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Showing posts from February, 2006

फिर वहीं। या यहीं।

इस बीच फिर उत्तरी हवाओं को सलाम कह आया। एक दिन के लिए जे एन यू गया था। वहाँ से चंडीगढ़। एक दिन सबसे तो नहीं दो चार से मिलकर अगली सुबह दिल्ली। दिल्ली में प्लैटफार्म पर रवीन्द्र सिवाच जो रसायन और कविता दोनों में मेरा पुराना शागिर्द रहा है, उसे आना था। आया नहीं। मोबाइल बजाने की कोशिश की तो नो नेटवर्क कवरेज। हैदराबाद लौटने तक नो कवरेज ही रहा। पता नहीं लोग कैसे निजीकरण के गुण गाते हैं। इन ठगों ने तो मुझे नियमित रुलाने का ठेका ही लिया हुआ है। बहरहाल, थोड़ी देर तक रवीन्द्र नहीं पहुँचा तो याद आया कि उसने कहा था कि स्टेशन के पास ही क्रिकेट खेलना है। तो भाई एक तो दिल्ली दिल्ली, ऊपर से क्रिकेट, लाजिम है कि नेटवर्क का कवरेज होगा नहीं। प्लैटफार्म से बाहर आकर मित्र ओम को फोन किया और उनके घर डेरा जमाने की घोषणा तय कर दी। पुराने स्नेही हैं, उनसे पारिवारिक संबंध रहा है। एक जमाने में चंडीगढ़ में अखबार के रेसीडेंट एडीटर होकर आए थे। मुझसे ऐसे लेख लिखवाए थे जो आज तक लोग याद रखते हैं। आजकल मुख्य संपादक हैं। तो नेटवर्क न होने से दो ही रुपए में इतना अच्छा निर्णय लिया, नहीं तो रोमिंग के खासे लग जाते। प्री प...

यातना

लिखूँ तो क्या लिखूँ। लंबे समय से सब कुछ ही गोलमाल लगता रहा है। जो ठीक लगता है, वह ठीक है क्या? जो गलत वह गलत? शायद ऐसे ही समय में ईश्वर जन्म लेता है। ******************* यातना तालस्ताय ने सौ साल पहले भोगा था यह अहसास जो बहुत दूर हैं उनसे प्यार नहीं है दूर देशों में बर्फानी तूफानों में सदियों पुराने पुलों की आत्माएँ आग की बाढ़ में कूदतीं निष्क्रिय हम चमकते पर्दों पर देखते मिहिरकुल का नाच जो बहुत करीब हैं उनसे नफरत करीब के लोगों को देखना है खुद को देखना इतनी बड़ी यातना जीने की वजह है दरअसल जो बीचोंबीच बस उन्हीं के लिए है प्यार भीड़ में कुरेद कुरेद अपनी राह बनाते ढूँढते हैं बीच के उन लोगों को जो कहीं नहीं हैं समूची दुनिया से प्यार न कर पाने की यातना जब होती तीव्र उगता है ईश्वर उगती दया उन सबके लिए जिन्हें यह यातना अँधेरे की ओर ले जा रही है हमारे साथ रोता है ईश्वर खुद को मुआफ करता हुआ। (पश्यंती; अप्रैल-जून २००१) ********************************* फिर दिल्ली दस दिन पहले क्या हुआ ऐक्सीडेंट हुआ कैसे मोबाइल पकड़े लड़की डिवाइडर से उतरी और ऐेन ...

आकांक्षा

मन हो इतना कुशल गढ़ने न हों कृत्रिम अमूर्त्त कथानक चढ़ना उतरना बहना होना हँसना रोना इसलिए कि ऐसा जीवन हो इतना चंचल गुजर तो फूटे हँसी की धार हर दो आँख कल कल डर तो डरे जो कुछ भी जड़ प्रहरियों की सुरक्षा में भी डरे अकड़ खिल हर दूसरा खिले साथ बढ़ बढ़े हर प्रेमी की नाक हर बात की बात बढ़े हर जन ऐसा ही बन कुछ बनना ही है तो ऐसा ही बन। (अक्षर पर्व २००?)

