मार्क्सवाद
और विज्ञान : कुछ
समकालीन सवाल
-'समकालीन जनमत' में आ रहा लेख
मार्क्सवाद
के कट्टर विरोधी कार्ल पॉपर
ने विज्ञान क्या है और क्या
नहीं है, इसमें
फ़र्क करने को विज्ञान के दर्शन
का बड़ा सवाल माना। कुदरत में
हो रही एक ही घटना को कई तरह
के सिद्धांतों से समझाया जा
सकता है, पर
इनमें से कौन सा सिद्धांत सही
है, इसे
कैसे तय करें? पारंपरिक
तरीका यह है कि किसी एक घटना
से जुड़ी और दूसरी घटनाओं को
हम किस हद तक समझ पाते हैं,
आगे हो
सकने वाली और घटनाओं के बारे
में क्या कुछ पहले से कह पाते
हैं, प्रयोगों
द्वारा वह सही दिखता है या
नहीं, इससे
पता चलता है कि सही वैज्ञानिक
सिद्धांत कौन सा है। पॉपर ने
फॉल्सिफिकेशन की प्रस्तावना
की। फॉल्स यानी ग़लत और फॉल्सिफिकेशन
यानी किसी बात को ग़लत दिखाना।
कोई सिद्धांत तभी वैज्ञानिक
हो सकता है जब उसे ग़लत साबित
करने लायक परिस्थितियों और
अवलोकनों की कल्पना की जा सके।
मसलन गुरुत्व-आकर्षण
का सिद्धांत वैज्ञानिक है,
क्योंकि
खिड़की से कूदने पर नीचे जाने
की बजाय अगर ऊपर जा पाते तो यह
सिद्धांत ग़लत साबित हो जाता।
ईश्वर के होना वैज्ञानिक
सिद्धांत नहीं है, क्योंकि
ऐसी कोई स्थिति सोची नहीं जा
सकती, जिससे
हम इसे ग़लत साबित कर सकें।
जब
यूरोप में मार्क्सवाद उरूज
पर था, पॉपर
ने विरोध करते हुए कहा कि
मार्क्स के निष्कर्षों से
असंगत किसी घटनाचक्र को
मार्क्सवादी चिंतक इस तरह
समझाते हैं कि वह मार्क्सवाद
के बुनियादी सिद्धांतों के
खिलाफ नहीं जाता। इसलिए ईश्वर
की धारणा की तरह मार्क्सवाद
भी वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं
है, क्योंकि
किसी भी स्थिति में मार्क्स
के निष्कर्षों को ग़लत नहीं
माना जाएगा। स्तालिन-काल
के दौरान रूस में जो ज्यादतियाँ
हुईं, उसे
सही ग़लत जैसा भी बतलाया गया,
उससे एक
बात बड़े पैमाने पर फैली कि
वैज्ञानिक हो या न हो,
मार्क्सवाद
पर आधारित समाज-व्यवस्था
में मानव के सर्वांगीण विकास
की संभावना नहीं है। जाहिर
है कि पूँजीवाद के दलालों को
यह तर्क ठीक लगना ही था। अमेरिका
में मैकार्थी-युग
में वाम- और
तरक्कीपसंद कलाकारों,
साहित्यकारों
और दीगर चिंतकों को प्रताड़ित
करने के लिए इस तर्क का बखूबी
से इस्तेमाल किया गया।
पॉपर
की आलोचना से मार्क्सवादियों
को परेशान नहीं होना चाहिए।
परेशानी की जड़ यह हसरत है कि
हमें भी वैज्ञानिक मान लिया
जाए। जब यह हसरत तीखे तेवर के
साथ पेश आती है तो मार्क्सवाद
और धार्मिक कट्टरता में फ़र्क
नहीं रह जाता है। धर्मांध लोग
इस कोशिश में लगे रहते हैं कि
