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Showing posts from January, 2019

हर कोई किसी से बदला ले रहा है

हर कोई किसी से बदला ले रहा है सभी चेहरे एक से हो गए हैं हर कोई किसी से बदला ले रहा है कोई जागता है चिंघाड़ता कोई सोता है विलापता चीख पीड़ा की है या कोई धावा कर रहा है हर कोई कहीं किसी दीवार से माथा टकरा रहा है जो उसने खुद ही खड़ी की हुई है मेरा बदन पिस्सुओं से भर गया है रेंगते जीवाणु हैं रोओं के आर - पार अनगिनत चेहरों में अपना चेहरा ढूँढता हूँ कोई समंदर है मार - मार काट - काट कहती लहरें उछालता सभी चेहरे एक से हो गए हैं हर कोई किसी से बदला ले रहा है सड़कों पर नंग - धड़ंग दौड़ रहे हैं शैतान के अनुचर जल रही हैं बस्तियाँ , हँस रहा है शैतान।      - (अदहन 2018)

बीच में कहीं बैठा हूँ

बीच में कहीं बैठा हूँ बसंत बहुत पहले चला गया , ग्रीष्म जा चुका है , वर्षा आखिरी दिनों में है , देखता हूँ कि धरती और आस्मान रूपरंग बदलते चले हैं बीच में कहीं बैठा हूँ कि कविता लिखूँ कहीं ' हरी घास पर क्षण भर ' या कि बादलों पर सवार। दुनिया है ऐसी कि उसमें एक देश मेरा है चाहूँ न चाहूँ उसी में रहना है हो न हो उसे महान कहना है देखता हूँ कि यहाँ हर कुछ बदल रहा है बहुत कुछ देखता हूँ खुद दृश्य बन जाता हूँ कभी दिलो - दिमाग मेरे हैं या किसी और के किसकी पीड़ा के गीत गाता हूँ खबर नहीं है चाहता हूँ कि सबको बहुत सा प्यार दूँ जब हर कहीं हर कुछ जल रहा है शरद आएगा तो क्या लिखूँगा सोचने से पहले फिक्र है कि क्या बचेगा कुछ बचेगा भी क्या बहुत फिक्र है चाह कर भी किसी से कर पाऊँगा प्यार क्या देखता हूँ कि धरती और आस्मान रूप-रंग बदलते चले हैं बीच में कहीं बैठा हूँ कि कविता लिखूँ गूँज रहा चारों ओर शैतान का अट्टहास।         ...

दो कविताएँ

बातें इतनी बातें कितनी लिखें लिख डालने से क्या बातें बातें रह जाती हैं ? दिन भर बोल - बोलकर भूत - भविष्य में खो गए नगर - महानगर , प्रीत - प्यार के शबो - सहर ढूँढ़ते फिरते हैं ढूँढकर नहीं मिलतीं लिखने लायक बातें। - (विपाशा 2018) लिख सकूँ कुछ कहने लायक कब लिख पाऊँगा सुनता हूँ अपनी कविता में औरों की कही कागज़ की कुतरन , रोज़ाना खबरें , मिट्टी की प्यास आकाश का गीत - संगीत , जाने कब से यह सुनता रहा हूँ साथ सुनी है सड़क पर जीवन की उठापटक लगातार लगातार जद्दोजहद दीवार से पूछता हूँ हवा मेरे सवालों को अनदेखे कोनों तक ले जाती है बैठा हूँ कि लिख सकूँ कुछ कहने लायक कविता कभी।   - (हंस 2018)

मेरे इतिहास की सुबह

सुबह कसौली के पहाड़ दिखलाने वाली साफ सुबह। सुबह है सुबह जैसी। चाय - नाश्ता , कपड़े धोना , नहाना , दफ्तर जाना वाली सुबह।  फिर भी सुबह जैसी सुबह।  चाहता हूँ सुबह के पहाड़ पर चढ़ूँ। इतिहासकार प्रधानमंत्री की सुबहों के बारे में लिखते हैं। मैं ढूँढता हूँ सुबह की किताब  में छूट गए पन्नों में सुबह।  पुराने घर के पिछवाड़े और जंगली गुलाब की गंध भरी सुबह। सड़क पर पड़ा सिक्का मिलने के सुख की सुबह।  छोटी - छोटी मजदूरियों से मिली छोटी बख्शीशों की सुबह। इतिहास जो मेरा है ,   मेरे इतिहास की सुबह।  - (विपाशा - 2018)    Morning   Clear morning with a view of Kasauli hills.  Morning comes as the morning does. Morning of breakfast, washing  clothes, leaving for work.  And yet it is the morning as the morning should be.  I wish to climb the morning hills.    Historians write on the mornings of the prime minister. I look for the  morning I lost in history books.  The backyard of old h...