जैसे मशीन बिगड़ैल

' हंस' पत्रिका के फरवरी अंक में अर्चना वर्मा ने संपादकीय में नारी-पुरुष संबंधों के संदर्भ में सांस्कृतिक हस्तक्षेप, खास तौर पर आधुनिक समय और बदलते मूल्यों को लेकर सारगर्भित संपादकीय लिखा है। उनकी टिप्पणी कि प्रकृति को ढकने से ही संस्कृति के पाखंड की शुरुआत होती है, मुझे अच्छी लगी। मैं अरसे से दोस्तों मित्रों को कहता रहा हूँ कि मानव मस्तिष्क ने जिन आत्मघाती विचारों और उपकरणों की ईजाद की है, व्यक्ति के स्तर पर उनमें सबसे प्रभावी हैं विवाह और कपड़े। दोस्तों को मेरी टेढ़ी नाक का पता है तो वे मेरी बात सुन हँस देते हैं, पर मैं इस बारे में काफी गंभीर हूँ। मेरा मतलब विशेष संदर्भों के साथ जुड़ा है ओर उनसे अलग हट कर मुझे समझा नहीं जा सकता। अगर कपड़ों के आविष्कार को ठंड की मार या मच्छरों से बचने के लिए माना जाए, तो अलग बात है। मैं उस कपड़े की बात करता हूँ जिसके बारे में अर्चना जी की बात है, जो नग्नता ढकने के लिए हैं। ब्लॉग में विस्तार से लिखना मुश्किल है, टंकन के लिए समय नहीं है। नग्नता को लेकर इतनी बेवजह की कुंठाएँ मानव मन में इकट्ठी हो गई हैं, सोच कर अजीब लगता है कि वह दुनिया भी कैसी...

शब्द हरा पत्ता है

शब्द हरा पत्ता है कविता पत्तों टहनियों की इमारत पत्ते में क्लोरोफिल क्लोरोफिल में मैग्नीशियम मैग्नीशियम में भरा खाली आस्माँ। पत्ते के बाकी कणों में भी मँडरा रहा शून्य शून्य भरता खालीपन जैसे खालीपन से बनता शून्य। कदाचित घुमक्कड़ विद्युत कण खेलते आपसी पसंद नापसंद का अनिश्चित खेल। कण में नाभि नाभि में कण कणों में जीवन देखते ही देखते टहनियाँ, हरे पत्ते, उफ्! कविता का संसार! (२००४)

कविता

जैसे ज़मीन निष्ठुर। अनंत गह्वरों से लहू लुहान लौटते हो और ज़मीन कहती देखो चोटी पर गुलाब। जैसे हवा निष्ठुर। सीने को तार-तार कर हवा कहती मैं कवि की कल्पना। जैसे आस्मान निष्ठुर। दिन भर उसकी आग पी और आस्मान कहता देखो नीला मेरा प्यार। निष्ठुर कविता। तुमने शब्दों की सुरंगें बिछाईं, कविता कहती मैं वेदना, संवेदना, पर नहीं गीतिका। शब्द नहीं, शब्दों की निष्ठुरता, उदासीनता। (साक्षात्कार- मार्च १९९७)

हे गति के अखिल नियम............

हे गति के अखिल नियम............ मेरे पहले पाँच दिन यहाँ ऐसे गुजरे कि जैसे सदियों की थकान खत्म हो गई। ट्रेन में मुझे बिल्कुल सामने दो बर्थ वाले कूपे में ही जगह मिल गई और दूसरा बर्थ खाली था। इसलिए यात्रा बड़ी बोरिंग रही। कुछ विज्ञान और कुछ 'हंस' का जनवरी अंक पढ़ता रहा। खिड़की से अधिकतर समय कुछ दिखता नहीं था। जितना देखा, वह सतपुड़ा के जंगलों का नजारा था। जब भी इधर से गुजरा हूँ, आँखों से इस परिवेश को जी भर भर के पीने की कोशिश की है। सुनील की तरह अच्छा डिजिटल कैमरा होता भी तो भी बतला नहीं पाता कि यहाँ कि जमीन और हरियाली मुझे कितनी भाती है। यहाँ आया तो पहली फैकल्टी मीटिंग में आधा वक्त इस बात पर चर्चा हुई कि जीवन विद्या शिविर में क्या क्या हुआ और छात्रों की बातें क्या क्या थीं वगैरह। यह बड़ा अद्भुत अनुभव था कि खुद संस्थान निर्देशक इस शिविर में भाग लेकर अपने अनुभव सुना रहे थे। पंजाब विश्वविद्यालय में दुपहियों में आने वाला हर कोई कैंपस में घुसते ही हेलमेट उतार देता है। यहाँ बाहर हाईवे पर बिना हेलमेट आप स्कूटर चला सकते हैं, पर अंदर सख्ती है कि हेलमेट पहनना होगा। वैसे तो यह एक प्रती...

