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Showing posts from December, 2015

आज 'वाङ्चू' पढ़ते हुए

' वाङ्चू ' - आज भीष्म साहनी को कैसे पढ़ें ? ' बनास जन ' पत्रिका के भीष्म साहनी विशेषांक में प्रकाशित विश्व साहित्य में तकरीबन सभी भाषाओं में प्रवासी जीवन के अनुभव पर बहुत कुछ लिखा मिलता है। अपने परिवेश से हटकर किसी दूसरे मुल्क में जाने पर या अपने ही मुल्क में किसी ऐसे इलाके में जाने पर जहाँ रस्मो - रिवाज भिन्न हों , जैसी मुश्किलें आती हैं , इस पर पूरे विश्व - साहित्य में खूब लिखा गया है। प्रवासी भारतीय जो लंबे समय तक विदेशों में रहे हैं , उन्होंने ऐसे अनुभवों पर उपन्यास या संस्मरण लिखे हैं। भीष्म साहनी की ' वाङ्चू ' कहानी में वाचक अपने प्रवास के अनुभव की कहानी नहीं कह रहा , बल्कि वह भारत में आए ऐसे विदेशी की कथा कह रहा है , जिसे उसका अपना देश अपनाना नहीं चाहता और भारत में भी , जहाँ वह बस गया है , यहाँ भी उसके लिए जगह नहीं रहती। भीष्म साहनी की रचनाएँ अपने समय की जीवंत कथाएँ हैं। इसलिए उन की रचनाओं पर बहुत कुछ लिखा मिलता है , पर ' वाङ्चू ' पर बहुत कम ही लिखा गया है। उनकी और दीगर कहानियों , उपन्यासों में समका...

जाना और आना

पंकज सिंह मुझसे बहुत स्नेह करते थे। 2004 में दूसरा कविता संग्रह 'डायरी में तेईस अक्तूबर' आया तो इंडिया टूडे के लिए समीक्षा की थी। एक बार कोई दस साल पहले उनके घर गया था। मेरी बहुत सारी अधपकी कविताएँ छोड़ आया था। पिछली बार शायद किसी मीटिंग में मिले थे तो कह रहे थे कि उपन्यास पर काम कर रहे हैं। दूर होने की वजह से अक्सर अपने प्रिय लेखक कवियों से मिल नहीं पाता हूँ, और फिर अचानक एक दिन चले जाने की खबर आती है। बहरहाल, मेरा छठा कविता संग्रह 'कोई लकीर सच नहीं होती' वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर से आ गया है। राजेश जोशी जी ने ब्लर्ब लिखा है। आवरण में बीच का चित्र बेटी शाना का आठ साल पहले का बनाया है।

व्यवस्था के खिलाफ भी हैं और व्यवस्था के साथ भी, घोर असहायता-बोध के साथ

सापेक्ष 55 में प्रकाशित मुक्तिबोध पर कुछ खयाल:- 1. मेरी बदकिस्मती यह है कि मुझे मुक्तिबोध के जीवन के निजी पहलुओं पर जानकारी कम है। मैंने मुक्तिबोध को बड़ी उम्र में और विदेश में पढ़ा। मैं जहाँ विज्ञान - विषयक शोध कर रहा था वहाँ दक्षिण एशिया पर अध्ययन का कोई विभाग न था। मैं ढाई घंटे बस की यात्रा कर न्यूयॉर्क शहर आता और कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ रहे दोस्तों के नाम पर लाइब्रेरी से किताबें ले आता। इस तरह मुक्तिबोध पढ़ा। साथ में हिंदी साहित्य पर चर्चा करने लायक कोई न था। आलोचना में मेरी रुचि कम थी। इसलिए कविताएँ कहानियाँ ही पढ़ता था। अपनी समझ कम थी - पर मुक्तिबोध को पढ़कर कौन न प्रभावित होता ? पर कविताएँ कहानियाँ पढ़ना एक बात है और रचनाकार के जीवन के साथ रचनाओं के अंतर्संबंध को समझ पाना कुछ और। बहुत बाद में मुक्तिबोध के जीवन के बारे में मैंने जाना। गाँवों में , छोटे शहरों में , स्कूल - अध्यापक की सामान्य ज़िंदगी जीते हुए साहित्य - लेखन के प्रति ऐसी गहरी प्रतिबद्धता देखकर आश्चर्य होता है। इससे भी अधिक आश्चर्य होता है जब हम उनके अध्ययन की व्यापकता को जानते हैं। समकालीन विश्व - साहि...

रोते हो, इसलिए लिखते हो

पटना गया था। भाषा और शिक्षा पर साउथ एशिया यूनिवर्सिटी के एक सेमिनार में बोलने के लिए। इसके पहले पटना होकर कई बार गुजरा हूँ , पर यह पहली बार एक रात रुका। सुबह सवा चार बजे उठा था तो सिर दुख रहा था। जैसे तैसे भाषण देकर और सवाल जवाब से फारिग होकर कालिदास रंगालय पहुँचा कि साथियों को सलाम कह दूँ, पर वहाँ फिल्म चल रही थी और फिल्म में बैठने लायक हालत में नहीं था। तो अपने होटल आ गया। अगले दिन बड़ी मुश्किल से तीन-तीन घंटे के देर से चली फ्लाइट्स से वापस पहुँचा। गाँधी मैदान का इलाका देखकर लगा कि असली भारत में आ गए हैं। पर असली भारत को बदलना भी है न ! बहरहाल ' चकमक ' में ' लाल्टू से बातचीत ' शृंखला का एक हिस्सा सही चित्र न बन पाने से छूट गया है , अगला हिस्सा दिसंबर अंक में निकल चुका है , यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ। रोते हो , इसलिए लिखते हो राधिका की ओर देखते ही मेरी नज़र दरवाजे के ऊपर दीवार पर गई। वहाँ एक मकड़ा था। लगा जैसे वह छलाँग मारने को है। मैंने कहा , ' अरे ! देखना , ऊपर एक मकड़ा है। ' राधिका घबराती सी जल्दी आगे को बढ़ आई। उसने सँभलते हुए चा...