सापेक्ष 55 में प्रकाशित मुक्तिबोध पर कुछ खयाल:-
1. मेरी
बदकिस्मती यह है कि मुझे
मुक्तिबोध के जीवन के निजी
पहलुओं पर जानकारी कम है।
मैंने मुक्तिबोध को बड़ी उम्र
में और विदेश में पढ़ा। मैं
जहाँ विज्ञान-विषयक
शोध कर रहा था वहाँ दक्षिण
एशिया पर अध्ययन का कोई विभाग
न था। मैं ढाई घंटे बस की यात्रा
कर न्यूयॉर्क शहर आता और
कोलंबिया विश्वविद्यालय में
पढ़ रहे दोस्तों के नाम पर
लाइब्रेरी से किताबें ले आता।
इस तरह मुक्तिबोध पढ़ा। साथ
में हिंदी साहित्य पर चर्चा
करने लायक कोई न था। आलोचना
में मेरी रुचि कम थी। इसलिए
कविताएँ कहानियाँ ही पढ़ता
था। अपनी समझ कम थी - पर
मुक्तिबोध को पढ़कर कौन न
प्रभावित होता? पर
कविताएँ कहानियाँ पढ़ना एक
बात है और रचनाकार के जीवन के
साथ रचनाओं के अंतर्संबंध को
समझ पाना कुछ और।
बहुत
बाद में मुक्तिबोध के जीवन
के बारे में मैंने जाना। गाँवों
में, छोटे शहरों में, स्कूल-अध्यापक
की सामान्य ज़िंदगी जीते हुए
साहित्य-लेखन
के प्रति ऐसी गहरी प्रतिबद्धता
देखकर आश्चर्य होता है। इससे
भी अधिक आश्चर्य होता है जब
हम उनके अध्ययन की व्यापकता
को जानते हैं। समकालीन
विश्व-साहित्य
और बौद्धिक उथल-पुथल
पर उनकी अद्भुत पकड़ थी। ऐसे
समय में जब बड़े शहरों में भी
किताबें आसानी से उपलब्ध न
होती होंगी, उन्होंने
कैसे कहाँ से जानकारी हासिल
की, सोचकर
हैरानी होती है।
कविताओं
से भी अधिक उनकी कहानियों ने
मुझ पर असर डाला। कहानियाँ
पढ़कर लगता है कि वे अपने समकालीन
अस्तित्ववादी विचारों से
प्रभावित थे। पर इसका मतलब
यह भी होता है कि उनके जीवन
में निजी संघर्षों की उलझनें
रही होंगीं, जिनके
बारे में हम कम ही जानते हैं।
उनकी कहानियों में 'सतह
से उठता आदमी' में
यह संघर्ष सबसे तीखा बन कर
सामने आता है। 'अँधेरे
में' और
'ब्रह्मराक्षस'
जैसी कविताओं
में भी यह दिखता है, पर
कविता की अपनी शर्तें हैं और
इसलिए वहाँ सीधे-सीधे
कुछ भी कहना मुश्किल हो जाता
है। जीवन के तनाव जितनी साफगोई
से कहानियों में पेश होते हैं,
कविता में
वे उस ढंग से नहीं आते जैसे कि
हम जानकर भी चुप रह जाएँ और उन
पर बात न करें। वहाँ राजनैतिक
सोच और निजी संघर्षों का ऐसा
घालमेल है कि हम जीवन के विशेष
पहलुओं को छानने की कोशिश करते
हुए बार-बार
असफल होते हैं।
2. तत्काल
याद आने वाली कहानियों में
'समझौता'
का जिक्र
ठीक होगा। इस कहानी को पढ़ते
हुए मुझे लगा था कि मुक्तिबोध
पर फ्रांत्ज़ काफ्का का असर
रहा होगा। इस कहानी में 'द
ट्रायल' के
भयावह सरकारी तंत्र और
'मेटामोरफोसिस'
के आदमी
के कीट में जैविक परिवर्तन
की छाप दिखती है। पर साथ ही
इसमें और भी एक बात है कि सामंती
व्यवस्था की कुनबाई संस्कृति
और आधुनिक लालफीताशाही का
आतंक साथ-साथ
है। हम व्यवस्था के खिलाफ भी
हैं और व्यवस्था के साथ भी,
घोर
असहायता-बोध
के साथ। यह रोचक बात है कि मैंने
हाल में ही 'कविता
का जनपद' में
देखा है कि अशोक बाजपेयी ने
मुक्तिबोध की कविताओं में से
पंक्तियाँ उद्धृत कर उन पर