उनकी आस्था और मान्यताओं को
वैज्ञानिक माना जाए। महज
तर्कशील होना ही वैज्ञानिक
होने की कसौटी नहीं होती है।
वैज्ञानिक तर्कशीलता या
साइंटिफिक रेशनालिटी खास तरह
की तर्कशीलता है, जिसकी
अपनी सीमाएँ और ताकतें हैं।
मार्क्स ने आधुनिकता के ढाँचे
में रहते हुए तर्क और युक्ति
के आधार पर मानव के विकास में
आर्थिक संबंधों और वर्ग-संघर्ष
की मुख्य भूमिका कोे समझते
हुए प्रखर आलोचना तैयार की
थी। अंतिम निष्कर्ष वह सपना
था जिसमें उन्होंने दुनिया
भर के मजदूरों से एक होकर
सरमाएदारों की शोषण पर आधारित
व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का
आह्वान किया था। यह सपना हमारा
सपना है, इसलिए
मार्क्सवाद हमारे लिए मानव
के विकास का बुनियादी सिद्धांत
है। अगर विज्ञान की हर विशेषता
को मार्क्स के निष्कर्षों
में ढूँढ पाना आसान नहीं है,
तो नहीं
है, यह
परेशानी का सबब नहीं होना
चाहिए। ऐतिहासिक संदर्भ यह
है कि अपने समकालीन दूसरे
चिंतकों की तरह (जैसे
आउगस्ते कोम्ते) मार्क्स
ने भी समाजवादी समाज के निर्माण
पर सोचते हुए विज्ञान पर काफी
गहराई से सोचा था और उनके लेखन
में विज्ञान का उल्लेख गाहे-बगाहे
आता है। सिर्फ इतना ही नहीं,
विज्ञान
के समाजशास्त्र और जिसे आज
एस-टी-एस
(विज्ञान
और तक्नोलोजी अध्ययन)
कहा जाता
है, उसके
विकास में मार्क्सवाद का गहरा
प्रभाव रहा है।
वैज्ञानिक
सिद्धांत का बनना एक लंबी
यात्रा है, जिसकी
शुरूआत अनुमानों से होती है
और अलग-अलग
लोगों द्वारा अलग-अलग
वक्तों पर बार-बार
दुहराए गए प्रयोगों के द्वारा
समझे गए नियमों के बाद सामूहिक
सहमति से वैज्ञानिक सिद्धांत
तक हम पहुँचते हैं। यह संभव
नहीं है कि मानव समाज की एक
जैसी प्रतिकृतियाँ बनाकर उन
पर प्रयोग कर सकें, इसलिए
समाज के बारे में वैज्ञानिक
सिद्धांत के पचड़े में पड़ना
ही नहीं चाहिए।
पॉपर
को मार्क्सी चिंतन में आलोचनात्मक
सोच का अभाव दिखता है। उसे लगा
कि मार्क्स महज एक सूत्र गढ़
रहे हैं, जिसमें
इतिहास को पिरोते जा रहे हैं।
पॉपर आइंस्टाइन के प्रशंसक
थे, इसलिए
उन्हें हर विवेचन में गणित-भौतिकी
(मैथेमेटिकल
फिज़िक्स) जैसा
खाका चाहिए था। पॉपर को मार्क्स
की भविष्य-दृष्टि
में वैज्ञानिक विशेषताएँ
दिखीं, पर
जब घटनाएँ मार्क्स के कहे
मुताबिक नहीं हुईं तो मार्क्सवादियों
ने नई प्रस्तावनाओं के साथ
उन्हें उचित ठहराया,
इससे पॉपर
को लगा कि मार्क्सवाद वैज्ञानिक
सिद्धांत नहीं है।
मार्क्सवाद
विज्ञान-धर्मी
सोच है। यह अंधविश्वासों या
अलौकिक ताकतों की कल्पना पर
आधारित सोच नहीं है। मार्क्सवाद
