'समकालीन जनमत' में पिछले कुछ महीनों से नियमित रूप से विज्ञान के आलेख लिख रहा हूँ। जून अंक में प्रकाशित आलेख को पिछले चिट्ठे में डाला था। यहाँ इस सीरीज़ का पहला आलेख (जनमत के मार्च 2012 अंक में प्रकाशित) पेस्ट कर रहा हूँः
लगातार
फैलता ब्रह्मांड
-
लाल्टू
समाज
विज्ञान में विरला ही कोई
सैद्धांतिक काम ऐसा होता है,
जिसका
सरोकार विज्ञान की आलोचना से
न हो। अक्सर विज्ञान के बारे
में सीमित समझ के साथ ही आलोचक
बहुत सारी बातें कह जाते हैं।
वैसे भी वैज्ञानिक शोध और उससे
निकली जानकारी को समझ पाना
विज्ञान की औपचारिक शिक्षा
के बिना कठिन है। प्राकृतिक
घटनाओं को समझ कर उनको संचालित
करने वाले नियमों को जान लेने
की अदम्य इच्छा मानव की बुनियादी
प्रवृत्ति है। आधुनिक विज्ञान
(या
जो पश्चिम से आया है)
की
आलोचना का मुख्य बिंदु यही
होता है कि मानव की इस जीवनोन्मुखी
आध्यात्मिक या मूलतः सौंदर्य
परक प्रवृत्ति को एक हिंसक
प्रवृत्ति बनाने का काम आधुनिक
विज्ञान ने किया है। यह बात
सही है या नहीं,
इसे
फिलहाल छोड़ दें और समकालीन
वैज्ञानिक शोध की दशा-दिशा
पर कुछ जानने की कोशिश करें।
एक सामाजिक-राजनैतिक-साहित्यिक
मुद्दों पर केंद्रित पत्रिका
में विज्ञान संबंधित सामग्री
कैसी हो,
एक
नियमित स्तंभ की शुरुआत करते
हुए यह सवाल मन में आना स्वाभाविक
है। चलिए पिछले साल नोबेल
पुरस्कार से सम्मानित
भौतिक-विज्ञानियों
के काम से ही शुरू करें। नोबेल
पुरस्कारों को लेकर विवाद तो
चलते रहते हैं,
पर
विज्ञान की विधाओं में जिन्हें
यह पुरस्कार मिलता है,
उनके
काम के स्तर और आने वाले समय
में वैज्ञानिक शोध पर उसके
प्रभाव के बारे में आम तौर पर
कोई शंका नहीं होती है।
जब
से मानव अस्तित्व में आया है,
ब्रह्मांड
और अंतरिक्ष के बारे में उसके
मन में सवाल उठते रहे हैं।
सृष्टि क्या है और कहाँ से आई
है, आगे
कहाँ जा रही है,
ऐसे
सवालों के जवाब ढूँढता मानव
कभी मन ही मन,
कभी
क्रमबद्ध तरीके से सृष्टि का
खाका या माडल बनाता रहा है।
माडल बनाने की यह प्रक्रिया
विज्ञान-कर्म
का अहम हिस्सा है। अब यह बात
मान ली गई है कि सृष्टि की
शुरूआत एक बड़े धमाके (बिग
बैंग)
से
हुई,
जिसके
बाद से ब्रह्मांड लगातार
फैलता जा रहा है। करीब 13.7
अरब
सालों पहले ब्रह्मांड बहुत
ही घना और कल्पनातीत तापमान
की गर्मी लिए हुए था। धमाका
हुआ तो जैसे एक गुब्बारे को
फैलाने पर उस पर का हर बिंदु
आकार में फैलता है,
वैसे
ही ब्रह्मांड का प्रसार शुरू
हुआ। इस तरह के माडल के पीछे
हजारों लोगों द्वारा कई कई
वर्षों तक किया गया कठिन श्रम
होता है। क्रमबद्ध तरीके से
अवलोकन लिए जाते हैं,
उनका
विश्लेषण किया जाता है और
स्तरीय पत्रिकाओं में आँकड़ों
के साथ निष्कर्ष प्रकाशित
किए जाते हैं। न केवल माडल के
सफल बिंदुओं पर सामुदायिक
बहस होती है,
उसकी
सीमाओं को भी परखा-निरखा
जाता है।
बड़े
धमाके के बाद से प्रकाश सभी
दिशाओं में चलता चला है। जहाँ
जहाँ तक प्रकाश गया है,
कम
से कम वहाँ तक की जानकारी यह
है कि हर दिशा में ब्रह्मांड
का स्वरूप एक जैसा है। ऐसा
क्यों?