मैं

कितना छिपा कितना उजागर इसी उलझन में मग्न। कुछ यह कुछ वह हर किसी को चाहिए एक अंश मेरा कुछ उदास कुछ सुहास कुछ बीता कुछ अभी आसन्न। सच मैं वही अराजक तुम्हारी कामना वही अबंध तुम्हारा ढूँढना कुछ सुंदर कुछ असुंदर कुछ वही संक्रमण लग्न। (५ अक्तूबर २००२)

हर कोई

हर किसी की ज़िंदगी में आता है ऐसा वक्त उठते ही एक सुबह पिछले कई महीनों की प्रबल आशंका संभावनाओं के सभी हिसाब किताब गड्डमड्ड कर साल की सबसे सर्द भोर जैसी दरवाजे पर खड़ी होती है तब हर कोई जानता है ऐसा हमेशा से तय था फिर भी कल तक उसकी संभावनाओं के बारे में सोचते रह सकने का हर कोई शुक्रिया अदा करता है उस अनिश्चितता का जो बिना किसी बयान के होती चिरंतन फिर हर कोई होता है तैयार सड़क पर निकलते ही 'ओफ्फो! बहुत गलत हुआ' सुनने को या होता विक्षिप्त उछालता इधर उधर पड़े पत्थरों को या अकेले में बैठ चाह सकता है किसी की गोद में आँखें छिपा फफक फफक कर रोना हर कोई गुजरता है इस वक्त से अपनी तरह और कभी डूबते सूरज के साथ लौटा देता है वक्त उसी समुद्र को फेंका जिसने इसे पुच्छल तारे सा हर किसी के जीवन में। (१९९४; इतवारी पत्रिका-१९९७)

दिल्ली आखिर दिल्ली ठहरा

बाय बाय चंडीगढ़ जब शाना ढाई साल की थी, उसे दूसरी बार अमरीका ले जाना पड़ा। त्सूरिख़ (ज़ूरिख़) में जहाज बदलना था। शाना क्रेयॉन्स रगड़ कर अपना संसार बनाने में व्यस्त थी। मैंने बतलाया कि त्सूरिख़ आ गया। अचानक ही वह जोर से चिल्ला उठी - बाय बाय इंडिया। आस पास के सभी लोग जोर से हँस पड़े। मैं चंडीगढ़ को पहले भी एक दो बार बाय बाय कह चुका हूँ। पर बाद में वापस आ ही गए। इसलिए इस बार ऐसी हिमाकत न करुँगा। आने के पहले मैंने तो क्या अलविदा कहना था, मित्रों ने लगभग हाय लाल्टू चल पड़ा कहते हुए अलग अलग समूहों में विदाई दी। वामपंथी या प्रगतिशील जाने जाने वाले एक ग्रुप जिनकी ओर से मैं एकबार शिक्षक संघ का सचिव और एक बार अध्यक्ष चुना गया था, उन्होंने एक बुजुर्ग साथी जो रिटायर हो रहे थे और मुझे एकसाथ विदाई दी। उत्तर भारत में औपचारिकताएँ जरा ज्यादा ही हैं। एक स्मारक (मुझे लाल रंग का चंडीगढ़ की पहचान वाला हाथ - हाँ मसिजीवी लाल हाथ), फूलों के गुलदस्ते (दो दो मिले)। फिलहाल तो सारा सामान लाया नहीं हूँ। ट्रेन से आना था तो लाल हाथ चंडीगढ़ में छूट गया है। लाल लाल्टू निकल पड़ा। क्रिटीक के साथियों ने एक दिन लंच...