यह कविता शायद 2015 में 'उद्भावना' में छपी थी। इतना याद है कि इस पर अजेय से बात हुई थी।
अब दस साल पूरे होने को हैं
यहाँ आने के कई कारण थे
घर दफ्तर की कई तकलीफें छोड़ आया था
उम्र बढ़ रही थी और फिर कितनी लड़ाइयाँ लड़ सकता है आदमी एक ज़िंदगी में
यहाँ की ज़ुबान ज़बान पर नहीं चढ़ी
पर कभी दिक्कत नहीं हुई इस वजह से
कभी कभी नहीं अक्सर मन रोता है कि अपनी ज़मीं से दूर आ गया हूँ
अचरज होता है जब मन में ऐसे खयाल आते हैं
बस ठीक है सब कुछ
लोगों ने अपना ली हैं मेरी सनकें
यहाँ इश्क दो-एक कर बैठा हूँ
मौसम खुशगवार है यहाँ की शामों का
इतना कि वापस लौटने की सोचते डर लगता है
उधर के दोस्त-बाग बुलाते ही रहते हैं
साल में बार-दो-बार हो आता हूँ
कभी वे भी आ जाते हैं हाल चाल पूछने
उनसे मिल कर खुशी होती है
वे सब मेरी तरह बूढ़े हो चले हैं
कई जो युवा थे उम्र से पहले ही बूढ़े लगने लगे हैं
सबसे करीब माना जाने वाला दोस्त गुजर गया है
उसकी याद में साल में एक दिन लोग मिल लेते हैं
जो मुझ पर पूरी तरह भरोसा रखते थे
अब चुप रहने लगे हैं
मैं भी पूछता नहीं हूँ ज्यादा
किसी भी दिन वापस जाना हो तो टिकट ले लूँ
पर सचमुच कौन है मेरा वहाँ अब
अब चैन से रहने लायक कोई जगह कहाँ है
अपनी ही धुन में यहाँ टिका हूँ, काश कि जा पाता
अब क्या समझाएँ, कुछ बातें होती हैं
यही कि किसी से मोह है, किसी को मुझसे मोह है
ये बातें समझाई नहीं जातीं
बस अब डेरा इधर है
कुछ आदतन यहाँ का हो चला हूँ
जैसे देश-निकाले की सजा काट रहा हूँ
कभी गिला भी हो तो बस इन आदतों को जीता रहता हूँ
कभी सभा-सम्मेलनों में आए या यूँ ही घूमने आए दोस्त
लौटकर फ़ोन करते हैं कि पहुँच गए
और वक्त साथ बिताने का शुक्रिया अदा करते हैं
लौटकर उन बातों पर टिप्पणी करते हैं जो सालों बाद जैसे कोई षड़यंत्र करते हुए हमने की थीं
फ़ोन पर बस जो करीब के थे उनके बारे में बातें करते हैं
जैसे कि आज भी वे उतने खास हैं जैसे कभी थे
यूँ फ़ोन पर बातें करते हुए मन होता है कि मैं एक चक्कर लगा आऊँ
फिर दो चार दिन मैं शाम को रज कर पीता हूँ कि नींद आ जाए
मौसम ठंड या गर्म जैसा भी हो ऐसे दिनों में नींद अच्छी नहीं आती
कभी-कभार अजीब बात है कि बच्चों सा रो पड़ता हूँ
और पता नहीं चलता कि यूँ जी हल्का कर कब सो पड़ता हूँ
आँखें खुलती हैं तो एक और सुबह होती है।
आपके लिए रीफिल कह दूँ?
गुफ्तगू
अब दस साल पूरे होने को हैं
यहाँ आने के कई कारण थे
घर दफ्तर की कई तकलीफें छोड़ आया था
उम्र बढ़ रही थी और फिर कितनी लड़ाइयाँ लड़ सकता है आदमी एक ज़िंदगी में
यहाँ की ज़ुबान ज़बान पर नहीं चढ़ी
पर कभी दिक्कत नहीं हुई इस वजह से
कभी कभी नहीं अक्सर मन रोता है कि अपनी ज़मीं से दूर आ गया हूँ
अचरज होता है जब मन में ऐसे खयाल आते हैं
बस ठीक है सब कुछ
लोगों ने अपना ली हैं मेरी सनकें
यहाँ इश्क दो-एक कर बैठा हूँ
मौसम खुशगवार है यहाँ की शामों का
इतना कि वापस लौटने की सोचते डर लगता है
उधर के दोस्त-बाग बुलाते ही रहते हैं
साल में बार-दो-बार हो आता हूँ
कभी वे भी आ जाते हैं हाल चाल पूछने
उनसे मिल कर खुशी होती है
वे सब मेरी तरह बूढ़े हो चले हैं
कई जो युवा थे उम्र से पहले ही बूढ़े लगने लगे हैं
सबसे करीब माना जाने वाला दोस्त गुजर गया है
उसकी याद में साल में एक दिन लोग मिल लेते हैं
जो मुझ पर पूरी तरह भरोसा रखते थे
अब चुप रहने लगे हैं
मैं भी पूछता नहीं हूँ ज्यादा
हाँ,
चाहूँ
तो लौट सकता हूँ
कोई पकड़ कर थोड़े ही बैठा हैकिसी भी दिन वापस जाना हो तो टिकट ले लूँ
पर सचमुच कौन है मेरा वहाँ अब
अब चैन से रहने लायक कोई जगह कहाँ है
अपनी ही धुन में यहाँ टिका हूँ, काश कि जा पाता
अब क्या समझाएँ, कुछ बातें होती हैं
यही कि किसी से मोह है, किसी को मुझसे मोह है
ये बातें समझाई नहीं जातीं
बस अब डेरा इधर है
कुछ आदतन यहाँ का हो चला हूँ
जैसे देश-निकाले की सजा काट रहा हूँ
कभी गिला भी हो तो बस इन आदतों को जीता रहता हूँ
कभी सभा-सम्मेलनों में आए या यूँ ही घूमने आए दोस्त
लौटकर फ़ोन करते हैं कि पहुँच गए
और वक्त साथ बिताने का शुक्रिया अदा करते हैं
लौटकर उन बातों पर टिप्पणी करते हैं जो सालों बाद जैसे कोई षड़यंत्र करते हुए हमने की थीं
फ़ोन पर बस जो करीब के थे उनके बारे में बातें करते हैं
जैसे कि आज भी वे उतने खास हैं जैसे कभी थे
यूँ फ़ोन पर बातें करते हुए मन होता है कि मैं एक चक्कर लगा आऊँ
फिर दो चार दिन मैं शाम को रज कर पीता हूँ कि नींद आ जाए
मौसम ठंड या गर्म जैसा भी हो ऐसे दिनों में नींद अच्छी नहीं आती
कभी-कभार अजीब बात है कि बच्चों सा रो पड़ता हूँ
और पता नहीं चलता कि यूँ जी हल्का कर कब सो पड़ता हूँ
आँखें खुलती हैं तो एक और सुबह होती है।
आपके लिए रीफिल कह दूँ?
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