Sunday, August 30, 2009

कैसे दूँ उसे मौन यूँ जीवन भर दान?

अफलातून ने बतलाया कि मेरी तीन प्रेम कविताएँ उसने अपने ब्लाग पर पोस्ट की थीं, कई साथियों ने उन पर प्रतिक्रिया भेजी है। प्रेम कविताएँ होती ही ऐसी हैं कि हर कोई पसंद करता है। आधुनिक अंग्रेज़ी कविता में तीन कवियों की कविताएँ मुझे बहुत भाती हैं, जिनमें एक है सेरा टीसडेल (१९३० के दशक की न्यूयार्क की कवि)। कई मित्रों को उसकी कविताएँ पढ़वाई हैं। पहली बार उसकी कविता से परिचय हुआ रे ब्रैडबरी की कहानी 'August 2026: And There Will Come Soft Rains' ('अगस्त २०२६: आएँगी हल्की फुहारें' शीर्षक से मेरा अनुवाद १९९५ के आस पास साक्षात्कार में आया था)। कहानी में नाभिकीय विस्फोट के बाद की स्थिति का वर्णन है - यह कहानी नेट पर उपलब्ध है, ज़रुर पढ़ें. बहरहाल इस कहानी में सेरा टीसडेल की इस कविता का उद्धरण है,
"There will come soft rains and the smell of the ground,
And swallows circling with their shimmering sound;
And frogs in the pools singing at night,
And wild plum trees in tremulous white;
Robins will wear their feathery fire,
Whistling their whims on a low fence-wire;
And not one will know of the war, not one
Will care at last when it is done.
Not one would mind, neither bird nor tree,
if mankind perished utterly;
And Spring herself, when she woke at dawn
Would scarcely know that we were gone."

हम सब से अंजान बहार आएगी। बहार के बहार होने का अर्थ तो प्राण से ही है, जब प्राण ही न हो, और मानव न हो जो बहार को बहार कह सके, तो बहार के आने का क्या मतलब!

इसे पढ़ने के बाद से मैंने सेरा टीसडेल की कवताएँ ढूँढ कर पढ़ीं। मेरी प्रिय कविताएँ हैं।

यहाँ एक कविता उद्धृत कर रहा हूँः


Night Song at Amalfi

I asked the heaven of stars
What I should give my love --
It answered me with silence,
Silence above.

I asked the darkened sea
Down where the fishers go --
It answered me with silence,
Silence below.

Oh, I could give him weeping,
Or I could give him song --
But how can I give silence,
My whole life long?


आमाल्फी में रात्रिगान (आमाल्फी इटली का छोटा शहर है)।

तारों भरे नभ से पूछा मैंने
अपने प्रिय को क्या दूँ
उसका जवाब था चुप्पी भर
ऊपर फैला मौन था यूँ

मैंने काले सागर से पूछा
दूर जाते मछुआरे जहाँ
उसका जवाब था चुप्पी भर
गहराई तक फैला मौन वहाँ

रुदन दे सकती हूँ प्रिय को
या दे सकती हूँ गान
पर कैसे दूँ उसे मौन
यूँ जीवन भर दान?

अनुवाद अभी अभी किया है - अधिक सोचा नहीं है, इसलिए अंग्रज़ी को ही पढ़ें। अभी अभी अफलातून ने बतलाया कि मेरी सात कविताएँ उसने यहाँ पोस्ट की हैं। खुशी मेरी कि कम सही कुछ मित्र मुझे भी पढ़ते हैं।

