Skip to main content

Posts

Showing posts from November, 2019

नि:शब्द झंझा

रंग जो रंग तुमने मुझे दिए वे मेरे कमरे की दीवार पर फैल गए हैं कमीज़ के बटन उनके छींटों से भीगे हैं होमर और फिरदौस को पता था कि बातें इतनी सरल नहीं होती हैं कि रंग बिखेर दिए जाएँ और कहानी खत्म हो जाएगी मेरे तुम्हारे दरमियान जो खला है उसमें से सोच की तरंगें सैर करती हैं हालाँकि रंगों में कुछ ऐसा होता है जिससे खला में कंपन होता है सोच अपने साथ रंग ले जाती है ऐसे ही वक्त के पैमाने पर खोते रहे हैं रंग खला में से सोच ढोती रही उन्हें कुछ सच कुछ झूठ जाने कितने खेल रंगों में रोशनी और अँधेरे के दरमियान खेल चलते रहते हैं किस को पता होता है कि कैसे खेल चलते हैं क्या रंग बिखेरते या समेटते हम जानते हैं कि ज़िंदगी किस मौसम से गुजरती है बहार और पतझड़ का हिसाब ठीक - ठीक रखना और उनके मुताबिक सही रंग बिखेरना हमेशा हो नहीं पाता है हम तड़पते रहते हैं कि सही वक्त पर सही रंग क्यों नहीं बिखेर पाए लगता है मानो एक ही खेल चल रहा है खला को बीच में रख हम चक...

यहाँ

'मधुमती' के ताज़ा अंक में प्रकाशित कविताएँ यहाँ जब गाती हैं तो एक एक कर सभी गाती हैं रुक - रुक कर एक पर एक सवार हो जैसे कौन सी धुन किस चिड़िया की है कैसे कहूँ आँखें तलाशती हैं तो दरख्त दिखते हैं जैसे व्यंग्य सा करते हुए कि क्या कल्लोगे खिड़की तक चला ही जाऊँ तो गिलहरी फुदकती दौड़ती दिखती है उनकी बड़ी दीदी हो मानो दिखने लगता है भरापूरा संसार जब चारों ओर इतनी जंग - मार खिड़की के अंदर से देखता हूँ यहाँ बचा है संसार बची है रात की नींद और दिन भर का घरबार यहाँ।   थकी हुई भोर सुबह हड्डियाँ पानी माँगती हैं पहले खयाल यह कि फिर उठने में देर हो गई है कंबल अभी समेटूँ या बाद में कर लेंगे खिड़की का परदा हटाते हुए एक बार सोचना कि खुला रखते तो जल्दी उठ सकते थे आईना देखे बिना जान लेना कि शक्ल जरा और मुरझा गई है एक और दिन यह कोशिश करनी है कि थोड़ी चमक वापस आ जाए भले ही कल उठने पर वह फिर गायब मिले असल में बु...

सच चारों ओर धुँए सा  फैला है

काश्मीर नींद से जागता हूँ और जानता हूँ कि माँओं की चीखें सपने में नहीं मेरी  खिड़की  पर हैं। सुबह काश्मीर वह सच है जो झूठ है। कुहनियों में चेहरा छुपाए सोचता हूँ कितना बेरहम हो सकता हूँ।  कितनी बदली गई धाराएँ मुझे बेचैनी से बचा सकती हैं। सच चारों ओर धुँए सा  फैला है। सच वे छर्रे हैं जो मेरी उँगलियों के पोरों में धँसे हुए हैं। सच की कोई  ज़रूरत नहीं रह गई है। कितनी बार काश्मीर लिखूँ कोई कविता लिख रहा है कोई तस्वीर बना रहा है कोई आँखें मूँद सोच रहा है काश्मीर। अगस्त सितंबर , धरती अंबर , काश्मीर। अंदर बाहर , जीना मरना , क्यों है ऐसा काश्मीर। काल की शुरुआत काश्मीर ,  काल का अंत काश्मीर। क्या काश्मीर सच बन चुका है ? सच का मतलब क्या है ? सपनों में लाशों पर  उछलते खेलते बच्चों को देखता क्या मैं और नहीं रोऊँगा ? मैं कायनात का  मालिक। मैं सृष्टि मैं स्रष्टा , मैं दृष्टि मैं द्रष्टा , मैं। मैं अगड़म , मैं बगड़म। मैं बम  लहरी बम बम। मैं अनहद सच। एक कुत्ते को भी चैन की...

तीन कविताएँ

ये दो कविताएँ 'मधुमती' में आ रही हैं। तीसरी अप्रकाशित है।  जरा सी गर्द ऐसा नहीं कि तुम अपने शहर से निकलती नहीं हो मेरा शहर है जो तुम्हारी पहुँच से बाहर है तुम्हारे शहर में साँस लेते मैं थक गया हूँ और तुम कहती हो कि मेरी चाहत में गर्द आ बैठी है अपने शहर की जरा सी गर्द भेज रहा हूँ इसकी बू से जानो कि यहाँ की हवा को कब से तुम्हारा इंतज़ार है इसे नज़ाकत से अपने बदन में मल लो यह मेरी छुअन तुम तक ले जा रही है यह सूखी गर्द जानती है कि कितना गीला है मेरा मन इसके साथ बातें करना, इसके गीत सुनना पर इस पर कोई रंग मत छिड़कना यह मेरी तरह संकोची है चूमना मत इसे क़रीब लाकर मेरी साँसों को सुनना पैक करते हुए साँसें साथ क़ैद हो गई थीं और इससे ज्यादा मैं तुम्हें क्या भेज सकता हूँ मेरी साँसों में बसी खुद को महसूस करना इस तरह मुझे अपने में फिर से शामिल कर लेना कभी तुम्हें याद आएगा कि मेरी साँसों को कभी चाहा था खुद से भी ज्यादा तुमने। नींद वे अक्सर सोने से पहले कपड़े बदलते हैं और बीच रात उन्हें कभी सोए कपड़ों को जगाना पड़ता है कि गोलाबारी में सपने घायल न हो जाएँ कोई शाम ...