काफ्का के प्रभाव को दिखलाया
है।
मुक्तिबोध
के आलोचना-कर्म
के बारे में मुझे कुछ कहना
नहीं चाहिए। मैंने उनका
नॉन-फिक्शन
पूरी तरह से पढ़ा नहीं है। उन
पर दूसरों का लिखा पढ़ता रहा
हूँ या उनकी आलोचना से उद्धृत
हिस्से पढ़े हैं। जितना समझा
है, उससे
यह तो ज़रूर लगता है कि उनको
पढ़ना ज़रूरी है। मेरी सीमित
समझ यह है कि वे आलोचक कम और
एक एमेचर दार्शनिक ज्यादा
थे। जो बातें उन्हें परेशान
करती थीं, उनको
चिंतन के अंदाज़ में उन्होंने
लिखा है। संभवतः कामायनी पर
उनका पुनर्पाठ एकमात्र ऐसा
काम है जिसे आलोचना कहा जा
सकता है। उनके लेखन में वे
औज़ार नहीं दिखते जिनका इस्तेमाल
आम तौर पर आलोचना के लिए होता
है। इसका मतलब यह भी हो सकता
है कि वे आलोचना में एक नया
फॉर्म गढ़ रहे थे, पर
इसमें मेरी समझ कमज़ोर है।
'संवेदनात्मक
ज्ञान' और
'ज्ञानात्मक
संवेदना' ऐसे
मुहावरे हैं, जो
हमें आकर्षित करते हैं,
पर इन्हें
ठीक इस तरह न कहने पर भी किसी
भी क्रीएटिव रचनाकार को इस
बात की कच्ची-पक्की,
कैसी भी,
समझ होती
है। कहा जा सकता है कि इस समझ
के बिना क्रीएटिव लेखन हो ही
नहीं सकता। एक समय था,
जब 'संवेदना'
सिर्फ
कवियों-कथाकारों
की शब्दावली में आता था। ज्ञान
पाने के दूसरे साधनों,
जैसे भाषा,
अहसास या
तर्कशीलता आदि को ही दर्शन
में गंभीरता से लिया जाता था।
पिछले कुछ दशकों में ज्ञान-मीमांसा
में भावनात्मकता या संवेदना
(emotion/ sensitivity) को
बड़ी जगह दी जा रही है। यह सही
है कि संवेदना हमेशा सही
निष्कर्ष तक ले जाए, ऐसा
कहना मुश्किल है। पर संवेदना
के न होने पर सही निष्कर्ष के
पास तक पहुँचना भी असंभव ही
है।
पिछली
सदी के आखिर तक ज्ञान पाने के
बाकी सभी साधनों के बारे में
भी यह समझ बनी है कि 'सही'
निष्कर्ष
या 'सत्य'
तक पहुँचने
का कोई निर्दिष्ट तरीका नहीं
है। वैज्ञानिक पद्धति की कुछ
खासियत है जो हमें सत्य के
आस-पास
तक पहुँचने में मदद करती हैं।
पर अंतिम सत्य क्या है.
यह सवाल
खुला रह जाता है। या यूँ कहें
कि सीढ़ियाँ चढ़ते हुए हम मंज़िल
के और करीब पहुँचते रहते हैं,
पर मंज़िल
ही जैसे स्थिर नहीं रहती।
मुक्तिबोध को अक्सर उस अर्थ
में वैज्ञानिक
सोच से लैस माना जाता है जैसे
मार्क्सवाद को वैज्ञानिक
विचारधारा कहा जाता है।
मार्क्सवाद से अपेक्षा यह है
कि एक आखिरी सामाजिक संरचना
तक जाने की राह हम जान सकें।
हालाँकि मार्क्स ने सामाजिक
बराबरी पर व्यापक तौर पर जो
बातें कही हैं, उससे
अलग किसी स्पष्ट संरचना को
या आखिरी मंज़िल तक पहुँचने
के किसी एक रास्ते को परिभाषित
किया हो, यह
कहना मुश्किल है। जिन संरचनाओं
को उन्होंने नकारा है,
उनको समझना
आसान है। इसीलिए हर कम्युनिस्ट
पार्टी खुद को औरों से अलग
घोषित कर सकती है, क्योंकि
आखिरी संरचना और वहाँ तक पहुँचने
के तरीकों पर भिन्न मत हो सकते
हैं।
'संवेदनात्मक
ज्ञान' और
'ज्ञानात्मक
संवेदना' में
फर्क है या नहीं, इस
पर कइयों ने विस्तार से लिखा
है। मुझे यह बात महत्वपूर्ण
