Skip to main content

Posts

Showing posts from October, 2006

सालगिरह

कल चेतन ने याद दिलाया कि मेरे ब्लॉग की सालगिरह है। संयोग से मनःस्थिति ऐसी है नहीं कि खीर पकाऊँ। फिर भी ब्लॉग तो कुछ लिखा जाना ही चाहिए। तकरीबन पचास हो चले अपने जीवन में अगर पाँच सबसे महत्त्वपूर्ण साल गिनने हों, तो यह एक साल उनमें होगा। बड़े तूफान आए, पर जैसा कि सुनील ने एक निजी मेल में दिलासा देते हुए लिखा था,टूटा नहीं, हँसता खेलता रहा। यहाँ तक कि चिट्ठा जगत में जान-अंजान भाइयों/बहनों के साथ ठिठौली भी की। चिट्ठे लिखने में नियमितता नहीं रही, पर कुछ न कुछ चलता रहा। मैंने पहले एकबार कभी लिखा था कि हमारे लिए चिट्ठा जगत में घुसपैठ अपने मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने की कोशिश मात्र है। पर साथ में थोड़े से हिंदी चिट्ठों की दुनिया में एक और चिट्ठा भी जुड़ गया, यह खुशी अलग। कुछ तो बात बनती ही होगी, नहीं तो समय समय पर मिलने वाली नाराज़गी क्योंकर होती। साल भर पहले जब मैंने हिंदी चिट्ठा लिखना शुरु किया तो दीवाली के पहले विस्फोट, धोनी की धुनाई, साहित्यिक दुनिया में थोड़ी बहुत चहलकदमी, कुछ विज्ञान और कुछ विज्ञान का दर्शन आदि विषयों पर लिखा, लोगबाग टिप्पणी करते और एक दो बार मैं भी बहस में शामिल रहा...

भैया ज़िंदाबाद

भैया ज़िंदाबाद आ गया त्यौहार फैल गई रोशनी बड़कू ने रंग दी दीवार लिख दिया बड़े अक्षरों में अब से हर रात फैलेगी रोशनी दूर अब अंधकार हर दिन है त्यौहार छुटकी ने देखा धीरे से कहा अब्बू पीटेंगे भैया हुआ भी यही मार पड़ी बड़कू को छुटकी ने देखा धीरे से कहा मैं बदला लूँगी भैया फिर सुबह आई नये सूरज नई एक दीवार ने दिया नया विश्व सबको दीवार खड़ी थी अक्षरों को ढोती भैया ज़िंदाबाद। - चकमक (१९८७), एक झील थी बर्फ की (१९९०), भैया ज़िंदाबाद (१९९२)।

हाँ भई प्रियंकर, मैं वही हूँ।

हाँ भई प्रियंकर , मैं वही हूँ। पोखरन १९९८ (१) बहुत दिनों के बाद याद नहीं रहेगा कि आज बिजली गई सुबह सुबह गर्मी का वर्त्तमान और कुछ दिनों पहले के नाभिकीय विस्फोटों की तकलीफ के अकेलेपन में और भी अकेलापन चाह रहा आज की तारीख आगे पीछे की घटनाओं से याद रखी जाएगी धरती पर पास ही कहीं जंग का माहौल है एक प्रधानमंत्री संसद में चिल्ला रहा है कहीं कोई तनाव नहीं वे पहले आस्तीनें चढ़ा रहे थे आज कहते हैं कि चारों ओर शांति है डरी डरी आँखें पूछती हैं इतनी गर्मी पोखरन की वजह से तो नहीं गर्मी पोखरन की वजह से नहीं होती पोखरन तो टूटे हुए सौ मकानों और वहाँ से बेघर लोगों का नाम है उनको गर्मी दिखलाने का हक नहीं अकेलेपन की चाहत में बच्ची बनना चाहता हूँ जिसने विस्फोटों की खबरें सुनीं और गुड़िया के साथ खेलने में मग्न हो गई (२) गर्म हवाओं में उठती बैठती वह कीड़े चुगती है बच्चे उसकी गंध पाते ही लाल लाल मुँह खोले चीं चीं चिल्लाते हैं अपनी चोंच नन्हीं चोंचों के बीच डाल डाल वह खिलाती है उन्हें चोंच-चोंच उनके थूक में बहती अखिल ब्रह्मांड की गतिकी आश्वस्त हूँ कि बच्चों को उन...