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Showing posts from August, 2019

धरती हँस पड़ती है

सुनो जनाबे - आली 1 बुलेट पर चढ़ा हूँ जनाबे आली का तोहफा है पाखी दूर देश से रोते आएँ , फरियाद करें कि मुल्क में थोड़ी जगह उनकी भी हो तो आएँ किसान चीखें कि फसल उपजे तो उपजाऊ सपने होते हैं तो चीखें आवाज़ की रफ्तार से चलते हुए सीट के मुलायम मखमल पर रखी जाँघ खुजलता हूँ मुर्ग - मसल्लम खाकर टूथपिक से दाँतों को कुरेदता हूँ। कैसा था भोजन सर , सुनकर सर की हैसियत भोगता हूँ। वेटर के भाई को पुलिस ने केस में फँसा लिया है , वह डर के मारे अपने शहर जाता नहीं है। अरे या ओ - हो जैसी आवाज़ हलक से निकालता हूँ। आह ! सीट पर यह हल्का सा धब्बा कहाँ से आया ! इसी वजह से ज़हन में ऐसे खयाल आ रहे हैं कि नियति पर सोचने लगा हूँ। वेटर , अरे ... । बुलेट पर सवार खिड़की से देखता हैूँ। कुदरत को देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है , मेरा और कुदरत का रिश्ता इतना है कि मैं लेता रहूँ। मुल्क धब्बों से भरा है। रंग - बिरंगे नाम हैं - दाभोलकर , पान्सारे , लंकेश , अखलाक , जुनैद , ज़ुल्फिकार , .... । धब्बे तेजी से दौड़ते आते हैं। बच्चों सी नादानी है धब्बों पर। कुछ लोग रोने लगते हैं। हमने ऐसे लोगों ...

पर बाक़ी सब?

लाल ख़ू न भगवा हो गया तीन हिस्सों में बँटे इस उपमहाद्वीप की आज़ादी पर बहुत गर्व करने लायक कुछ बचा भी है क्या ? - आशीष लाहिड़ी के मूल बांग्ला लेख का हिन्दी अनुवाद https://www.anandabazar.com/events/independence-day/independence-day-special-has-india-become-all-about-the-safron-party-now-dgtl-1.1031803 14 अगस्त 2019 आनंदबाज़ार पत्रिका ( वेबसाइट पर मूल लेख में पुराने फोटोग्राफ हैं ) मेरे जैसे 15 अगस्त 1947 के ठीक बाद जन्मे निम्न - मध्यवर्ग के लोग , जिनके बारे में कहा जाता है , ' ये भारत की आज़ादी के हमउम्र हैं ', हमारा एक आम तज़ुर्बा यह रहा है कि पिता - चाचा - नाना वगैरह , यहाँ तक कि दादी - नानी में से भी कई गर्व से कहते थे , हम अंग्रेज़ों के जमाने में जनमे थे , समझे ! वो बात ही अलग थी। उस जमाने में एकबार किसी को बर्ड कंपनी या ऐंड्रू यूल या बमर लॉरी कंपनी में किरानी की नौकरी मिल जाती तो परंपरा थी कि उसकी औलादों को भी किरानी की नौकरी का मौका मिलता था। लड़कियाँ आज जैसी मतवाली नहीं हो सकती थीं। पढ़ा-लिखा हर बंदा अंग्रेज़ी जानता था , तब ' डिसिप्लिन ' होती थी , ख...

आपके लिए रीफिल

यह कविता शायद  2015 में   'उद्भावना' में छपी थी। इतना याद है कि इस पर अजेय से बात हुई थी। गुफ्तगू अब दस साल पूरे होने को हैं यहाँ आने के कई कारण थे घर दफ्तर की कई तकलीफें छोड़ आया था उम्र बढ़ रही थी और फिर कितनी लड़ाइयाँ लड़ सकता है आदमी एक ज़िंदगी में यहाँ की ज़ुबान ज़बान पर नहीं चढ़ी  पर कभी दिक्कत नहीं हुई इस वजह से कभी कभी नहीं अक्सर मन रोता है कि अपनी ज़मीं से दूर आ गया हूँ अचरज होता है जब मन में ऐसे खयाल आते हैं बस ठीक है सब कुछ लोगों ने अपना ली हैं मेरी सनकें यहाँ इश्क दो - एक कर बैठा हूँ मौसम खुशगवार है यहाँ की शामों का इतना कि वापस लौटने की सोचते डर लगता है उधर के दोस्त - बाग बुलाते ही रहते हैं साल में बार - दो - बार हो आता हूँ कभी वे भी आ जाते हैं हाल चाल पूछने उनसे मिल कर खुशी होती है वे सब मेरी तरह बूढ़े हो चले हैं कई जो युवा थे उम्र से पहले ही बूढ़े लगने लगे हैं सबसे करीब माना जाने वाला दोस्त गुजर गया है उसकी याद में साल में एक दिन लोग मिल लेते हैं जो मुझ पर पूरी तरह भरोसा रखते थे अब चुप रहने लगे हैं ...