का विज्ञान-धर्मी
होना हमें बदलते वक्त के साथ
उस सपने की ओर बढ़ा ले जाता है,
जहाँ इंसान
बराबरी के आधार पर समाज में
जीते हुए अपनी हर तरह की काबिलियत
का भरपूर इस्तेमाल कर पाता
है। अगर हम माँग करें कि मार्क्स
का हर निष्कर्ष वैज्ञानिक हो
तो हमें इंसानी जज्बात को
भूलना पड़ेगा, क्योंकि
विज्ञान का मकसद समाज की बेहतरी
भले हो, इंसानी
जज्बात की कोई जगह उसमें नहीं
है। यह एक ही साथ विज्ञान की
सीमा और ताकत है।
मार्क्स
के वक्त से अब तक जो सबसे बड़ा
बदलाव आया है, वह
यह कि हम पहली बार धरती को कई
बार तबाह करने के काबिल हो गए
हैं। नाभिकीय विस्फोटों को
भूल जाएँ, तो
रासायनिक प्रदूषण, मौसम
का लगातार ग़र्म होते रहना,
ओज़ोन की
परते में छेद आदि कई ऐसी विनाशक
स्थितियाँ हैं, जिनसे
हम रूबरू हैं। साथ ही सूचना-विज्ञान
में इंकलाबी तरक्की से पीढ़ियों
का फ़र्क पहले की तुलना में आज
कहीं ज्यादा है। अनपढ़ लोगों
के पास मोबाइल फ़ोन का पहुँचना
और ह्वाट्स-ऐप
जैसे माध्यमों से फासीवादी
ताकतों का पूरी ताकत के साथ
फिर से उभरना - ये
बातें मार्क्स के जमाने में
सोची भी न जा सकती थीं।
रूस
और चीन जैसे मुल्कों में जहाँ
केंद्रीय योजनाओं के तहत
समाज-निर्माण
पर जोर दिया गया, तकनीकी
तरक्की तेजी से हुई और फिर एक
हद तक जाकर उसकी रफ्तार कम हो
गई (क्यूबा
इसका अपवाद है) , जबकि
पूँजीवादी मुल्कों में आलमी
स्तर पर हुए शोषण और जंग-लड़ाई
पर निर्भर फौजी-असलाह
की सौदागरी से इकट्ठा हुए
पूँजी की मदद से तकनोलोजी में
नवाचार को बढ़ावा मिला। स्पुतनिक
युग में रूस में अंतरिक्ष
विज्ञान में हुई तरक्की से
घबराकर अमेरिका ने विज्ञान
की तालीम का बजट कई गुना बढ़ा
दिया। बड़े वैज्ञानिकों ने
किताबें लिखीं। बुनियादी शोध
के लिए माली खपत कई गुना बढ़ी।
ग़रीब मुल्कों से शोधार्थियों
को बड़ी तादाद में आयात किया
गया। नतीजतन पूँजीवादी मुल्कों
में तेजी से वैज्ञानिक तरक्की
हुई। पर बहुत कम लोग जानते हैं
कि न केवल सैद्धांतिक विज्ञान
में, बल्कि
तकनोलोजी में नवाचार में भी
रूस और पूर्वी यूरोप के मुल्कों
में साम्यवाद के शुरूआती दौर
में कमाल की बढ़त हुई। दूसरी
आलमी जंग तक दुनिया के सबसे
बेहतरीन सैद्धांतिक भौतिकशास्त्री
रूस और पूर्वी यूरोप में ही
थे। बाद के दशकों में कंप्यूटर
नेटवर्क आदि में भी बुल्गारिया
जैसे मुल्कों में तेजी से
तरक्की हुई। विज्ञान के दर्शन
में भी निकोलाई बुखारिन और
दीगर रूसी चिंतकों का गहरा
प्रभाव रहा है। गौरतलब बात
है कि केंद्रीय योजनाओं को
अपनाने से स्थानीय स्तर पर
नवाचार को उस तरह का हौसला