इच्छाएँ जम जाती हैं

यह वक्त कविताई का है नहीं। सुधा, वारावारा और दूसरे दोस्तों के बाद अब आनंद (तेलतुंबड़े)  की गिरफ्तारी का खतरा है। कभी-कभी सोचता हूँ कि हर कोई कभी न कभी तो गैरबराबरी और अन्याय के खिलाफ सोचता है। तो क्या इस वजह से कि आप चुप नहीं रह सकते और  अन्याय के खिलाफ बोलते हैं, आपको गिरफ्तार किया जा सकता है? ऐसे तो लाखों लोग  गिरफ्तार हो जाएँगे।  पर ग़लती हमारी है कि हम इन असली गद्दारों में भी, जो हुक्काम हैं, समझ की उम्मीद रखते हैं।  बहरहाल विपाशा का ताज़ा अंक देर से पहुँचा।  यह कविता अंक में आई दस कविताओं में से हैः सपाट पहाड़ बुलाते हैं हम जो पहाड़ों पर रोते नहीं हमें पहाड़ बुलाते हैं जैसे समतल ज़मीन बुलाती है पहाड़ के बासिंदों को पहाड़ बुलाते हैं तो कैसे जाएँ ज़मीं पर रहने वालों की सपाट चिंताएँ होती हैं पहाड़ पर इच्छाएँ जम जाती हैं ऊँचाइयों से मवेशी सहानुभूति से देखते हैं पहाड़ सीना फैलाए दुख समेटते हैं और उन्हें नशीली शाम को दे देते हैं इच्छाएँ जम जाती हैं कुछ फिर भी पिघलता है वह न जाए तो मेरे जाने का क्या मतलब न चाहते हुए भी रहूँ ज़मीन पर , ...

हजार साल बाद लोग कंप्यूटर पर भरपेट खाएँगे

1995 में जर्मन दोस्त को लिखा ख़त   गुटेन टाग ! मिखाएल , पचास साल बाद ऐसा सपना होगा कि मैं कंप्यूटर पर कविता पढ़ रहा हूँ पचास साल बाद धरती रोशनी के धागों का महाजाल होगी आवाज़ें धरती को घेरे होंगी हम जादुई बटन दबाकर बचपन में लौटेंगे याद करेंगे कि कभी ईमेल नहीं थी और लफ्ज़ों का इंतज़ार होता था कि लफ्ज़ बादल थे हवा में हल्के-हल्के उड़ते थे पचास साल बाद बच्चे चमकते परदों पर दो दूनी चार सीखेंगे हजार साल बाद लोग कंप्यूटर पर भरपेट खाएँगे सूचना - तंत्र के अवधूत बन भूख के साथ जिएँगे । - (1995, हंस, 2018)

शिक्षा अधिकार का हनन

'समकालीन जनमत' के ताज़ा अंक में प्रकाशित आलेख प्राथमिक शिक्षा में निजीकरण और कॉरपोरेटीकरण अंग्रेज़ी राज के पहले भारतीय उपमहाद्वीप में शुरुआती तालीम के पारंपरिक तरीके थे। मदरसे और टोल जैसे औपचारिक ढाँचे कम ही थे। ज्यादातर बच्चों को स्थानीय ज़मींदारों के संरक्षण में अध्यापक दोहों , चौपाई आदि में मामूली हिसाब और धर्म - कथाएँ सिखाया करते थे। जाति - समाज में हर पेशे में एक से दूसरी पीढ़ी तक जातिगत काम की तालीम अनौपचारिक तरीकों से चलती रही। जाहिर है कि जाति - लिंग आदि सभी विषमताओं के साथ औपचारिक साक्षरता के न होते हुए भी सब कुछ लीक पर चल ही रहा था , तो औसतन हर किसी को दुनियादारी की कुछ तालीम तो मिलती ही थी। सामंती समाज की ज़रूरतों के मुताबिक राजा और प्रजा को मिलने वाली तालीम की सीमाएँ तय थीं। फिर भी सृजनात्मक साहित्य और कला के फलने - फूलने के तरीके मौजूद थे। आज़ादी की लड़ाई के दौरान हर किसी को तालीम की सुविधा दिलवाने के लिए लगातार चिंतन और आंदोलन होते रहे। जिस मैकॉले को दानव की तरह पेश किए जाना आम बात हो चुकी है , उसने भी 1835 के अपने कुख्यात मेमोरेंडम में अंग्रेज़ी में ऊँ...