समय बीतता है और धीरे धीरे हमारे समय के लोग हमें छोड़ जाते हैं। इस महीने जिन के जाने का ग़म भारी रहा , उन दोनों को निजी रूप से मैंने नहीं जाना। शर्मिला रेगे से एक बार मिला , पर बड़ी गोल मेज के इधर उधर और ओबेद सिद्दीकी से कभी नही मिला। एकबार शायद बंगलौर विज्ञान अकादमी की सभा में देखा था। पिछले साल यू जी सी की एक समिति में मैं और शर्मिला दोनों थे। अक्तूबर के आस - पास मैं उनसे जानना चाहता था कि प्रस्तावित फेलोशिप्स के बारे में उनकी राय क्या है और मैंने फ़ोन पर बात करने की कोशिश की। दो एक बार कोशिश करने पर भी नहीं मिलीं। उनके दफ्तर की किसी महिला ने बतलाया कि वे सुबह साढ़े सात बजे दफ्तर आती हैं और लंबी क्लास लेती हैं। डेढ़ बजे तक नहीं मिलतीं। मुझे आश्चर्य हुआ। दो एक बार कोशिश कर छोड़ दिया। एक बार मीटिंग में जब मिला था , थोड़े समय के लिए वे आईं , क्योंकि स्त्री प्रसंग पर बनी किसी और समिति में भी वे थीं। तब वे मुझे थकी हुई दिखीं। उनकी तस्वीर मैंने देखी थी , पर सामने देख कर चकित हुआ था। इतनी दुबली सी एक इंसान , जिसने इतना महत्त्वपूर्ण काम किया है ! दलित और स्त्री प्रसंग पर मैंने उनके कुछ आ...