नहीं मिल पाया जैसा कि पूँजीवादी
मुल्कों में दिखा। साथ ही
स्तालिन के दौर में बुनियादी
विज्ञान में भी हो रहे बदलावों
को शक की नज़रों से देखा गया
और विज्ञान के इतिहास पर काम
कर रहे मार्क्सवादी दार्शनिकों
के लिए कठिन परिस्थितियाँ
रहीं। लाइसेंको नामक वैज्ञानिक
ने जीनेटिक्स की खोजों को
मानने से इनकार कर दिया और
सोवियत रूस में जीनेटिक्स पर
काम करने वाले वैज्ञानिकों
को तरह-तरह
से दंडित किया गया। बुखारिन
के विचारों ने क्रिस्टोफर
कॉडवेल और बर्नाल जैसे प्रखर
चिंतकों को प्रभावित किया,
पर वे खुद
रूस में अपनी प्रतिष्ठा खोते
रहे। भारत में कोसांबी और डी
पी चट्टोपाध्याय जैसे दार्शनिक
इस प्रभाव में रहे।
ऐसी
स्थितियों में साम्यवादी
मुल्कों में वैज्ञानिक समुदाय
का बड़ा हिस्सा पूँजीवादी
मुल्कों में मिलने वाली सुविधाओं
और आज़ादी के लिए लालायित हो
गया। बड़ी तादाद में वैज्ञानिक
भागकर अमेरिका और पश्चिमी
यूरोप के मुल्कों में बसने
लगे। इसका फायदा उन मुल्कों
को मिलना ही था। साथ ही
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रूस
को आर्थिक दलदल में फँसाने
की चालें चली गईं। अफग़ानिस्तान
में तालिबान जैसी ताकतों को
बनाना और उनकी आर्थिक मदद करना
इसी षड़यंत्र का हिस्सा था।
जल्दी ही रूस और (चीन
में भी) साम्यवादी
ताकतें कमजोर पड़ने लगीं। अस्सी
के दशक में रेगन-थैचर
के जमाने में पूँजीवादी मुल्कों
में विज्ञान को पीछे धकेलना
शुरू हो गया। पर सरमाया और
तकनोलोजी में रिश्ते पहले से
भी ज्यादा मजबूत हुए। तकनोलोजी
में पूँजीवादी प्राथमिकताओं
को सामने रखकर हुई तरक्की का
लब्बोलुबाब यह निकला कि आज
एक ओर आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस
(ए
आई) यानी
कृत्रिम मेधा और क्वांटम
कंप्यूटर की बात हो रही है,
वहीं
बेरोजगारी शिखर पर है और धरती
का कुछ पता नहीं कि कब तक रहे।
पूँजीवादी
मुल्कों में बीसवीं सदी के
बीचोबीच वैज्ञानिक शोध के जो
ढाँचे (संस्थान
आदि) बने,
तमाम संकटों
के बावजूद उनकी अपनी एक गति
रही है और आज ज़हनी साइंस,
कंप्यूटर
साइंस जैसे कई मोर्चों पर
विज्ञान बुलंदी पर है। ऐसा
साम्यवादी मुल्कों में बराबर
रफ्तार से क्यों नहीं हुआ,
यह सोचना
ज़रूरी है। दुनिया के दीगर
और मुल्कों में तो साम्यवादी
आंदोलन परचम गाड़ नहीं पाया
है, और
छोटी सी जनसंख्या वाले क्यूबा
में आखिर कब तक शमा जली रह सकती
है, इसलिए
सवाल रूस, पूर्वी
यूरोप के मुल्क और चीन पर ही
आता है। क्या यह सवाल बुनियादी
तौर पर मार्क्सवाद और विज्ञान
के रिश्ते का सवाल है?