Friday, August 28, 2009

पंखा चलता तो शहतीर काँपती

पंजाब विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान यूनिवर्सिटी और कालेज अध्यापकों के लिए तरह तरह के रीफ्रेशर कोर्सों में भाषण देता था, कभी कभार साहित्य पर भी कुछ कहा है। सत्यपाल सहगल ने एम ए के हिंदी के विद्यार्थियों से शरतचंद्र पर कुछ कहने को कहा था। दो बार शरतचंद्र पढ़ा पाया हूँ। अब मुझे संस्थान में बी टेक के छात्रों को विज्ञान के अलावा हिंदी साहित्य भी पढ़ाने का मौका मिला है। पिछले साल भी पढ़ाया था और इस साल भी पढ़ा रहा हूँ। चूँकि साहित्य में मेरा औपचारिक प्रशिक्षण नहीं है, इसलिए मैं इसे रीडिंग्स या पाठ का कोर्स कहता हूँ। हमलोग कविता कहानियाँ पढ़ते हैं और उन पर चर्चा करते हैं। तुलनात्मक समझ के लिए हिंदी के अलावा विश्व साहित्य से भी कुछ सामग्री पढ़ते हैं। इस बार मैं फिल्में भी दिखा रहा हूँ। बहरहाल आज ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता' पढ़ते हुए खूब बातें हुईं।

कोर्स शुरु होने के पहले छात्र समकालीन हिंदी साहित्य से अपरिचित थे। पर रुचि के साथ पढ़ रहे हैं। पाँच कक्षाओं में लगातार कविताएँ पढ़ते रहे तो एक ने कहा कि अब कुछ कहानियाँ पढ़ी जाएँ। इस तरह आज ज्ञानरंजन पढ़ने लगे। पिता एक अजीब प्राणी है या पिता वह व्यक्ति है जिसकी पिछली मजबूरियों की वजह से आदतें ऐसी हो गई हैं कि अब सुविधाओं के होने के बावजूद वह असुरक्षित दरिद्र जीवन बिताता है, इस पर सब ने कुछ न कुछ कहा। मैं कुछ समय बाद पारंपरिक समाज और आधुनिकता पर भी अकादमिक चर्चा छेड़ने वाला हूँ - देखते हैं।

इस दौरान बहुत सी बातें इस तरह की भी हुईं कि उन दिनों रोजाना काम आने वाले सामान, जैसे पंखे, कितने महँगे थे। मुझे यह ध्यान आया कि मेरे बचपन में बिजली की सप्लाई डी सी यानी कि डिरेक्ट करेंट की होती थी। पंखा चलता था तो शहतीर काँपती थी। पंखे की कीमत होती थी दो ढाई सौ रुपए और वह बहुत समझी जाती थी क्योंकि यह किरानिओं जैसे निम्न मध्य वर्ग के लोगों की दो तीन महीनों की तनखाह के बराबर थी। मैंने जब यूनीवर्सिटी लेक्चरर की नौकरी शुरू की तो मेरी मासिक तनखाह रेफ्रिजरेटर या वाशिंग मशीन की कीमत से कम थी। यानी मध्य वर्ग में उपभोक्ता माल की कीमतें जिस गति से बढ़ी हैं, तनखाहें उससे कहीं ज्यादा रफ्तार से बढ़ी हैं।

कुछ लोग आज भी ऐसे हैं जिनके घर बिजली नहीं है। कुछ नहीं बहुत सारे लोग। शादी ब्याह में जेनरेटर चलते हैं तो उन्हें बिजली का पता चलता है। तो प्राक्-आधुनिक, आधुनिक और उत्तर आधुनिक का अनोखा मिश्रण जो भारतीय समाज में है, इसमें 'पिता' जैसी कहानियाँ युगों तक पढ़ी, समझी जाएँगीं और चर्चा में रहेंगी।

बहरहाल, आज एक और पुरानी कविताः- यह साक्षात्कार में प्रकाशित हुई थी, संभवतः १९८९ में। मेरे पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में शामिल है। उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद वाली तानाशाही सरकार थी।

लड़ाई हमारी गलियों की

किस गली में रहते हैं आप जीवनलालजी
किस गली में

क्या आप भी अखबार में पढ़ते हैं
विश्व को आंदोलित होते

आफ्रिका, लातिन अमेरीका
क्या आपकी टीवी पर
तैरते हैं औंधे अधमरे घायलों से
दौड़कर आते किसी भूखे को देख
डरते हैं क्या लोग – आपके पड़ोसी
लगता है उन्हें क्या
कि एक दक्षिण अफ्रीका आ बैठा उनकी दीवारों पर