लगती है कि इन मुहावरों के
कहते ही मुक्तिबोध उस मार्क्सवाद
से अलग हो जाते हैं, जो
महज आर्थिक-राजनैतिक
है। इन मुहावरों के जरिए वे
मार्क्स के अराजक पक्ष से जुड़
जाते हैं। अराजक विश्व-दृष्टि
के बिना कोई रचनाकार क्रीएटिव
नहीं हो सकता। अराजकता के कई
पहलू हैं। जब हम मानवतावादी
अराजकता की बात करते हैं,
इसे अक्सर
मार्क्सवाद मान लिया जाता
है। अपने तकनीकी अर्थ में
मार्क्सवाद का कविता-कहानी
आदि यानी सर्जनात्मक लेखन से
कोई सीधा-संबंध
नहीं है। मार्क्सवाद राजनैतिक
और आर्थिक संरचनाओं पर केंद्रित
चिंतन है। इसलिए आलोचना भले
ही मार्क्सवादी कहलाए,
कविता-कहानी
को मार्क्सवादी कहना या किसी
रचनाकार के सर्जनात्मक पक्ष
को मार्क्सवादी कहना मतलब
नहीं रखता। एक मार्क्सवादी
व्यक्ति जब साहित्यिक होता
है तो अपने लेखन में वह अराजक
होता है।
ज्ञान
पाने में भावनात्मकता या
संवेदना की कई भूमिकाएँ हैं।
बौद्धिक प्रक्रियाओं के लिए
ऊर्जा जुटाने के लिए संवेदना
जरूरी है। खासकर क्रीएटिव
लेखन में संवेदना की भूमिका
केंद्रीय है। यहाँ 'आह
से उपजा होगा गान' का
उल्लेख कुफ्र होगा, पर
बात सचमुच वही है। हमारे
दिलो-दिमाग
में संवेदना ही भौतिक-रासायनिक
क्रियाओं को आगे बढ़ाती है।
संवेदना वह ऐक्टीवेशन (activation)
ऊर्जा है
जो क्रीएटिव लेखन में विषय-वस्तु
को महज कथ्य से खींचकर ऐसे
फॉर्म में ढालती है, जहाँ
मुक्तिबोध अपनी सदी के महत्वपूर्ण
रचनाकार बन जाते हैं। मार्क्सवादी
सोच राजनैतिक धरातल पर एक खास
तर्क को खड़ा करती है, पर
वह मार्क्स का अराजक मानवतावादी
पक्ष है जो मुक्तिबोध और उनकी
परंपरा के बाद के रचनाकारों
में तीखी संवेदना की अभिव्यक्ति
पैदा करती है। इसलिए 'संवेदनात्मक
ज्ञान' और
'ज्ञानात्मक
संवेदना' में
फर्क पर जोर न देकर यह समझा
जाना चाहिए कि शायद ऐसा कहते
हुए सचेत या अचेत रूप से मुक्तिबोध
कह रहे हैं कि संवेदना और सत्य
तक पहुँचने के तर्कशील रास्ते
अलग भले हों, पर
एक के बिना दूसरे का अस्तित्व
संभव नहीं। पर इसका मतलब यह
नहीं कि हम संवेदना के सीमित
अर्थों से होने वाले खतरों
को भूल जाएँ। इन दिनों इस देश
में जो अँधेरा बढ़ रहा है,
उसका भी
अपना कोई संवेदनात्मक तर्क
है। ऐसे खतरों के संकेत मुक्तिबोध
ने बार-बार
किए हैं।
3. 'अँधेरे
में' हिंदी
कविता में रेटोरिक के दौर की
सबसे खूबसूरत कविता है। इसे
रेटोरिक के दौर की कविता कहना
कइयों को परेशान करेगा। पर
सचमुच इस कविता का सबसे सार्थक
पाठ रेटोरिक की तरह ही है। अगर
भारतीय भाषाओं में नज़रुल
इस्लाम की 'विद्रोही'
को अच्छी
रेटोरिक कविताओं की शुरूआत
कहा जाए तो 'अँधेरे
में' को
रेटोरिक में सौंदर्यबोध को
शिखर तक पहुँचाने की कविता
कहा जाना चाहिए। जैसा अँधेरा
मुक्तिबोध के जमाने में था,
कुछ अर्थों
में उससे कहीं ज्यादा गहरा
अँधेरा आज है। उन दिनों भौतिक
रूप से अँधेरे से बच निकल कहीं
और भाग चलने के उपाय थे,
आज जहाँ
हम खड़े हैं, वहीं
खुद से पलायन करते हुए अपनी
मानवता को भूलते हुए महज यंत्र