जैसे
वैज्ञानिक तर्कशीलता की अपनी
सीमाएँ हैं, वैसे
ही तेजी से बदलते सामाजिक
समूहों और उनमें उभरते नए
द्वंद्वों पर तुरत-फुरत
समझ की अपेक्षा विज्ञानधर्मी
मार्क्सवाद से नहीं होनी
चाहिए। फिर भी हम अक्सर ऐसी
अपेक्षा रखने की ग़लती करते
हैं। बीसवीं सदी की शुरूआत
में ही यह साफ हो गया था कि
विज्ञान में हो रहे क्रांतिकारी
बदलावों का असर मानव-मूल्यों
पर कैसा होगा, यह
जटिल सवाल है और इससे जूझने
के लिए हमें भौतिकवाद के बारे
में नए ढंग से सोचने की ज़रूरत
है। फ्रेडरिख़ एंगेल्स ने
'लुडव्हिघ
फॉयरबाख़ और शास्त्रीय जर्मन
दर्शन का अंत' लेख
में यह लिखा है कि विज्ञान में
युगांतरकारी खोज के साथ भौतिकवाद
का स्वरूप बदल जाता है। लेनिन
ने अपने विरोधियों की भौतिकवाद
को पूरी तरह तिलांजलि देने
की कोशिश के बरक्स एंगेल्स
के इस उद्धरण का इस्तेमाल करते
हुए लिखा कि मार्क्सी चिंतन
यह माँग करता है कि नई वैज्ञानिक
खोजों के साथ भौतिकवाद पर नए
सिरे से सोचा जाए। सौ साल बाद
जब सूचना क्रांति से दुनिया
भर में उथल-पुथल
नज़र आती है, यह
बात और महत्वपूर्ण हो गई है।
लेनिन के शब्दों में 'एंगेल्स
के भौतिकवाद के फार्म का
‘संशोधन’(revision),
उसके
स्वाभाविक-दार्शनिक
प्रस्तावों का संशोधन न केवल
‘संशोधनवाद’
के
मान्य अर्थों में संशोधनवाद
नहीं है बल्कि इसके उलट,
यह
मार्क्सवाद की मांग है।'
मार्क्स
को उद्धृत कर वैचारिक विमर्श
में लगातार दरारें बढ़ाते
वामपंथी बुद्धिजीवी यह भूल
जाते हैं कि मार्क्सी सोच
मूलतः एक गतिशील विज्ञानधर्मी
मानवतावादी सोच है। विज्ञान
के दर्शन में यह माना गया है
कि अधिकतर वैज्ञानिक प्रचलित
या प्रतिष्ठित मान्यताओं के
वर्चस्व में ही काम करते हैं।
कभी-कभार
ही होता है कि ऐसे अवलोकन जो
मान्यताओं से संगति नहीं रखते
हैं,
उन
पर विचार करते हुए कुछ वैज्ञानिक
इंकलाबी बदलावों की ओर बढ़ पाते
हैं। मार्क्स के जीवनकाल में
उन तमाम संकटों के बारे में
कोई जानकारी या तो उपलब्ध न
थी या बहुत ही कम थी,
जो
बीसवीं सदी में ही पूरी तरह
उजागर हुए हैं। पर्यावरण के
संदर्भ में विज्ञान की सीमाएँ,
लिंगभेद,
नस्ल
और जाति विषयक समझ,
ये
तमाम बातें बीसवीं सदी में
ही गहराई से सोची समझी गई हैं।
पहले जो कुछ सोचा गया था,
उस
विचार जगत में मार्क्सवाद
सबसे अग्रणी भूमिका में था।
कई ऐसी बातें मार्क्स और एंगेल्स
के लेखन में हैं जिनको आज कहीं
बेहतर समझा जा सकता है।
जैसा
वैज्ञानिक पद्धति के बारे
में माना जाता है,
वैसे
ही मानव समाज
के विकास का एक निश्चित आख्यान
गढ़ते हुए मार्क्स ने जिस दर्दनाक
