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Showing posts from July, 2013

समय बीतता है

समय बीतता है और धीरे धीरे हमारे समय के लोग हमें छोड़ जाते हैं। इस महीने जिन के जाने का ग़म भारी रहा , उन दोनों को निजी रूप से मैंने नहीं जाना। शर्मिला रेगे से एक बार मिला , पर बड़ी गोल मेज के इधर उधर और ओबेद सिद्दीकी से कभी नही मिला। एकबार शायद बंगलौर विज्ञान अकादमी की सभा में देखा था। पिछले साल यू जी सी की एक समिति में मैं और शर्मिला दोनों थे। अक्तूबर के आस - पास मैं उनसे जानना चाहता था कि प्रस्तावित फेलोशिप्स के बारे में उनकी राय क्या है और मैंने फ़ोन पर बात करने की कोशिश की। दो एक बार कोशिश करने पर भी नहीं मिलीं। उनके दफ्तर की किसी महिला ने बतलाया कि वे सुबह साढ़े सात बजे दफ्तर आती हैं और लंबी क्लास लेती हैं। डेढ़ बजे तक नहीं मिलतीं। मुझे आश्चर्य हुआ। दो एक बार कोशिश कर छोड़ दिया। एक बार मीटिंग में जब मिला था , थोड़े समय के लिए वे आईं , क्योंकि स्त्री प्रसंग पर बनी किसी और समिति में भी वे थीं। तब वे मुझे थकी हुई दिखीं। उनकी तस्वीर मैंने देखी थी , पर सामने देख कर चकित हुआ था। इतनी दुबली सी एक इंसान , जिसने इतना महत्त्वपूर्ण काम किया है ! दलित और स्त्री प्रसंग पर मैंने उनके कुछ आ...

कैसा हूँ

मैं कैसा हूँ? बस जद्दोजहद में हूँ कि कैसे कहाँ जमूँ। 1 अगस्त से एक फ्लैट में जमने की उम्मीद है - फिर आगे की लड़ाई - सफाई, खाना बनाना वगैरह। जीवन। :-) सत्रह साल पहले प्रकाशित एक कविता - रुको     रुको कविता रुको समाज , सामाजिकता रुको रुको जन , रुको मन। रुको सोच सौंदर्य रुको ठीक इस क्षण इस पल इस वक्त उठना है हाथ में लेना है झाड़ू करनी है सफाई दराजों की दीवारों की रसोई गुसल आँगन की दरवाजों की कथन रुको विवेचन रुको कविता से जीवन बेहतर जीना ही कविता फतवों रुको हुंकारों रुको। इस क्षण धोने हैं बर्त्तन उफ् , शीतल जल , नहीं ठंडा पानी कहो कहो हताशा तकलीफ वक्त गुजरना थकान बोरियत कहो रुको प्रयोग प्रयोगवादिता रुको इस वक्त ठीक इस वक्त बनना है आदमी जैसा आदमी। ( इतवारी पत्रिकाः ३ मार्च १९९७ ) ला.

जयपुर 2013

कई सालों बाद – 1986 के बाद पहली बार - जयपुर गया। 1986 में सत्यपाल सहगल के साथ गया था - मैं उसे खींच ले गया था कि दुनिया चंडीगढ़ से  बड़ी है, पर जाहिर है कि मेरी कोशिश बेअसर रही। अब दफ्तरी काम पर ही गया था , पर साहित्य की दुनिया के लोगों से मिलने का मौका मिला। देवयानी भारद्वाज से पहले से संपर्क था , हालाँकि पहले कभी मिला न था। नंद भारद्वाज ने पंद्रह साल पहले मेरे कहानी संग्रह की समीक्षा की थी , पर मुलाकात कभी न हुई थी। 5 जुलाई को हरीश करमचंदानी ने , जो स्वयं अच्छे कवि हैं और इन दिनों आकाशवाणी के जयपुर केंद्र के प्रबंधक हैं , रेडियो रेकॉर्डिंग के लिए बुलाया। कई वर्षों के बाद ( जालंधर केंद्र में आखिरी बार 2004 या 2005 में रेकॉर्डिंग की थी , हैदराबाद में एक FM प्रोग्राम संचालक ने भी फिल्मी संगीत के बीच कविताएँ पढ़वाई थीं , पर वह अनुभव भूल ती जाऊँ तो बेहतर ) रेडियो के लिए कविताएँ पढ़ीं। रेकॉर्डिंग सीमा ने की , और उनके निजी और प्रोफेशनल दोनों रवैयों ने मुझे प्रभावित किया। वे अच्छी इंसान हैं। इसके बाद शाम नंद जी के साथ गुजारी। उन्होंने बड़े स्नेह के साथ अपनी किताबें दिखलाईं और मैं ...