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Showing posts from October, 2014

समान शिक्षा के लिए

29 अक्तूबर 2014 को 'जनसत्ता' में प्रकाशित संक्षिप्त आलेख को मैंने 31 अक्तूबर को यहाँ पोस्ट किया था। बाद में स्वर्गीय अशोक सक्सेरिया जी के आग्रह से इसे 'सामयिक वार्त्ता (नवंबर/दिसंबर 2014)' के लिए बढ़ा कर लिखा। यहाँ संक्षिप्त आलेख को हटा कर वार्त्ता में छपे आलेख को पेस्ट कर रहा हूँ। : समान शिक्षा के लिए संघर्ष पिछले दो दशकों में भारत में शिक्षा व्यवस्था में निजीकरण में तेजी आई है। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत सरकारी शिक्षा तंत्र को सीमित किया जा रहा है और निजी संस्थानों को बड़े पैमाने पर छूट दी गई है। यह कोई विश्व - व्यापी परिघटना नहीं है है , बल्कि भारत जैसे देशों में ही यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। मसलन संयुक्त राज्य अमेरिका ( यू एस ए ) को पूँजीवाद का गढ़ माना जाता है। मुक्त बाजार के लिए शोर मचाने वाले मुल्कों में और विश्व - स्तर पर पूँजीवादी अर्थ - व्यवस्था की धाक बनाए रखने में यू एस ए की भूमिका प्रमुख है। पर स्कूली तालीम के क्षेत्र में अमेरिका में निजीकरण सीमित स्तर तक लागू है और पिछले कुछ सालों में अगर इसमें बढ़त हुई भी है , तो वह नगण्य है। अधिकतर अमेरिक...

जी हाँ, मैं जानता हूँ

... संयम ! कैसा संयम ! क्या किसी गहरी आशंका से यह संयम उपजा  था — अंधविश्वास , अरुचि , धीरज या भय ? भूख हर भय को खा जाती  है , हर धीरज भूख से हार मानता है , भूख के सामने कोई भी बात  अरुचिकर नहीं लगती ; और जहाँ तक अंधविश्वास , आस्थाएँ और जिन्हें  आप सिद्धांत कहते हैं , वे हवा में तिनके की तरह उड़ जातेहैं। कौन नहीं  जानता कि लगातार भूख से तड़पने से कैसी हैवानियत पैदा होती है , जो असहनीय उत्पीड़न होता है , जो भयंकर खयाल दिमाग में आते हैं , कैसी  गंभीर और भयानक सोच यह पैदा करती है ? जी हाँ , मैं जानता हूँ। ... (' हार्ट ऑफ डार्कनेस ' – जोसेफ कोनराड ; हिंदी अनुवाद ' पाखी ' के ताज़ अंक में आया है। पुस्तक वाग्देवी प्रकाशन से आ रही है। )

आज किशोर कल वयस्क पाठक

'कथा' पत्रिका के बालसाहित्य आलोचना विशेषांक में इस आलेख का एक स्वरूप प्रकाशित हुआ है। बच्चों के लिए लेखन पर कुछ चिंताएँ - लाल्टू मेरी परवरिश बांग्ला भाषी परिवेश में हुई। जब मैं पाँचवीं में था तब तक किशोरों के लिए लिखी बांग्ला की किताबें पढ़ने लगा था। हमारे घर किताबें खरीदी नहीं जाती थीं , पर मुहल्ले में अधिकतर मध्यवर्गीय बंगाली परिवारों के घर कहानियाँ पढ़ने का चलन था। उनसे किताबें माँग लाते थे। माँ बड़ों की किताबें पढ़ती थी और हम बच्चे अपने स्तर की किताबें। हर साल ( दुर्गा ) पूजा के दिनों के पहले शारदोत्सव के रंगीन माहौल के साथ नई पूजावार्षिकियों का भी इतज़ार रहता। उन दिनों यह जानता न था कि कितने बड़े साहित्यकारों का लिखा पढ़ रहे हैं। ताराशंकर बंद्योपाध्याय , आशापूर्णा देवी , महाश्वेता देवी , आदि सभी बड़े लेखक बच्चों के लिए लिखते थे। आज भी यह परंपरा चलती है। उन दिनों सभी आम पत्रिकाओं के पूजावार्षिकी बच्चों के नहीं आते थे , कुछ प्रकाशक अलग नाम से साल में एक मोटी किताब बच्चों के लिए निकालते थे। हर साल उनके अलग नाम होते थे। बच्चों की पत्रिकाएँ जैसे शुकतारा , संद...