इसका
जवाब ब्रह्मांड के प्रसार
में निहित है। एक बिंदु समान
छोटे आकार से शुरू हुआ यह
प्रसार स्वतः दिगंत तक होता
चला है। ऐसा नहीं कि सूक्ष्म
स्तर पर ब्रह्मांड में कोई
विविधता नहीं। विकिरण और
पदार्थ दोनों के ही घनत्व में
शुरू से ही घट-बढ़
होती रही है। इसी घट-बढ़
के नतीज़तन नक्षत्रमंडल बने।
लगातार
फैलते ब्रह्मांड का इतिहास
जानने के लिए ज्योतिर्विज्ञानी
एक मानक बत्ती की कल्पना करते
हैं। इस बत्ती की चमक हर दिशा
में एक जैसी है। इसकी चमक की
तीव्रता से हमें इसकी दूरी
का पता चलता है और इससे आ रही
प्रकाश तरंगों की तरंग-दैर्घ्य
में हो रही कमी से इसकी गति का
पता चलता है। इस तरह मानक बत्ती
के लगातार निरीक्षण से ब्रह्मांड
के इतिहास का पता चलता है।
इसकी चमक का हम तक पहुँचना और
चारों ओर एक ही जैसा तीव्र
होना ज़रूरी है,
ताकि
ब्रह्मांड के बारे में सामान्य
निष्कर्ष निकाले जा सकें।
1980
के
बाद के वर्षों में टाइप वन ए
(Type Ia)
सुपरनोवा
को ऐसी एक मानक बत्ती चिह्नित
किया गया।
नक्षत्रों
में कुछ कारणों से होने वाले
विशेष नाभिकीय विस्फोरणों
को 'नोवा'
कहते
हैं। सुपरनोवा नाम से ही पता
चलता है कि यह अतिकाय विस्फोटों
से होता है। इसकी चमक नक्षत्रमंडलों
के सभी तारों से अधिक होती है
और कई हफ्तों तक बनी रहती है।
इसके बनने की प्रक्रिया ऐसी
है कि चमक हर दिशा में एक जैसी
होती है। टाइप वन ए सुपरनोवा
ऐसे युग्म (binary)
नक्षत्रों
से बनता है,
जिनमें
से एक श्वेत वामन (white
dwarf) कहलाता
है। श्वेत वामन की सतह पर अधिक
से अधिक संख्या में हाइड्रोज़न
परमाणु इकट्ठे होते रहते हैं।
जब हाइड्रोज़न परमाणुओं की
संख्या चंद्रशेखर सीमा नामक
राशि से अधिक हो जाती है,
तो
श्वेत वामन अपने ही वजन तले
नाभिकीय विस्फोटों से खत्म
होकर सुपरनोवा बन जाता है।
किसी एक नक्षत्रमंडल में ऐसे
युग्म नक्षत्रों का सुपरनोवा
में बदलना एक हजार साल में
औसतन एक बार ही हो पाता है। पर
खुले आकाश में नक्षत्रमंडलों
की संख्या इतनी ज्यादा है कि
हर दो चार पलों में सुपरनोवा
देखे जा सकते हैं।
टाइप
वन ए सुपरनोवा की पहचान करना,
उससे
आ रहे प्रकाश (विद्युतचुंबकीय
तरंगों)
को
लगातार देखते रहना और अवलोकनों
का विश्लेषण करना -
यह
सब कई वर्षों का कठिन काम है।
यू एस ए की लारेंस बर्कली
प्रयोगशाला के सॉल पर्लमुटर
के नेतृत्व में ज्योतिर्विज्ञानियों
के एक दल ने तीन दशकों तक लगातार
इस तरह शोध कर 1998
में
अपने निष्कर्ष प्रकाशित किए।
