नाज़ुक
जिस्म
बड़ी नाज़ुक चीज़ है। छोटा सा
छुरा चमड़ा चीर देता है और जिस्म
में हर कुछ जो ठोस है धराशायी
हो जाता है। फौज-पुलिस
के गोली-डंडे
ठोस हड्डियों को चूरमचूर कर
देते हैं। विज्ञान में ठोस
और द्रव का फ़र्क पढ़ते हैं,
बहता
तो पूरा जिस्म है। गोलियों
से छलनी जिस्म में से ठोस सपने
उड़ जाते हैं और किसी और नाज़ुक
जिस्म में बस जाते हैं। धरती
और आस्मां भी नाज़ुक हैं।
खरबों साल बाद आग का गोला जो
सूरज है,
ठोस
दिखता गैस का बवंडर खत्म हो
जाएगा। आखिर में कोई नहीं
जीतता, न
इंसान, न
आस्मां। फौज-पुलिस
तो कभी नहीं जीतती।
सचमुच
ठोस है वह जो हर किसी को नाज़ुक
दिखता है -
प्यार।
(वागर्थ
-
2018)
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