हम मिथक जीते हैं

संशय हमेशा संशय रहता है ठीक ही हूँ न ? कितने लोगों को आज सूर्योदय से अगले साल इसी दिन सूर्योदय तक अपनी पहचान बदलनी है ? फूल कुतरने की मशीनों की रफ्तार बढ़ती जा रही है। हम मिथक जीते हैं और तय करते हैं कि आज कौन बलि चढ़ रहा है। एक दिन राजकुमार आएगा और राक्षस को मार डालेगा। राक्षसों ने लाटरियाँ बंद कर दी हैं। किसी ने दोलन चक्रों पर काम किया है ? (2009; 'नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध' में संकलित')

फिर भी जीना

हो सकता है और है हो सकता है दो महीने साथ किसी पहाड़ी इलाके में रहना। हर सुबह एक दूसरे को चाय पिलाना। थोड़ी सी चुहल। पिछली रात पढ़ी किताब पर चर्चा। दोपहर खाना खाकर टहलने निकलना। घूमना। घूमते रहना। शाम कहीं बीयर या सोडा पीना। इन सब के बीच आँगनबाड़ी में बच्चों को कहानियाँ सुनाना। एक साथ बच्चे हो जाना। है बच्चों की बातें सुन कर रोना आना। बच्चों को देख - देख रोना आना। रोते हुए कुमार विकल याद आना। कि ' मार्क्स और लेनिन भी रोते थे पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोते थे। ' फिर यह सोच कर रोना आना कि इन बातों का मतलब क्या धरती में नहीं बिगड़ रहा ऐसा बचा क्या। इस तरह अंदर बाहर नदियों का बहना। पहाड़ी इलाकों से उतरती नदियों में बहना। नदियों में बहना खाड़ियों सागरों में डूबना। कोई बीयर सोडा नहीं जो थोड़ी देर के लिए बन सके प्रवंचना। फिर भी जीना। साथ बहते हुए नदियाँ बन जाना। ताप्ती , गोदावरी , नर्मदा , गंगा अफरात नील दज़ला नावों में बहना , नाविकों में बहना। यात्राओं में विरह गीतों में बहना। आखिर में कुछ लड़ाइयों में हम जीतेंगे खु...

मुझ में एक बाग़ है

सपना 1 महालक्ष्मी कमल पर बैठी थीं    या था सदी का दर्दनाक बुरा सपना रोशनी कम होती चली , हताशा बढ़ती चली दिलासा बन कर आते शब्द – आदि सच जग - आदि सच कर्त्ता - पुरख ब्रह्मा सामने या उनका बनाया पुतला मैं आज़ाद कायनात को साथ लिए घूमता कायनात भर मैं जादू कि ईश्वर उग रहा फटेहाल पसलियों से बच्चों की    कुछ भी स्पष्ट नहीं    स्वर्ग धुँए से भरा भीड़ त्राहि - त्राहि चीखती मुझे यहीं होना था    प्यार के अकाल में खून से रँगे कमल - दल में डूबता हाय अंबालिका , मैं नहीं कारण पीत भवितव्य का कैसे आएगी स्वस्थ संतान इतना जहर है हमारे चारों ओर। 2 कालिदास नहीं उसकी साँसों से बना मैं समय बहता रहा मुझमें से नदी की तरह जागा अपनी सदी में एक और सपने में मेरे रोओं से वैसी ही बह रही हवा गंध थी उसमें मृत्यु की हालाँकि वह अहसास सपने में का था हर देश हर काल में हर प्राणी बदलता जा रहा भयावह उस सपने में पेड़ - पौधे   बन रहे मेरी प्रतिकृति  ...