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Showing posts from September, 2014

उसे भी सपने आते हैं

आबादी बढ़ रही है आवाज़ों की जिससे मिलना है उसकी आवाज़ से मिल चुका हूँ क्या वह वैसा ही होगा जैसी उसकी आवाज़ है आवाज़ में उत्तेजना है आदमी नीले आसमान के कोने में उठता हुआ बादल का टुकड़ा हो सकता है यह अधेड़ की उत्तेजित आवाज़ है इसमें सदियों तक हारते रहने का अहसास है उसे भी सपने आते हैं एक सुनी हुई आवाज़ से मिलने के दिन ऐसे आ गए हैं कि हो सकता है हम कभी न मिलें और हमारी आवाज़ें मिलती रहें आबादी बढ़ रही है दुनिया में आवाज़ों की। ( नया ज्ञानोदय - 2009; 'सुंदर लोग और अन्य कविताएँ' में संकलित) फाइल में नया ज्ञानोदय देख रहा हूँ, पर स्मृति में वागर्थ है। खैर,...

आज वह बैंगनी सपना है

कल आज कल जिसके साथ खेलने गया था आज वह कहीं और है सपनों में वह आता है हम खेलते हैं    एक ही खेल में फुटबॉल क्रिकेट। मैंने उसे चिट्ठी लिखी है उसने मुझे चिट्ठी लिखी है चिट्ठी में आज की बातें हैं    कल की भी बातें हैं    अलग - अलग बातें    अलग - अलग रंग    शिकवा है तो लाल - लाल नखरे हैं हरे - हरे मिस करते हैं नीला    पढ़कर हँसते हैं तो बासंती हो जाते हैं शब्द। बातें खेल की बातें पढ़ाई - लिखाई की बातें जब बच्चे थे तब की    बातें बड़े होते रहने की सपने में तितली पकड़ते    एक दूसरे से टकरा जाते हैं एक दूसरे को फूल देते हैं सपने में फूल का विज्ञान भी जान लेते हैं कल जिसके साथ खेलने गया था आज वह बैंगनी सपना है।    ( दृश्यांतर - 2014)

रिसने न दें इतराना

कुछ है जो नहीं रिसता है चुप्पी है , और दृश्य। दृश्यों में फिसफिसाहट सी बातचीत । इतराना। चलें जैसे तैर रहे। बीच हवा या धुंध हमें बाँधे हुए है और हम जब चाहें उड़ने को तैयार। चारों ओर पत्ते जिन्हें सहलाते हुए चलें जैसे पत्ते हमारे अंदर गहरे घावों को सहलाते। हम इसे रिसने न दें। धरती में हर कुछ रिस रहा हो कहें कि कुछ है जो नहीं रिसता है। धरती का हर ज़र्रा रिस जाए खूं का हर कतरा रिस जाए रिसने न दें अपना इतराना। ( दृश्यांतर - 2014)

वक्त गुजारता हूँ

जली है एक बार फिर दाल जली है एक बार फिर दाल या कि इस बार दूध उबला है यूँ ही उबलते जलते हैं शब्द आदमी तो महज चूल्हे तक जाकर आँच धीमी कर सकता है आग के बुझने से नहीं रुकता जो उबलता जलता है वक्त गुजारता हूँ स्वाद जला मुँह में लिए।   (2004; दृश्यांतर 2014)