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Showing posts from December, 2011

तीस साल पहले नया साल

तीस साल पहले कभी ये कविताएँ लिखी थीं. दूसरी वाली शायद 1990 के आसपास जनसत्ता के चंडीगढ़ एडीशन में छपी थी. उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में  नस्लवादी तानाशाही थी. नया साल १ ऐसे हर दिन वह उदास होता है जब लोग नया साल मनाते हैं हाथों में जाम थामे एक दूसरे को चुटकुले सुनाते हैं विडियो फिल्में देखते हँसते हँसते बेहाल होते हैं वह हवाओं में तैरता है ऐसे किनार ढूँढता जहाँ नाचती गाती भीड़ में वह भी शामिल है जब उल्लास के छोर पर पहुँचता है ठंड की चादर आ जकड़ती है बातों में मशगूल लोग उससे दूर चले जाते हैं वह उनकी ओर बढ़ते हुए ज़मीन पर पाँव गाड़ने की कोशिश करता है वह डूबने लगता है हवा उसके नथुनों में जोर से घुसती है दम घुटते हुए सहसा उसे याद आते हैं पुराने उन्माद भरे गीत जो पहाड़ों के बीच अकेले गाए थे हालांकि वह अकेला न था न वो घाटियाँ घाटियाँ थीं। २ हर नए साल में एक बात होती है वह बात पिछले साल के होने की होती है पिछला साल होता है बहुत सारी धड़कनों का समय अक्ष पर बंद हो चुका गणितीय समूह पिछला साल होता है उदासी ...

दुर्घटनाओं और दुस्वप्नों के दो हफ्ते और

तो सोचा यह गया था कि बुक फेयर में घूमेंगे। दो हफ्ते मैंने लिखा नहीं  तो बुक फेयर भी नहीं हुआ। अब कल से शुरू हो रहा है। स्थान भी बदल गया है। इसी बीच तमाम ताज़ा दुर्घटनाओं और पुराने दुस्वप्नों के बीच दो हफ्ते और गुज़र गए। कई साल पहले मेरे पी एच डी सुपर्वाइज़र अमरीका से भारत आए हुए थे और मैं उनसे मिलने चंडीगढ़ से दिल्ली आया था। जे एन यू में उनके भाषण के  बीच हम बातचीत कर रहे थे, मेरे गुरुभाई जो इन दिनों हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, उनके आफिस में बातें हो रही थीं। बातें देश की तरक्की पर हो रही थीं। मैंने हताशा  से कुछ ही दिनों पहले हरियाणा के मंडी डभवाली इलाके में क्रिसमस के एक दिन पहले  एक स्कूल में एक समारोह के दौरान  लगी भयंकर आग का ज़िक्र  किया जिसमें कोई दो सौ लोग मारे गए थे, जिनमें अधिकांश बच्चे थे। सुनकर प्रोफ़ेसर ने कहा कि तुम इन बातों से ज़रा ज्यादा ही प्रभावित होते हो। हाल की कोलकाता की दुर्घटना को लेकर मैं इतना नहीं रोया जितना उन दिनों ऐसी घटनाओं पर सोचता था, तो क्या यह मेरी तरक्की की पहचान है या जमे हुए दुखों की, जिनसे मैं क्रमशः पत्थर बनता ...

जैसे भी हैं दिन भले

यह साल का वह वक़्त है जब हम सोचते रहते हैं कि चलो अब ज़रा फुर्सत मिली और होता यह है कि कोई फुरसत वुर्सत नहीं मिलती. सेमेस्टर ख़त्म हो रहा है तो कापियां  देखनी हैं. फिर दम लेते लेते ही अगला सेमेस्टर आ जाता है. इसी बीच में शोध कर रहे छात्रों के साथ समय लगाना पड़ता है. जब यह लिख रहा हूँ तो कहीं गाना चल रहा है - दिल के अरमां आंसुओं में रह गए... फिर भी एक छुट्टी का भ्रम जैसा रहता है. मेरे शहर में तो मौसम भी बढ़िया होता है. इसलिए सोचता हूँ कि इन दिनों कैम्पस से बाहर निकलने की कोशिश की जाए. तो मन बना रखा है कि आज से जो पुस्तक मेला शुरू हुआ है, कल परसों किसी दिन वहाँ चला जाएगा. पर सोचते ही आतंक भी होता है - इस शहर की ट्राफिक, तौबा - मुझे वैसे भी पेट की समस्याओं के साथ माइग्रेन वगैरह हो जाता है.  बहरहाल पुस्तक मेले जाएँगे इस बार. पर पुस्तक मेले में क्या होगा? हाल के सालों में जब भी यहाँ के पुस्तक मेलों में गया हूँ, अधिकतर वही व्यापार धंधों की या अलां फलां कम्पीटीशन की किताबें ही ज्यादा दिखती हैं.  पर उम्मीद है कि गलती से कोई दोस्त भटकता हुआ आ टकराएगा. ऐसी जगहों में यह अक्सर होता ह...