Sunday, July 14, 2013

जयपुर 2013


कई सालों बाद – 1986 के बाद पहली बार - जयपुर गया। 1986 में सत्यपाल सहगल के साथ गया था - मैं उसे खींच ले गया था कि दुनिया चंडीगढ़ से  बड़ी है, पर जाहिर है कि मेरी कोशिश बेअसर रही। अब दफ्तरी काम पर ही गया था, पर साहित्य की दुनिया के लोगों से मिलने का मौका मिला। देवयानी भारद्वाज से पहले से संपर्क था, हालाँकि पहले कभी मिला न था। नंद भारद्वाज ने पंद्रह साल पहले मेरे कहानी संग्रह की समीक्षा की थी, पर मुलाकात कभी न हुई थी।
5 जुलाई को हरीश करमचंदानी ने, जो स्वयं अच्छे कवि हैं और इन दिनों आकाशवाणी के जयपुर केंद्र के प्रबंधक हैं, रेडियो रेकॉर्डिंग के लिए बुलाया। कई वर्षों के बाद (जालंधर केंद्र में आखिरी बार 2004 या 2005 में रेकॉर्डिंग की थी, हैदराबाद में एक FM प्रोग्राम संचालक ने भी फिल्मी संगीत के बीच कविताएँ पढ़वाई थीं, पर वह अनुभव भूल ती जाऊँ तो बेहतर) रेडियो के लिए कविताएँ पढ़ीं। रेकॉर्डिंग सीमा ने की, और उनके निजी और प्रोफेशनल दोनों रवैयों ने मुझे प्रभावित किया। वे अच्छी इंसान हैं। इसके बाद शाम नंद जी के साथ गुजारी। उन्होंने बड़े स्नेह के साथ अपनी किताबें दिखलाईं और मैं शर्मिंदा होता रहा कि उनकी पीढ़ी की तुलना में हमलोग कितना कम लिख पाते हैं। 6 को प्रेस क्लब में प्रतिलिपि और कुरजाँ के आयोजन में हरीश और मैंने कविताएँ पढ़ीं। मुझे ऐसे मौके कम ही मिलते हैं, इसलिए मैंने मिल रहे स्नेह का थोड़ा ग़लत फायदा उठाते हुए (सचमुच अंजाने में) बहुत सारी कविताएँ पढ़ीं। मैंने हल्के मिजाज़ में हरीश से माफी तो माँग ली, पर बाद में - अभी तक – मुझे लगता रहा है कि मुझसे ग़लती हो गई, उनको पढ़ने का समय कम मिला। आम तौर से मैं इतना बदतमीज़नहीं हूँ, पर जो हो गया अब क्या किया जाए। चूँकि अध्यक्ष मोहन श्रोत्रिय जी ने रोका नहीं, मैं पढ़ता ही गया। मैं सचमुच जरा नर्वस था - यहाँ तक कि औपचारिक धन्यवाद भी ढंग से नहीं कहा। प्रेमचंद गाँधी ने, जो इन दिनों उम्दा कविताएँ लिख रहे हैं, मंच का संचालन किया और मैं उन्हें भी शुक्रिया कहना भूल गया। कुल मिलाकर अपनी बदतमीज़ी के अपराधबोध से छूट नहीं पा रहा हूँ।

मैं अभी तक जयपुर में आए उन सभी युवा साथियों से मिलने के आनंद में डूबा हुआ हूँ जो अध्यापकों के लिए पठनीय सामग्री तैयार करने के लिए कार्यशाला में आए थे। इतनी ऊर्जा और इतना स्नेह दुर्लभ है। अप्रेनि में आने के बाद पहली बार मुझे लगा कि मैं भी काम का आदमी हूँ। मुझे हमेशा यही लगता रहा है कि हम कितने अनपढ़ हैं और जब ऐसे मौके आते हैं कि युवा साथी यह अहसास दिलाएँ कि हमारी बातों से उन्हें कोई फायदा होता है तो अच्छा लगता है। मेरा मानना यह है कि यह जो हमारे होने का औचित्य है, यह सिर्फ अपनी पढ़ाई लिखाई से नहीं, कुछ और बातों से निकलता है, जैसै जूलियन बार्न्स ने अपनी किताब 'Levels of Life' में लिखा हैः
'Early in life, the world divides crudely into those who have had sex and those who haven’t. Later, into those who have known love, and those who haven’t. Later still – at least, if we are lucky (or, on the other hand, unlucky) – it divides into those who have endured grief, and those who haven’t. These divisions are absolute; they are tropics we cross.'

दुखों के बारे में क्या कहा जा सकता है। मैंने कोई दस साल पहले यह लिखा था जो मेरे संग्रह 'सुंदर लोग और अन्य कविताएं' में संगृहित हैः

मैं अब और दुखों की बात नहीं करना चाहता

1
मैं अब और दुखों की बात नहीं करना चाहता
दुख किसी भी भाषा में दुनिया का सबसे गंदा शब्द है
एक दुखी आदमी की शक्ल
दुनिया की सबसे गंदी शक्ल है
मुझे उल्लास शब्द बहुत अच्छा लगता है
उल्लसित उच्चरित करते हुए
मैं आकाश बन जाता हूँ
मेरे शरीर के हर अणु में परमाणु होते हैं स्पंदित
जब मैं कहता हूँ उल्लास।
2
 कौन सा निर्णय सही है
शास्त्रीय या आधुनिक
उत्तर या दक्षिण
दोसा या ब्रेड
सवालों से घिरा हूँ
3
चोट देने वाले को पता नहीं कि वह चोट दे रहा है
जिसे चोट लगी है वह नहीं जानता कि चोट थी ही नहीं
ऐसे ही बनता रहता है पहाड़ चोटों का
जो दरअस्ल हैं ही नहीं
पर क्या है या नहीं
कौन जानता है
यह है कि दुखों का पहाड़ है
जो धरती पर सबसे ऊँचा पहाड़ है
संभव है उल्लास का पहाड़ भी ऊँचा हो इतना ही
जो आँख दुखों का पहाड़ देखती है वह
नहीं देख पाती मंगलमंदिर
यह नियति है धरती की
कि उसे ढोना है दुखों का पहाड़।
4
जो लौटना चाहता है
कोई उसे समझाओ कि
लौटा नहीं जा सकता
अथाह समंदर ही नहीं
समांतर ब्रह्मांड पार हो जाते हैं
जब हम निर्णय लेते हैं कि
एक दुनिया को ठेंगा दिखाकर आगे बढ़ना है
लौटा नहीं जा सकता ठीक ठीक वहाँ
जहाँ वह दुनिया कभी थी
यह एक अनसुलझी गुत्थी है
कि क्यों नहीं बनते रास्ते वापस लौटने के
क्यों नहीं रुकता टपकता आँसू और चढ़ता वापस
आँख की पुतली तक।


(शब्द संगत 2009) 

यह कविता भी जयपुर प्रेस क्लब में पढ़ना तय था, पर शुक्र है कि भूल गया। या कि पढ़ी थी, अब तो याद भी नहीं।

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