हिंसा
शुरुआत में फिल्म के लिए पैसे नहीं थे, पर जैसे जैसे फिल्म बनती गई, पैसे जुटते गए (कहा जा सकता है कि फिल्म निर्माताओं को पेट की चिंता भी थी)। बहरहाल, मेरी समझ में नहीं आता कि कोई ऐसी फिल्म क्यों बनाना चाहता है। यह फिल्म बहुत पसंद की गई थी। ब्लर्ब में लिखा है कि जल्दी ही यह 'कल्ट' फिल्म का दर्जा अख्तियार कर चुकी थी।
चलो, यह भी सही।
मोहल्ला पर कनकलता मामले पर पोस्ट्स पढ़े। क्या कहा जाए - भारत महान! यह भी कि दिल्ली में घटना होती है तो देश भर को पता चलता है। सच यह है कि सारा देश अभी तक इस सड़न से मुक्त नहीं हुआ है। तीस साल पहले अमरीका में काले दोस्तों को मैं बतलाता था कि भारत में जातिगत भेदभाव कम हो रहा है और जल्दी ही खत्म होने वाला है। पर अब लगता नहीं कि यह अपने आप खत्म होने वाला है। हो सकता है दिल्ली के साथी इस पर एक राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत कर सकें। अपूर्वानंद लंबे समय से बहुत अच्छा काम कर रहा है। इस बार भी इस मामले पर विस्तार से लिख कर उसने ज़रुरी काम किया है। इस मामले में जुड़े सभी साथियों से यही कहना है कि हम भी साथ हैं और यह लड़ाई रुकनी नहीं चाहिए। कनकलता मामले के दोषियों को (पुलिस के भ्रष्ट अधिकारियों समेत) सजा मिलनी चाहिए।
मार्टिन एमिस का उपन्यास 'अदर पीपल' पढ़ रहा हूँ। स्मृति खो चुकी एक लड़की की भटकी हुई ज़िंदगी में हो रही घटनाएँ। पिछले कुछ सालों से मेरे प्रिय समकालीन ब्रिटिश लेखकों में मार्टिन एमिस और हनीफ कुरेशी हैं। मार्टिन एमिस में भी हिंसा है, पर इस पर कभी और ....।