उदासीनता की माँग रखी थी,
उसके
बारे में फिर से सोचना ज़रूरी
है। भारत के बारे में सीमित
सामग्री पर आधारित अपने
महत्त्वपूर्ण आलेख
में मार्क्स ने यह मानते हुए
भी कि 'इस
बारे में कोई शक नहीं कि ब्रिटिश
उपनिवेशवाद से हिंदुस्तान
को पहले की अपेक्षा भिन्न और
बेइंतहा गुना कष्ट झेलना पड़ा
है',
अंततः
यह कहा कि 'इंग्लैंड
ने जो भी अपराध किए,
ऐसा
करते हुए उसकी अचेत भूमिका …
क्रांति के कर्णधार की रही'।
गोएठे की कविता उद्धृत करते
मार्क्स ने कहा कि हम पीड़ाओं
से दबकर रोते
नहीं रह सकते
और भविष्य के सुख
का ध्यान रखते हुए हमें इस
तकलीफ
से गुजरना होगा,
वह
कितनी भी असहनीय क्यों न हो।
इस कथन को सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों
ने सीमित अर्थ में इस तरह पढ़ा
कि मार्क्स भारतीय मानस को
यूरोपी ढाँचे में ढालने को
बेचैन थे,
पर
मार्क्स की असली बेचैनी समाजवादी
क्रांति लाने की थी। यह देखते
हुए कि पूँजीवादी कुविकास का
शिकार मानवता का विशाल बहुसंख्यक
हिस्सा है,
हमें
यह सोचना होगा कि हम इस पत्थर
के सनम जैसी उदासीनता से कैसे
निकलें। अराजकतावाद के प्रति
मार्क्सवादी असहिष्णुता को
कम करना होगा। सांस्कृतिक
पटल पर सरलीकृत मॉडल
काम नहीं करेंगे,
सृजनात्मक
अराजकता को भरपूर जगह देनी
होगी। क्या
विज्ञान ऐसी अराजकता को जगह
देता है?
अगर
दार्शनिक फेयराबेंड की
सुनें तो अराजकता
ही विज्ञान
को आगे बढ़ाती है। द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद तक मार्क्स की यात्रा
की शुरूआत भी अराजक मानवतावादी
चिंतन से ही हुई थी। सही
है कि इस सोच को बेमतलब खींचा
जाए तो सौ साल पहले तक विज्ञान
के बारे में जो द्वंद्वात्मक
समझ बनी थी,
उसे
बिल्कुल नकारने का खतरा रहता
है,
और
सब कुछ उत्तर-आधुनिक
गड्ढे में गिरता हुआ दिखता
है,
पर
इतनी परेशानी की सचमुच कोई
वजह नहीं है। विज्ञान के बारे
में द्वंद्वात्मक सोच और
सामाजिक-राजनैतिक
विश्लेषण आज भी महत्वपूर्ण
माने जाते हैं।
जहाँ
तक विज्ञान के पेशे की बात है,
नस्ल,
जाति
और स्त्री प्रश्न पर साम्यवादी
मुल्कों में काफी हद तक बेहतर
स्थिति रही
है। क्यूबा इस मायने में तक़रीबन
जन्नत
रहा है। पश्चिमी मुल्कों की
तुलना में विज्ञान से जुड़े
पेशों में रूस और चीन में
स्त्रियों की बड़ी भागीदारी
रही है। साम्यवाद आने के पहले
इन मुल्कों में स्त्रियों की
स्थिति बेहद खराब थी। दीगर
और मुल्क
जहाँ साम्य के विचार का प्रभाव
रहा है,
केवल
पश्चिमी यूरोप ही नहीं,
यहाँ
तक कि लीबिया,
सीरिया
और ईराक तक में इन मुद्दों पर
काफी तरक्की हुई थी,
