Wednesday, January 26, 2011

लौट जाते हैं ये कुछ ईश्वर

कई बार विषयों की भरमार होते हुए भी दिनों तक समझ नहीं आता कि क्या लिखें - आज कल इतने लोग इतना अच्छा लिख रहे हैं - इसलिए अलग से कुछ लिख पाने के लिए सोचना पड़ता है। बहुत पहले मैंने इसका रास्ता निकाला था कि जब और कुछ नहीं लिखना तो पुरानी कोई कविता डाल दो। तो फिलहाल यही:

हर दिन पार करता हूँ शहर का एक व्यस्त चौराहा   

हर दिन पार करता हूँ शहर का एक व्यस्त चौराहा

हर दिन जीता हूँ एक नई ज़िंदगी

कई लोग साथ लाते हैं अपने ईश्वर और पार करते 

हुए सड़क वे बतियाते हैं ईश्वर के साथ

ईश्वर खुद परेशान होता है उस वक्त

अनेकों ईश्वरों में हरेक को चिंता होती है

अपने भक्तों के अलावा उनकी भी जो

उनके भक्त नहीं हैं ऐसी चिंता उनके लिए लाजिमी है

चूँकि वे ईश्वर हैं कई बार थक जाते हैं कुछेक ईश्वर

और गंभीरता से सोचते हैं रिज़ाइन करने की

मन ही मन दो या तीन महीने की नोटिस तैयार करते हैं

फिर याद आता है कि ईश्वर की नोटिस लेने वाला

कोई है नहीं तीव्र यंत्रणा होती है तब ईश्वर को

और यह सोचते हुए कि दैवी संविधान में ज़रुरत है संशोधन 

की और छोड़ते हुए अपने भक्त को दफ्तर

लौट जाते हैं ये कुछ ईश्वर थोड़ी देर के लिए

जब तक कि दफ्तरी पीड़ाओं में रोता आदमी नहीं

चीखकर पुकारता उसे।

(दैनिक ट्रिब्यूनः मार्च २००९; कहीं और भी प्रकाशित - अभी याद नहीं आ रहा )

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वरवारा राव कल आए। कविताएँ पढीं और भाषण भी दिया। करीब पचासेक छात्रों और कुछ अध्यापकों ने उन्हें सुना।
आज सुबह झंडोत्तोलन के दौरान रस्मी भाषणों में भी सामाजिक न्याय का ज़िक्र आया। आज थोड़ी देर पहले सुना कि इलीना सेन को महाराष्ट्र पुलिस तंग कर रही है कि उनके आयोजित एक कार्यक्रम में कुछ विदेशी नागरिक बिना अनुमति के कैसे आए।

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