिक पहुँचे नहीं। मुझे लगा कि लोग जितने गड़बड़ मैं सोच रहा हूँ उससे ज्यादा ही हैं। फिर ध्यान आया कि कोई रसीद नहीं दी। आखिर मैंने तय किया कि मकान बदला जाए। दो महीनों का अग्रिम तो भरा ही हुआ था, अक्तूबर की पहली को पैसे जमा नहीं किए। पंद्रह दिनों तक दूसरी ओर से भी कोई आवाज नहीं। आखिर मैंने ही फोन किया। पता चला मालिक आए- गाँव गए और वापस करनाल। मैंने कहा कि भई मैं तो किराया नहीं दे पा रहा हूँ - कुछ तो बतलाओ मैं खुद ही काम करवा लूँ? बीसेक तारीख तक मालिक का करनाल फून नंबर हासिल किया। घुमाया। कोऊ नहीं उठा रहा। दो चार बार करके थक गया। घंटे बाद अपना फोन बजा। करनाल के मालिक ने बतलाया कि वो नहा रहे हैं। मैंने फरमाया दस मिनटों में संवाद करेंगे। आस निरास भई। दस मिनटों से लेकर जाने कब तक हम लगे रहे। मालिक क्रिंग क्रिंग।

तब तक संस्थान में बात होने लगी कि कुछ मकान लीज़ पर लेकर प्रोफेसरान को दिए जाएँ। आशा का सबेरा!

मैंने तय कर लिया कि अब तो अडवांस ही चलेगा। आखिर करनाल वासी प्रभावित हुए। मैं फून से ई-मेल पर ले आया। जनाब मान गए कि लकड़ी का कुछ काम हम करवा लें और किराए से काट लें। तगादा शुरू कि भई किराया भरो। मैंने अपनी ईमानदारी की दुहाई दी, बतलाया कि करनाल शहर में पुलिस विभाग के प्रबंधन में चल रहे पाश पुस्तकालय में लोग हैं जो मेरी ईमानदारी का प्रमाण-पत्र दे देंगे। बंदे ने कहा कि सैंतीस का हूँ पर मैंने दुनिया देखी है। मैंने जितना पैसा दे चुके उसकी रसीद माँगी। सरकारी कर्मचारी को रसीद का क्या डर? पर है, रसीद का मतलब है आय कर। मेरी मुसीबत यह कि मैं रसीद न लूँ तो किराया भत्ते से मुझे आय कर देना पड़ेगा। मालिक आय कर क्यूँ दे? बहुत सोचकर पत्नी के नाम पर रसीद भेज दी। तगादा जारी कि भई किराया भरो। मैंने सच बतला दिया कि संस्थान मकान लीज़ पर लेने की सोच रहा है। मैं शायद साल के आखिर तक मकान खाली कर दूँगा, पंद्रह दिनों की नोटिस दे दूँगा। मालिक को तो आग लग गई। तब से ई-मेल खोलते ही मुझे हानिकारक विकिरण का खतरा दिखने लगा। अंततः मैंने लिख दिया कि करनैली मालिक, आखिरी ई-मेल पढ़ लो, तमीज़ का कोई कोर्स ले लो (यानी, ऐेसा ही कुछ)।

आखिर बीस नवंबर को एक महीने की नोटिस के साथ दिसंबर के बीस दिनों का किराया जमा कर दिया। मालिक को बड़ी तकलीफ है, कि बीस दिनों का क्यों, पूरे महीने का क्यों नहीं? इसी बीच एक दिन रमाना जी ने संकोच के साथ वो हजार रुपए माँगे, जो कि अपने तईं मैं पानी की टोंटी के पैसों का हिसाब कर बाकी जनाब को दान दे चुका था।

तो दोस्तों, यह थी कहानी मेरे अगले बुधवार को मकान बदलने की। मुझे डर है कि आने वाले दिन भी इतने ही रंगीन होंगे जितने गुजरे हुए हैं। आगामी मालिक ने चेक से पेमेंट लेने से इंकार कर दिया है। यानी नगदी में कारोबार। पिछले दो महीनों से अयप्पा स्वामी की स्तुति में कुछ भक्तों ने सुबह सुबह ध्वनि प्रदूषण के ऐसे रेकार्ड तोड़े हैं कि मैं अधीरता से मकान बदलने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

हाल में जीवन विद्या शिविर में सवाल उठा कि पश्चिम के लोग उन गड्ढों में जा ही चुके हैं, जिनमें हम जा रहे हैं, तो मैंने प्रतिवाद किया। सच है कि पश्चिमी मुल्कों में बड़े चोर बड़े हैं, पर मध्य वर्ग की बेईमानी और बदतमीज़ी में हमारे सामने उनकी क्या बिसात!

अंजान भाई का भारत महान है।

Friday, December 15, 2006

अश्लील

उच्चतम न्यायालय ने राय दी है कि नग्नता अपने आप में अश्लील नहीं है।

यह एक महत्त्वपूर्ण राय है, खासकर हमारे जैसे मुल्क में जहाँ अश्लील कहकर कला और व्यक्ति स्वातंत्र्य का गला घोंटने वाले दर दर मिलते हैं और जो सचमुच अश्लील है उसे सरेआम बढ़ावा मिलता है।

इस प्रसंग में यह कविता याद आ गई।



अश्लील


एक आदमी होने का मतलब क्या है
एक चींटी या कुत्ता होने का मतलब क्या है
एक भिखारी कुत्तों को रोटी फेंककर हँसता है
मैथुन की दौड़ छोड़ कुत्ते रोटी के लिए
दाँत निकालते हैं

एक अखबार है जिसमें लिखा है
एक वेश्या का बलात्कार हुआ है
एक शब्द है बलात्कार जो बहुत अश्लील है
बर्बर या असभ्य आचरण जैसे शब्दों में
वह सच नहीं
जो बलात्कार शब्द में है

एक अंग्रेज़ी में लिखने वाला आदमी है
तर्कशील अंग्रेज़ी में लिखता है
कि वेश्यावृत्ति एक ज़रुरी चीज है

उस आदमी के लिखते ही
अंग्रेज़ी सबसे अधिक अश्लील भाषा बन जाती है

(पश्यंतीः - अक्तूबर-दिसंबर २०००)

इस कविता के बारे में लिखते हुए याद आया कि इसका पहला ड्राफ्ट कोई दस साल पहले संघीय लोक सेवा आयोग के गेस्ट हाउस में बैठकर लिखा था। प्रशासन के साथ जब जब भी जुड़ा हूँ, कहीं कुछ अश्लील कर रहा हूँ, ऐसा क्यों लगता है! खासकर दिल्ली के आसपास। बहरहाल...........