साथ ही स्वतंत्र रूप से अमरीका
के ही जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी
के ऐडम रीस और आस्ट्रेलिया
के कैनबरा स्थित राष्ट्रीय
विश्वविद्यालय के ब्रायन
श्मिट ने भी ऐसे ही निष्कर्ष
निकाले। उनका काम भी 1998
में
ही प्रकाशित हुआ। इन तीनों
को ब्रह्मांड में हो रहे प्रसार
में निरंतर त्वरण के आविष्कार
के लिए वर्ष 2011
का
भौतिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार
दिया गया है। उनकी खोज से
महाविश्व के बारे में पिछले
चार दशकों से प्रचलित सैद्धांतिक
माडल की पुष्टि हुई है।
ब्रह्मांड
के प्रसार में त्वरण का कारण
डार्क एनर्जी या अँधेरी ऊर्जा
को माना जाता है। ब्रह्मांड
का तीन चौथाई हिस्सा इसी तमसीय
ऊर्जा से भरा है। करीब पाँचवाँ
हिस्सा अँधेरा पदार्थ कहलाता
है। बाकी हिस्से का अधिकांश
नक्षत्रमंडलों के बीच की गैसों
का है। आधे प्रतिशत से भी कम
मात्रा नक्षत्रों आदि की है।
यह जानकारी इंसान को अपनी
क्षुद्रता जानने के लिए काफी
होनी चाहिए बशर्ते कि वह अपनी
खासियत को भी समझता हो,
जो
उसे हर दूसरे इंसान के बराबर
खड़ा करती है -
एक
ही जैसी वैज्ञानिक जिज्ञासा
से संपन्न प्राणी मात्र।
अँधेरी
ऊर्जा का वास्तविक स्वरूप
स्पष्ट नहीं है। इसके होने
के क्या परिणाम हैं,
यह
समझ भी अधूरी है। पर इसका होना
निश्चित है। 2011
के
नोबेल विजेताओं के काम से यही
निश्चित हुआ है। इन तीनों
वैज्ञानिकों और उनके सहयोगियों
ने अलग अलग स्रोतों से प्रमाण
इकट्ठे किए। सुपरनोवा को
विश्वसनीय तौर पर पहचानना,
विशाल
आकृतियों,
नक्षत्रमंडलों
के समूहों और खगोलीय पृष्ठभूमि
में निरंतर मौजूद माइक्रोवेव
विकिरण (cosmic
radiation) जैसे
प्रमाणों का गहन अध्ययन किया
गया।
पहले
यह माना जाता था कि अंतरिक्ष
में मौजूद ग्रह तारे परस्पर
आकर्षण विकर्षण से एक दूसरे
से दूर जा रहे हैं। पर 1990
के
बाद से अंतरिक्ष के बारे में
जो मानक माडल बना है,
इसके
अनुसार सभी नक्षत्रमंडल त्वरित
गति से (हालांकि
पहले की अनुमानित गति की अपेक्षा
धीमी गति से)
एक
दूसरे से दूर होते जा रहे हैं।
यह त्वरण ऐसे होता है,
मानो
अंतरिक्ष का शून्य ही इसे पैदा
करता है। यानी अंतरिक्ष के
तीन चौथाई हिस्से में मौजूद
अँधेरी ऊर्जा ही नक्षत्रमंडलों
को धकेल रही है। कम से कम पिछले
10 अरब
वर्षों से यह तमसीय ऊर्जा इसी
तरह मौजूद है। अगर ऐसा नहीं
होता तो अब तक सारा पदार्थ
नक्षत्रमंडलों में घनीभूत
हो गया होता।
