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Showing posts from April, 2015

जो तूने दिया गायब नहीं हो सकता

धरती सीरीज़ की और कविताएँ -  3. उन मुहल्लों में चलो उन मुहल्लों में घूम आएँ वहाँ कोई नहीं सो रहा वहाँ बादलों में बारूद की गंध है बारिश की बूँदें मर रहीं हैं जहर में घुल कर यहाँ इंतज़ार में क्यों बैठे हो चलो उन मुहल्लों में देख आएँ कैसे अपने ही खून से नहा सकते हैं परस्पर गला घोंट कर गा सकते हैं हाल - चाल अपनी लाशों से पूछ सकते हैं यहाँ मुहल्ला शांत है किसको खबर कि लग सकती है आग यहाँ भी भीगी घास पर हवाएँ साँय - साँय सुना सकती हैं बच्चों की आखिरी साँसें इसके पहले कि दस्तक सुनाई पड़े इसके पहले कि प्यार का आखिरी लफ्ज़ होने चले ज़मींदोज़ चलो उन मुहल्लों में घूम आएँ। 4. नहीं मानता मैं नहीं मानता कि तेरे आखिरी लम्हों को जी रहा हूँ किसी के कहने से अब तक जो तूने दिया गायब नहीं हो सकता बचपन के ऐसे गीले दिनों में फुटबॉल खेलते गिर गिर कर मिट्टी से जो रँगा शरीर अँधेरे में आज भी देखता हूँ चाँद - तारों के करीब ...

कम सही ताकत भर उठाओ मुट्ठियाँ

आखिर सेमेस्टर के कोर्स खत्म हुए। बस कल एक मानव - मूल्यों वाली क्लास  बची है। हाँ , विज्ञान के अलावा मानविकी की खुराफातों से अलग यह भी एक  जिम्मेदारी सर पर है। इस बार सचमुच थक गया हूँ। एक तो अब मूल्यांकन का  सिलसिला शुरू होगा , जिसमें सबसे दर्दनाक उन टर्म पेपर्स को देखना है ,   जिनमें से कुछ चुराई सामग्री से भरे होंगे। पर इस बार की थकान एक और  कारण से भी है। इस सेमेस्टर पहली बार मैंने अटेंडेंस न लेने का निर्णय लिया  था , और नतीज़तन विज्ञान और मानविकी दोनों कोर्स में अधिकतर छात्रों की  शक्ल नहीं देख पाया। इससे क्लास बेहतर रही , पर अब करें क्या कि  ईमानदारी का ठेका जो ले रखा है। सोचते ही अवसाद घेर लेता है कि ये जो  ऊँची जाति , संपन्न वर्गों वाले युवा हैं , जो आपको सोशल मीडिया में हर तरह  की बहस में उलझा सकते हैं , उनको यह नहीं रास आता कि पढ़ने आए हैं तो  नियमित क्लास आया करें। पर यह भी कहना होगा कि कुछ हैं जो नियमित  आते रहे और मन लगाकर सुनते देखते रहे कि मैं क्या कहता दिखलाता ह...

हम मिट्ठू का साथ देंगे कब

विज्ञान की बात हो तो आशंकाएँ साथ चलती हैं। मैंने चार दिन पहले श्री अणु  कविता पोस्ट की तो  Pragnya Joshi ने फेबु पर लिखा - ' और उस  परमाणु के विस्फोट में बिखर जाती लाखों हड्डियां ... । ' इसलिए ' भैया ज़िंदाबाद ' से ही यह एक और कविता पोस्ट कर रहा हूँ ,   जिसमें आधुनिक सभ्यता पर सवाल है। यह शायद बीस साल पहले 'चकमक'  में आई थी और दिल्ली से प्रकाशित आठवीं की एक पाठ्य-पुस्तक में भी  शामिल हुई।   मिट्ठू मिट्ठू अब पेड़ों पर कम तस्वीरों में अधिक दिखता है अधकटे पेड़ नंगे पहाड़ सूखी ज़मीन तस्वीरों के मिट्ठू जैसे बेजान हैं ये हमेशा ऐसे तो न थे ! जहरीली गैसें गंदगी सड़कों नालों की नदियों में रासायनिक विष आज हर ओर कहाँ गए जंगल साफ हवा - पानी किस सभ्यता में खो गए मिट्ठू और हमारे सरल जीवन ! मिट्ठू तंग आ गया है पहाड़ों की नंगी दीवारें   बचे - खुचे पेड़ चाहते हैं , हम पूछें हम सोचें हम मिट्ठ...

