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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Thursday, August 27, 2009

सिर्फ इसलिए कि कई दिन हो गए

यह सिर्फ इसलिए कि कई दिन हो गए और चिट्ठा लिखा नहीं। जब लिखने को बेचैन होता हूँ तो वक्त नहीं होता। वक्त मिलता है तो दूसरे ब्लाग्स पढ़ने में ही चला जाता है। बहुत सारे लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं।

बीच बीच में दो चार मित्र जो मुझे पढ़ते हैं कहते रहे हैं कि कुछ तो पोस्ट किया करो। तो फिलहाल इसलिए।

वैसे कहने को तो बहुत बातें थीं, तड़पता भी हूँ। हाल में ही पास्तरनाक की एक उक्ति फिर से पढ़ी कि जीवन जीने के लिए है न कि जीने की तैयारी के लिए। कोई नई बात नहीं, पर पढ़ के बेचैनी बढ़ गई। तब से खुद को कह रहा हूँ कि और कुछ नहीं तो कोई पुरानी कविता ही पोस्ट कर दो। तो यह है उन दिनों की कविता जब खयाल तो नए थे पर हिंदी का मुहावरा अभी कमजोर था। यह कविता मेरे पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में संगृहित है।



दुःख के इन दिनों में

छोटे छोटे दुःख बहुत हेते है
कुछ बड़े भी हैं दुःख
हमेशा कोई न कोई
होता है हमसे अधिक दुःखी

हमारे कई सुख
दूसरों के दुःख होते है
न जाने किन सुख दुःखों
के बीज ढोते हैं
हम सब

सुख दुःखों से
बने धर्म
सबसे बड़ा धर्म
खोज आदि पिता की
नंगी माँ की खोज
पहली बार जिसका दूध हमने पिया

आदि बिन्दु से
भविष्य के कई विकल्पों की
खोज
जंगली माँ के दूध से
यह धर्म हमने पाया है
हमारे बीज अणुओं में
इसी धर्म के सूक्ष्म सूत्र हैं

यह जानने में सदियाँ गुजर जाती हैं
कि इन सूत्रों ने हमें आपस में जोड़ रखा है

अंत तक रह जाता है
सिर्फ एक दूसरे के प्यार की खोज में
तड़पता अंतस्
आखिरी प्यास
एक दूसरे की गोद में
मुँह छिपाने की होती है

सच है
जब दुःख घना हो
प्रकट होती है
एक दूसरे को निगल जाने की
जघन्य आकांक्षा
इसके लिए
किसी साँप को
दोषी ठहराया जाना जरूरी नहीं

आदि माँ की त्वचा भूलकर
अंधकार को हावी होने देना
धर्म को नष्ट होने देना है

अपनी उँगलियों को उन तारों पर चलने दो
जो आँखें बिछा रही हैं
फूल का खिलना
बच्चे का नींद में मुस्कराना
न जाने कितने रहस्यों को
आँखें समझती हैं
आँखों के लिए भी सूत्र हैं
जो उसी अनन्य सम्भोग से जन्मे हैं

अँधेरा चीरकर
आँखें निकालेंगी
आस्मान की रोशनी
दुःख के इन दिनों में
धीरज रखो
उसे देखो
जो भविष्य के लिए
अँधेरे में निकल पड़ा है
उसकी राहों को बनाने में
अपने हाथ दो
हवा से बातें करो
हवा ले जायेगी नींद
दिखेगा आस्मान। (१९८९)
**********

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2 Comments:

Blogger Meenu Khare said...

वाह !! क्‍या खूब लिखा !!

10:49 PM, August 27, 2009  
Blogger Pratik Pandey said...

बहुत खूब... काश आपका मन यूँ ही रोज़-रोज़ लिखने को कुलबुलाए :)

11:14 PM, August 27, 2009  

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