वि ज्ञा न की सामान्य समझ और मानविकी विषयों में विश्व-दृष्टि का सवाल (पिछले महीने उदयपुर में दिया व्याख्यान। लेख के कुछ हिस्से पहले लिखे गए व्याख्यानों में से लिए गए हैं) यह कार्यशाला मानव-विज्ञान या समाज-विज्ञान पढ़ने-लिखने पर है। सुधा जी ने स्नेह-वश बुला लिया और मुझे विज्ञान पर ही बातें करने को कहा। जमाना है कि हर दिन किसी नई टेक्नोलोजी की बात होती है और ज्यादातर लोगों को टेक्नोलोजी में ही विज्ञान दिखता है। इन दिनों कहना मुश्किल होता जा रहा है कि विज्ञान और टेक्नोलोजी के बीच लकीर है कि नहीं। जमाने की खबर रखना इंसान की फितरत है। निजी और सामाजिक दायरों में इंसान की फितरत को समझना समाज-विज्ञान है। आजकल इसकी जगह दो सदी पुराना पद ह्यूमन साइंसेस या मानव-विज्ञान आमफ़हम हो गया है। समाज-विज्ञान पर बात पूरी नहीं होती अगर साथ में विज्ञान या कुदरत के साइंस पर बात न हो। पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में साइंस-टेक्नोलोजी-स्टडीज़ एक अहम डिसिप्लीन या विषय के रूप में उभरा है। यानी मेरी घुसपैठ लावाजिब नहीं है। हर कहीं समाज की घुसपैठ अक्सर विज्ञान पर बात करते हुए मैं एक कविता से शुरूआत कर...