जिसे
हाल की साम्राज्यवादी तबाही
ने मटियामेट कर दिया है। सही
सवाल यह होना चाहिए कि मार्क्सी
पद्धति
में इन सवालों
से जूझने की कैसी
संभावना है। मार्क्सवादियों
को यह समझने में लंबा वक्त लगा
है कि ये सवाल
महज सांस्कृतिक
बहिरचना का हिस्सा नहीं हैं,
बल्कि
ये बुनियादी द्वंद्व हैं।
साम्यवाद
में लोकतांत्रिक
स्वरूप की माँग विज्ञानधर्मी
माँग है।
वैज्ञानिक
शोध तब तक मायने नहीं रखता जब
तक कि शोध-पद्धति
और निष्कर्षों को वैज्ञानिक
समुदाय की स्वीकृति न मिले।
सरमाएदार ढाँचों के बीच रहकर
काम करने की वजह से जैसी भी
इसकी सीमाएँ हों,
वैज्ञानिक
समुदाय के बड़े तबके ने इसे मान
लिया है। साम्यवादी ढाँचे
में विज्ञान
ही नहीं,
साहित्य,
कला,
सिनेमा,
यहाँ
तक कि खान-पान
और पहनावों तक में भी
लोकतांत्रिक
राजनीति को स्पेस मिलना
चाहिए। एक ही
मंच में परस्पर ईमानदारी पर
आस्था रखते हुए लगातार बातचीत
का माहौल तैयार करना और हाशिए
पर पड़े को बीच में लाना,
यह
करना है। पूँजीवादी विज्ञान
और विकास निजी
स्वार्थ को सर्वोपरि रखता
है,
तो
मार्क्सवाद
के लिए चुनौती है कि निज
की आजादी और सृजनात्मक अभिव्यक्ति
का सम्मान करते हुए आर्थिक
निर्णयों से लेकर सांस्कृतिक
धरातल तक,
चाहे
उसमें धर्म और परंपरा की तलाश
ही क्यों न हो,
हर
स्तर पर समष्टि को महत्त्व
दें। इस नए
मुहावरे के साथ ही हमें समझना
और समझाना
होगा कि दुनिया कैसे बुनियादी
रूप से बदल चुकी है। सोशल
मीडिया और सामान्य रूप से
सूचना क्रांति को कैसे समझा
जाए,
इस
पर खुली बहस ज़रूरी है। बदलाव
तेजी से हो रहे हैं,
पर
सही समझ बनाने में काफी वक्त
लगेगा।
आखिर
में यह बात कि आज कोई भी विचार
स्थानीय तौर पर सीमित रह कर
मायने नहीं रख सकता। जब धरती
विनाश के कगार पर है और जालिम
ताकतें वैश्विक तौर पर विज्ञान
और तक्नोलोजी का फायदा उठा
रही हैं,
हमें
राष्ट्रवाद पर सीधी चोट पहुँचाती
मार्क्स की चिंता को हमेशा
सामने रखना पड़ेगा कि -
दुनिया
के कामगारो,
एक
हो जाओ। बदलती परिस्थितियों
में हमें इसे 'दुनिेया
के मजलूमो एक हो जाओ'
कह
कर आलमी पैमाने पर संघर्ष और
निर्माण का ऐसा दर्शन रचना
होगा,
जिसमें
विज्ञान का अराजक मानवीय पक्ष
ही सबसे ऊपर हो। तर्कशीलता
को छोड़े बिना भी खुलापन हो
सकता है,
यही
कोशिश होनी चाहिए। इसी
दिशा में विज्ञान और तक्नोलोजी
का भरपूर इस्तेमाल हो। इस
खुलेपन को पॉपर के 'खुले
समाज'
के
बनिस्बत तकरीर करते हुए मॉरिस
कॉर्नफोर्थ
ने 'खुला
(स्वच्छंद)
दर्शन'
कहा
है। (समकालीन
जनमत -2018)
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