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Showing posts from November, 2006

यह रहा

यह रहा वह पत्थर, जिसका ज़िक्र मैंने किसी पिछली प्रविष्टि में किया था। और यह वह सूरज जिसे किसी की नहीं सुननी, उन बौखलाए साँड़ों की भी नहीं, जो हर रोज सुबह की नैसर्गिक शांति का धर्म के नाम पर बलात्कार कर रहे हैं। इस निगोड़े को कंक्रीटी जंगलों पर भी यूँ सुंदर ही उगना है। इन दिनों संस्थान में चल रहे जीवन विद्या शिविर में तकरीबन इस पत्थर की तरह लटका हुआ हूँ। साथ में बाकी काम भी। इसलिए अभी और कुछ नहीं।

निकारागुआ - एल पुएबलो उनीदो

निकारागुआ लीब्रे मेरा स्लीपिंग बैग बाईस साल पहले दो बार निकारागुआ हो आया, पर मैं नहीं जा पाया। कॉफी ब्रिगेड में हिस्सा लेने मेरी मित्र मिशेल पारिस मानागुआ गई। उन्हें ब्रिगादिस्ता कहते थे। फिर बाद में शायद प्रिंस्टन एरिया कमेटी अगेंस्ट इंटरवेंशन इन लातिन अमेरिका का संयोजक रैंडी क्लार्क ले गया था। दानिएल ओर्तेगा उनदिनों बड़ा हैंडसम दिखता था। निकारागुआ का मुक्ति संग्राम अनोखा था। इसमें वामपंथी और कैथोलिक (जिनमें प्रमुख एर्नेस्तो कार्देनाल थे, जो जाने माने कवि थे - इनका भाषण मैंने सुना था, जिस दौरान कविता भी पढ़ी थी) दोनों तबके शामिल थे। जब निकारागुआ आजाद हुआ, तब तक रोनल्ड रीगन की सरकार ने अपने करोड़ों डालर वहाँ लगा दिए थे। अमरीकी मदद से 'कॉन्त्रा' नाम से पूरी एक फौज इंकलाबिऔं के खिलाफ जिहाद लड़ रही थी। आतंक के उस माहौल में चुनाव करवा कर अमरीका ने अपनी पपेट सरकार बनवाई। पर देर सबेर लोगों की आवाज सुनी जानी ही थी। लगता है दुनिया भर में दक्षिणपंथी दुम दबाकर पतली गली से भागने की राह देख रहे हैं। अमरीका के दक्षिणपंथिओं को इससे बड़ी चपत क्या लगती कि जब सीनेट और कांग्रेस हाथ से छूटे...

बुनियादी तौर पर जाहिल और बेवक़ूफ़ लोग और प्रशासन

खबर है कि भारत-पाक सीमा पर विभिन्न नाकों में सबसे विख्यात वाघा नाके पर होने वाले दिनांत समारोह (झंडा उतारना या रीट्रीट सेरीमनी) में भारतीय सीमा सुरक्षा दल ने आक्रामक मुद्राओं में कमी लाने की घोषणा की है। अपेक्षा है कि पाकिस्तान रेंजर्स भी ऐसा ही रुख अपनाएँगे। पुरातनपंथी या सामंती विचारों के साथ जुड़ी हर रीति बेकार हो या हमेशा के लिए खत्म करने लायक हो, ऐसा मैं नहीं मानता, पर दक्षिण एशिया के लोग बुनियादी तौर पर जाहिल और बेवक़ूफ़ हैं, ऐसे बेतुके तर्क के लिए अगर कोई वाघा नाके की रीट्रीट सेरीमनी का उदाहरण दे तो मैं इसका जवाब नहीं दे पाऊँगा। मुझे कुल तीन बार वाघा पोस्ट पर जाने का मौक़ा मिला है। पहली बार बीसेक साल पहले गया था तो हैरान था कि समारोह के दौरान तो सिर से ऊपर पैर उठाकर एक दूसरे की ओर आँखें तरेर कर देखने का अद्भुत पागलपन दोनों ओर के सिपाहियों ने दिखलाया ही, साथ में समारोह के बाद जब दोनों ओर से लोग दौड़े आए और एक दूसरे की ओर बंद गेट्स की सलाख़ों के बीच में से यूँ देखा जैसे कि इंसान नहीं किसी विचित्र जानवर को देख रहे हों। उन लोगों में दोनों ओर के विदेशी सैलानी भी थे। मैं आज तक वह अद्...

एक दिन का बादशाह

वाह भई वाह! सालगिरह ने तो मुझे एक दिन का बादशाह ही बना दिया। इतनी टिप्पणियाँ! बहरहाल, एक तो लटके पत्थर की तस्वीर दिखलानी है। कविता भी। बस सिर्फ मसिजीवी की बधाई का इंतज़ार था। आगे किसी प्रविष्टि में तस्वीर और कविता का वादा रहा। दूसरी बात आर टी ओ वाली। थोड़ी सी बेईमानी मेरी रही कि कुछ गड़बड़ जो और वजहों से हो रही है, वह बतलाया नहीं। इसके पहले कि फिर किसी अंजान भाई को तकलीफ हो, कुछ आत्म-निंदा कर लूँ। सुख तो पर-निंदा जैसा नहीं मिलेगा, पर निंदा तो निंदा ही है। एक जनाब हैं पंकज मिश्र। उसने भारतीय मध्य-वर्ग की निंदा (जिसमें वह खुद शामिल है बेशक) को बाकायदा धंधा बना लिया है। हमारा हीरो है। 'बटर चिकन इन लुधियाना' पढ़ी थी कुछ साल पहले। पता चला बंगाल के छोटे शहर में लुधियाना के बटर चिकन का गुणगान हो रहा है पंजाबी स्टाइल में (इसके बारे में साल भर पहले लिखा था कि गुरशरण जी ने कितना फाइन तय किया है), चिकन निगल रहे हैं हरियाणवी व्यापारी और आ हा हा! भोजन कितना बढिया है इसका पैमाना है कि भोजन के बारे में कितनी घटिया भद्दी गाली निकल सकती है। है न कमाल की खोज। इसलिए पंकज मिश्र मेरा हीरो ...