आज जनसत्ता में प्रकाशित नई संस्कृति का दूध उसे शबनम मेरे पास क्यों ले आई थी मुझे नहीं मालूम। शायद शबनम के मन में कहीं से यह बात जम गई थी कि विज्ञान पर बात करनी हो तो मुझसे काम निकल सकता है या यह भी हो सकता है कि मैं उसके साथ औरों से बेहतर पेश आता होऊँ। उसे मेरे पास छोड़ कर दो चार बातें कहकर ही वह चली गई थी। उस पहली मुलाकात के दौरान मैं उसके साथ सज्जनता से पेश आया। बाद में वह दो चार बार फिर आया और हर बार मैंने पहले से अधिक परेशान लहजे में बात की। पहली बार मेरे मन में सचमुच उसके प्रति कोई नाराज़गी नहीं थी। अच्छा भी लगा होगा कि शबनम को लगा कि ऐसे आदमी को मेरे पास लाए। उसके प्रति मेरी थोड़ी सहानुभूति भी थी क्योंकि उसने बतलाया था कि ग़रीबी के कारण वह स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया था। मैं उसे डाँट कर कहता कि वह अंधविश्वासों को विज्ञान नहीं कहे तो उसके चेहरे पर उभरते आक्रोश के बावजूद उसमें बच्चों जैसी सरलता झलकती। मैंने उसे दुबारा स्कूल की पढ़ाई शुरू करने को कहा तो उसका चेहरा तमतमा उठा था। मैं समझ गया था कि स्कूली पढ़ाई को लेकर उसके मन में गहरा आक्रोश है। पर जो उसने कहा ...