अगर
आगे भी (यानी
आगामी अरबों वर्षों तक)
अँधेरी
ऊर्जा ऐसे ही रही तो ब्रह्मांड
क्रमशः फैलता ही रहेगा। पदार्थ
का घनत्व कम होता ही जाएगा।
यानी फिर से एक सृष्टि की शुरूआत
हो पाना असंभव ही लगता है।
निरंतर
प्रसारित हो रहे ब्रह्मांड
पर वैज्ञानिक शोध का इतिहास
बहुत पुराना है। ऐल्बर्ट
आइंस्टाइन से लेकर अब तक हजारों
वैज्ञानिक इससे जुड़े हैं,
जिनमें
कई भारतीय वैज्ञानिक भी हैं।
अभी जिस माडल को व्यापक मान्यता
मिली हुई है,
उसे
लैंबडा सी डी एम ( ΛCDM
) कहा
जाता है। 'लैंबडा
( Λ)'
ग्रीक
भाषा का अक्षर है और इस माडल
में एक नियतांक के लिए इसका
इस्तेमाल होता है। सबसे पहले
आइंस्टाइन ने इसका इस्तेमाल
एक स्थिर ब्रह्मांड की प्रस्तावना
करते हुए किया था। बाद में
(1998
में
सिद्ध)
प्रसार
में त्वरण के आविष्कार के साथ
इसकी पुनर्व्याख्या हुई है।
सी डी एम -
अंग्रेज़ी
के ये तीन अक्षर कोल्ड (शीतल),
डार्क
(अँधेरा)
और
मैटर (पदार्थ)
के
लिए प्रयुक्त हुए हैं।
ΛCDM
माडल
शुरूआती बड़े धमाके के बाद
सृष्टि के विकास की अब तक की
सबसे संतोषजनक व्याख्या पेश
करता है। इस माडल में परमाणुओं
और हल्के वजन के तत्वों का
बनना,
पृष्ठभूमि
में खगोलीय विकिरण,
छोटी-छोटी
(सूक्ष्म)
से
लेकर बड़ी संरचनाओं का उद्भव
– ये सारी बातें काफी हद तक
स्पष्ट समझ आती हैं। 'लैंबडा'
की
भूमिका डार्क मैटर या अँधेरे
पदार्थ को समझने में आती है।
यह अँधेरा पदार्थ शीतल है यानी
अन्य पदार्थ की तुलना में बहुत
ही कम गति से चलमान है।
बुनियादी
वैज्ञानिक शोध में हर बात ऐसी
नहीं होती,
जिसे
तुरंत मानव के उपयोग में लगाया
जा सके। उसके फायदे दूरगामी
होते हैं। एक ऐसे समय में,
जब
वैज्ञानिक सोच दरकिनार दिखती
है (हालांकि
आलोचकों का शोर इसके विपरीत
होता है),
मानव
की इस बेहतरीन प्रवृत्ति को
जगह देना एक राजनैतिक काम बन
जाता है। आज न केवल दकियानूसी
ताकतें विज्ञान के खिलाफ
सक्रिय हैं,
कई
बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने
हितों के लिए वैज्ञानिक तथ्यों
को सामने ला रहे वैज्ञानिकों
के खिलाफ आक्रामक रूप से सरगर्म
हैं। इसलिए ज़रूरी है कि हम
विज्ञान-कर्म
को सतही तौर पर नहीं,
जहाँ
तक बन पड़े,
गहराई
तक जाकर जानने की कोशिश करें।
जैसा आइंस्टाइन ने कहा था -
वास्तव
जगत को जानने में विज्ञान महज
बचकानी हरकत सा लगता है,
पर
यही हमारी सबसे मूल्यवान पूँजी
है।
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