बादल
ज़मीं
आस्मां के बीच धूप से बतियाते
हम
वहाँ भी बरसते हैं जहाँ हत्याएँ
हो रही हैं। मिट्टी हिन्दू-मुसलमान
नहीं होती। निहतों और हत्यारों
के जिस्म से बहते पानी की
उत्तेजना हम
राम-कृष्ण-बुद्ध
और दीगर पैगंबरों पर बरसते
आपस
में टकराते ग़र्म ज़मीं पर ठंडक
लाते। समंदर की लहरों को प्यार
से चूमते। नंगे जिस्मों पर
बलखाते हम।
(वागर्थ
- 2018)
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