इक्कीस चक्कर घुमा घुमाकर

  फेबु पर सुस्मिता की टिप्पणी पढ़कर यह पोस्ट :- कमाल कि सुकुमार राय ने औपनिवेशिक दौर  में यह लिखा था , जबकि हमें लगता है कि यह तो आज की बात है। यह कविता उनके संग्रह   ' आबोल ताबोल ' के हिंदी अनुवाद ' अगड़म बगड़म ' में संकलित है।  इक्कीसी कानून शिव ठाकुर के अपने देश , आईन कानून के कई कलेश। कोई अगर गिरा फिसलकर , ले जाए प्यादा उसे पकड़। काजी करता है न्याय - इक्कीस टके दंड लगाए। शाम वहाँ छः बजने तक   छींकने का लगता है टिकट जो छींका टिकट न लेकर , धम धमा दम , लगा पीठ पर , कोतवाल नसवार उड़ाए - इक्कीस दफे छींक मरवाए। अगर किसी का हिला भी दाँत जुर्माना चार टका लग जात अगर किसी की मूँछ उगी सौ आने की टैक्स लगी - पीठ कुरेदे गर्दन दबाए इक्कीस सलाम लेता ठुकवाए। कोई देखे चलते - फिरते दाँए - बाँए इधर - उधर   राजा तक दौड़े तुरत खबर पल्टन उछलें बाजबर दोपहर धूप में खूब घमाए इक्कीस कड़छी पानी पिलाए।   लोग जो भी कविता करते उनको पिंजड़ों में रखते पास कान के कई सुरों में पढ़ें पहाड़ा सौ मुस्टंडे खाताबही मोदी का लाए इक्कीस पन्ने हि...

कैसे कैसे नॉनसेंस!

यह नॉनसेंस कविता “भैया ज़िंदाबाद " से :- एक बार किसी को सुकुमार राय  की नॉनसेंस कविताओं के बारे में कहा तो वे उत्तेजित होकर बोले - हमारे यहाँ  कुछ नॉनसेंस नहीं होता। कैसे कैसे नॉनसेंस ! एक आजकल स्यापा- ए-आआपा भी है! दो साल पहले मैंने चंडीगढ़ में व्याख्यान में कहा था कि मैं  मानता हूँ केजरीवाल बेईमान है। कई टोपीधारी नाराज़ हो गए थे। कहानी परमाणुनाथ जी की ज्ञान के प्यासे परमाणुनाथ पहुँचे एक्वाडोर पुच्छल तारा गिरा वहाँ पर , बड़ा मचा था शोर किया निरीक्षण परमाणु जी ने मोटी ऐनक चढ़ाए परमाणुयम तत्व निकाला , नए प्रयोग दिखलाए सवाल उठा परमाणुयम के परमाणु कहाँ से आए भौंहें तान परमाणुनाथ तब जोरों से चिल्लाए ऐसे टेढ़े प्रश्नों पर मैं अम्ल गिरा दूँगा भून खोपड़ी सबकी मैं भस्म बना दूँगा वैज्ञानिकों की महासभा ने रखा यह प्रस्ताव परमाणुनाथ को जल्दी वापस घर भिजवाओ लौटे वापस परमाणुनाथ हरदा अपने घर वहाँ बैगन की चटनी पर हैं शोध रहे वे कर।