बन कर ही जीना संभव है। सही है
कि अँधेरा और घना होता जा रहा
है। अधिक चिंता की बात यह है
कि यह अचानक उछल कर आता अँधेरा
नहीं है, यह
सदियों से जमा अँधेरे का और
घनीभूत होना है। मानो अँधेरे
ने इतिहास से सबक लेकर धीरे-धीरे
हमारी कोशिकाओं को एक-एक
कर ज़ब्त करते हुए हमें पस्त
करने की सोची है। इसके बरक्स
उजाले की ताकतें छिन्न-विच्छिन्न
हैं, बिखराव
की पराकाष्ठा है। ऐसे में हर
सचेत इंसान के अंदर बैठा कोई
अज्ञात हृदय की धक्-धक्
सुन कर परेशान होता है -
'अँधेरे
में' उसी
धक्-धक्
को पहचानने को हमें मजबूर करती
है।
आज
जो अँधेरा गहरा रहा है,
वह निज से
बाहर का अँधेरा मात्र नहीं
है, वह
चारों ओर संवेदना के घोर अभाव
का अँधेरा है, जो
हमारे अंदर का अँधेरा है। यह
वह अँधेरा है, जो
गुजरात को गुजरात कह कर हमें
बरी कर देता है। इस अँधेरे में
हम अपने जलते हुए शहर में होते
हुए भी कहीं और सुरक्षित होते
हैं। हमारे घरों में स्त्रियाँ
हमें दिखती नहीं। घर में जो
वर्षों से 'तोड़ती
पत्थर' हैं,
वे काम
वालियाँ दिखती नहीं। हम दूर
से आदिवासियों के विस्थापन
की खबरें पढ़ लेते हैं,
सिगनल पर
भीख माँगते बच्चों को सिक्का
दे कर आगे बढ़ जाते हैं।
इस
अँधेरे के साथ गहराता एक निजी
संकट साथ-साथ
चलता है, जो
'बेचैन
चील' में
खूबसूरत बन कर दिखता है,
पर 'अँधेरे
में' या
'ब्रह्मराक्षस'
में भयावह
हो जाता है। कितना अच्छा होता
अगर हम सब 'जन-जन
का चेहरा एक' जैसी
सरल बात को समझ लेते। मुझे यह
कविता अपनी सरलता में अद्भुत
लगती है। पर हम नहीं समझ सकते,
हमारे घरों
में, हमारे
अपने मन की गहराइयों में न
जाने कितने दक्षिण अफ्रीका
पैठ जमाए बैठे हैं और कोई
मांडेला नहीं है जो जेल से
छूटते ही हमें अँधेरे से उबार
लेगा।
ऐसे
में कविता की चिर उद्धृत
पंक्तियाँ 'अब
तक क्या किया, जीवन
क्या जिया!' और
'अब
अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे / तोड़ने
होंगे ही मठ और गढ़ सब'
किसी भी
पाठक के लिए ललकार बन कर आती
हैं। यह ललकार सिर्फ समाज से
नहीं खुद से लड़ने की ललकार भी
है। इसे हम अँधेरे से उजाले
तक जाने का संघर्ष कह सकते
हैं। पर सचमुच कविता तो कविता
ही होती है, वह
संघर्ष नहीं होती। हम संघर्ष
करते हैं या नहीं करते हैं।
या संघर्ष करते हुए कभी आगे
तो कभी पीछे हटते हैं। इसलिए
'अँधेरे
में' व्यक्ति
या समाज को अँधेरे से उजाले
की ओर ले जाएगी, यह
बात उसी हद तक मायने रखती है
जैसे किसी भी बड़ी कृति को पढ़कर
हम अपनी स्थिति से ऊपर उठते
हैं। फिलहाल तो कविता इतना
भी नहीं कर पाई है कि संघर्ष
का कोई साझा मंच बने। हम देखते
रह जाएँगे और जैसा हश्र कई और
रचनाओं का हुआ है, वैसा
ही इसके साथ भी हो सकता है कि
जिनके खिलाफ यह कविता हमें
सचेत करती है, वही
इसे हमें सुनाने न लग जाएँ।
फिर भी हम इसे पढ़ते हैं तो एक
बार उन सबके साथ एकात्म होते
हैं जिनके लिए यह कविता हमारे
अंदर बस कर रोती है, चीखती
है।
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