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Showing posts from September, 2010

जिन्होंने सुना नहीं उन्हें सुनना चाहिए

नया कुछ नहीं। बहुत पुराना हो गया है। पर एक युवा दोस्त ने यह लिंक भेजी तो एक बार फिर सुना। और लगा कि जिन्होंने सुना नहीं उन्हें सुनना चाहिए। साईंनाथ।

लड़ांगे साथी

मैं वैसे तो गुस्से में और अवसाद ग्रस्त हो सकता हूँ, कि एक नासमझ गैर शिक्षक बाबू ने ऐडमिरल रामदास के भाषण पर नाराज़गी जताते हुए हमारे छात्रों में सांप्रदायिक विष फैलाने की कोशिश की है. और ऐसा करने में उसने साल भर पुरानी मीरा नंदा के भाषण की सूचना को उखाड़ निकला है, जिस सेमीनार का मेजबान मैं था. पर यह हफ्ता पाश और विक्टर हारा के नाम जाना चाहिए. पाश की यह कविता आज ही कुछ दोस्तों को सुना रहा था, बहुत बार सबने सुनी है, एक बार और पढ़ी जाए: सबसे खतरनाक होता है मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है सबसे ख़तरनाक नहीं होता कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है जुगनुओं की लौ में पढ़ना मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍त निकाल लेना बुरा तो है सबसे ख़तरनाक नहीं होता सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना घर से निकलना काम पर और काम से लौटकर घर आना सबसे ख़तरनाक होता है ...

हरदा हरदू हृदयनगर

हरदा के बारे में प्रोफ़ेसर श्यामसुंदर दूबे का कहना है कि यह नाम हरदू पेड़ से आया हो सकता है. हो सकता है कि कभी इस क्षेत्र में बहुत सारे हरदू पेड़ रहे हों. मैंने नेट पर शब्दकोष ढूँढा तो पाया : हरदू, पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत और पीले रंग की होती है। इस लकड़ी से बंदूक के कुंदे, कंधियाँ और नावें बनती हैं। इन दिनों कुछ लोग हरदा को हृदयनगर बनाने की धुन में लगे हैं. मैं बड़े शहर का बदतमीज़ - हरदा से यह सोचते हुए लौटा कि मैंने तो उनको कुछ नहीं दिया पर वहां से दो शाल, दो नारियल, दो कमीज़ और दो पायजामे के कपड़े लेकर लौटा हूँ. प्रेमशंकर रघुवंशी जी ने अपनी पुस्तक और दो पत्रिकाएं थमाईं वो अलग. चलो मजाक छोड़ें - हरदा में जो प्यार लोगों से मिला उससे तो वाकई उसे हृदयनगर कहने का मन करता है. औपचारिक रूप से मैं स्वर्गीय एन पी चौबे के पुत्र गणेश चौबे द्वारा आयोजित शिक्षक सम्मान समारोह में बोलने गया था. युवा मित्र कवि धर्मेन्द्र पारे जिसने कोरकू जनजाति पर अद्भुत काम किया है, का आग्रह भी था. दो दिन किस तरह बीते पता ही नहीं चला. सोमवार को रात को हैदराबाद घर लौटा तो म...