नि:शब्द झंझा
रंग
जो
रंग तुमने मुझे दिए
वे
मेरे कमरे की दीवार पर फैल गए
हैं
कमीज़
के बटन उनके छींटों से भीगे
हैं
होमर
और फिरदौस को पता था
कि
बातें इतनी सरल नहीं होती हैं
कि
रंग बिखेर दिए जाएँ और कहानी
खत्म हो जाएगी
मेरे
तुम्हारे दरमियान जो खला है
उसमें
से सोच की तरंगें सैर करती हैं
हालाँकि
रंगों में कुछ ऐसा होता है 
जिससे
खला में कंपन होता है
सोच
अपने साथ रंग ले जाती है
ऐसे
ही वक्त के पैमाने पर 
खोते
रहे हैं रंग
खला
में से सोच 
ढोती
रही उन्हें
कुछ
सच कुछ झूठ
जाने
कितने खेल रंगों में
रोशनी
और अँधेरे के दरमियान 
खेल
चलते रहते हैं
किस
को पता होता है कि 
कैसे
खेल चलते हैं
क्या
रंग बिखेरते या समेटते हम
जानते हैं
कि
ज़िंदगी किस मौसम से गुजरती
है
बहार
और पतझड़ का हिसाब ठीक-ठीक
रखना 
और
उनके मुताबिक सही रंग बिखेरना
हमेशा
हो नहीं पाता है
हम
तड़पते रहते हैं 
कि
सही वक्त पर सही रंग क्यों
नहीं बिखेर पाए
लगता
है मानो एक ही खेल चल रहा है
खला
को बीच में रख हम चक्कर काटते
हैं
आखिर
में जैसे सारे रंग खत्म हो
जाते हैं
दीवारें
फीकी रह जाती हैं
रागहीन
सुबह  शाम
न
नीला न पीला
नि:शब्द
झंझा।  (-मधुमती 2019)
Labels: कविता