या लाशें एल साल्वाडोर की
रह जाती हैं बस लाशें
जो दूर कहीं
दूर ले जाती हैं आपको खींच
भूल जाते हैं आप
कि आप भी एक गली में रहत हैं

जहाँ लड़ाई चल रही है
और वही लड़ाई
आप देखते हैं

कुर्सी पर अटके
अखबारों में लटके
दूरदर्शन पर

जीवनलालजी
दक्षिण अफ्रीका और एल साल्वाडोर की लड़ाई
हमारी लड़ाई है।

Thursday, August 27, 2009

सिर्फ इसलिए कि कई दिन हो गए

यह सिर्फ इसलिए कि कई दिन हो गए और चिट्ठा लिखा नहीं। जब लिखने को बेचैन होता हूँ तो वक्त नहीं होता। वक्त मिलता है तो दूसरे ब्लाग्स पढ़ने में ही चला जाता है। बहुत सारे लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं।

बीच बीच में दो चार मित्र जो मुझे पढ़ते हैं कहते रहे हैं कि कुछ तो पोस्ट किया करो। तो फिलहाल इसलिए।

वैसे कहने को तो बहुत बातें थीं, तड़पता भी हूँ। हाल में ही पास्तरनाक की एक उक्ति फिर से पढ़ी कि जीवन जीने के लिए है न कि जीने की तैयारी के लिए। कोई नई बात नहीं, पर पढ़ के बेचैनी बढ़ गई। तब से खुद को कह रहा हूँ कि और कुछ नहीं तो कोई पुरानी कविता ही पोस्ट कर दो। तो यह है उन दिनों की कविता जब खयाल तो नए थे पर हिंदी का मुहावरा अभी कमजोर था। यह कविता मेरे पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में संगृहित है।



दुःख के इन दिनों में

छोटे छोटे दुःख बहुत हेते है
कुछ बड़े भी हैं दुःख
हमेशा कोई न कोई
होता है हमसे अधिक दुःखी

हमारे कई सुख
दूसरों के दुःख होते है
न जाने किन सुख दुःखों
के बीज ढोते हैं
हम सब

सुख दुःखों से
बने धर्म
सबसे बड़ा धर्म
खोज आदि पिता की
नंगी माँ की खोज
पहली बार जिसका दूध हमने पिया

आदि बिन्दु से
भविष्य के कई विकल्पों की
खोज
जंगली माँ के दूध से
यह धर्म हमने पाया है
हमारे बीज अणुओं में
इसी धर्म के सूक्ष्म सूत्र हैं

यह जानने में सदियाँ गुजर जाती हैं
कि इन सूत्रों ने हमें आपस में जोड़ रखा है

अंत तक रह जाता है
सिर्फ एक दूसरे के प्यार की खोज में
तड़पता अंतस्
आखिरी प्यास
एक दूसरे की गोद में
मुँह छिपाने की होती है

सच है
जब दुःख घना हो
प्रकट होती है
एक दूसरे को निगल जाने की
जघन्य आकांक्षा
इसके लिए
किसी साँप को
दोषी ठहराया जाना जरूरी नहीं

आदि माँ की त्वचा भूलकर
अंधकार को हावी होने देना
धर्म को नष्ट होने देना है

अपनी उँगलियों को उन तारों पर चलने दो
जो आँखें बिछा रही हैं
फूल का खिलना
बच्चे का नींद में मुस्कराना
न जाने कितने रहस्यों को
आँखें समझती हैं
आँखों के लिए भी सूत्र हैं
जो उसी अनन्य सम्भोग से जन्मे हैं

अँधेरा चीरकर
आँखें निकालेंगी
आस्मान की रोशनी
दुःख के इन दिनों में
धीरज रखो
उसे देखो
जो भविष्य के लिए
अँधेरे में निकल पड़ा है
उसकी राहों को बनाने में
अपने हाथ दो
हवा से बातें करो
हवा ले जायेगी नींद
दिखेगा आस्मान। (१९८९)
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