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Showing posts from July, 2018

पानी बह गया है

चमक चौंधियाती चमक है ज़मीं के ऊपर। हीरे खदानों में दबे पड़े हैं। ज़मीं पर खुद को धोखा देते हम खुश हैं। पानी की चमक से मुहावरा बना कि जल जीवन है। प्याले से लेकर आँखों की तराई तक आत्मा की चमक दिखी। त्सुनामी ने अश्कों और प्यार में डूबे गीत कुचल डाले। पानी को पारदर्शी रहना है। रेगिस्तानों , बीहड़ों , दलदलों से बचते चमक बनाए रखनी है। कभी - कभार खयाल आता है कि पानी बह गया है। छलती चौंध में जिजीविषा उठती है चमक वापस लाने। पानी वापस लाने। ( वागर्थ - 2018)

इसलिए मेरे अवसाद से डरता है

आम भला आदमी तकरीबन तंदरुस्त ईमान की कमाई में सुबह शाम जुटा। सुबह मुझे पूछता है इस तरह की खबरें पढ़कर आपको अवसाद नहीं होता पूछता है मुस्कुराता है चिंतित मेरे बारे में वह पढ़ता है , जैसे ' साइंस टूडे ' पत्रिका या ' पंजाब केसरी ' अखबार। भगवान से डरता है इसलिए मेरे अवसाद से डरता है। वह जानता है कारण मीलों दूर होती हत्याओं के उसे चिंता नहीं होती अपनी पत्नी या बेटी की जिन्हें देखता मैं हर रोज खबरों में। ( दस बरस : दूसरी जिल्द -2002)

जिस्मों पर बलखाते हम

बादल ज़मीं आस्मां के बीच धूप से बतियाते हम वहाँ भी बरसते हैं जहाँ हत्याएँ हो रही हैं। मिट्टी हिन्दू - मुसलमान नहीं होती। निहतों और हत्यारों के जिस्म से बहते पानी की उत्तेजना हम राम - कृष्ण - बुद्ध और दीगर पैगंबरों पर बरसते आपस में टकराते ग़र्म ज़मीं पर ठंडक लाते। समंदर की लहरों को प्यार से चूमते। नंगे जिस्मों पर बलखाते हम। ( वागर्थ - 2018)

पत्थरों को देखकर कुछ याद आता है

ठोस बच्चे अकसर सड़क पर चलते ठोस पत्थरों को उठाकर जेब में रख लेते हैं। बचपन में पत्थरों से खेलने की याद वयस्क मन में भावनाओं का उफान लाती है। वयस्क पत्थरों को सजाकर रखते हैं। इन पत्थरों को देखकर कुछ याद आता है। खोया हुआ प्यार , भूल चुकी छुअन। यादें भोली होती हैं। जंग - लड़ाई - मार , ज़ात - मजहबों से परे। पत्थर को हाथ पर रखते हुए लगता है कि हर कोई जीवन में ठोस रिश्ते चाहता है। चुपचाप प्यार आता है ठोस। ( वागर्थ - 2018)

सचमुच ठोस वह जो हर किसी को नाज़ुक दिखता - प्यार

नाज़ुक जिस्म बड़ी नाज़ुक चीज़ है। छोटा सा छुरा चमड़ा चीर देता है और जिस्म में हर कुछ जो ठोस है धराशायी हो जाता है। फौज - पुलिस के गोली - डंडे ठोस हड्डियों को चूरमचूर कर देते हैं। विज्ञान में ठोस और द्रव का फ़र्क पढ़ते हैं , बहता तो पूरा जिस्म है। गोलियों से छलनी जिस्म में से ठोस सपने उड़ जाते हैं और किसी और नाज़ुक जिस्म में बस जाते हैं। धरती और आस्मां भी नाज़ुक हैं। खरबों साल बाद आग का गोला जो सूरज है , ठोस दिखता गैस का बवंडर खत्म हो जाएगा। आखिर में कोई नहीं जीतता , न इंसान , न आस्मां। फौज - पुलिस तो कभी नहीं जीतती। सचमुच ठोस है वह जो हर किसी को नाज़ुक दिखता है - प्यार। ( वागर्थ - 2018)