इच्छाएँ जम जाती हैं
यह वक्त कविताई का है नहीं। सुधा, वारावारा और दूसरे दोस्तों के बाद अब आनंद (तेलतुंबड़े)
की गिरफ्तारी का खतरा है। कभी-कभी सोचता हूँ कि हर कोई कभी न कभी तो गैरबराबरी
और अन्याय के खिलाफ सोचता है। तो क्या इस वजह से कि आप चुप नहीं रह सकते और
अन्याय के खिलाफ बोलते हैं, आपको गिरफ्तार किया जा सकता है? ऐसे तो लाखों लोग
गिरफ्तार हो जाएँगे।
पर ग़लती हमारी है कि हम इन असली गद्दारों में भी, जो हुक्काम हैं, समझ की उम्मीद रखते हैं।
बहरहाल विपाशा का ताज़ा अंक देर से पहुँचा।
यह कविता अंक में आई दस कविताओं में से हैः
सपाट पहाड़ बुलाते हैं हम जो पहाड़ों पर रोते नहीं हमें पहाड़ बुलाते हैं जैसे समतल ज़मीन बुलाती है पहाड़ के बासिंदों को पहाड़ बुलाते हैं तो कैसे जाएँ ज़मीं पर रहने वालों की सपाट चिंताएँ होती हैं पहाड़ पर इच्छाएँ जम जाती हैं ऊँचाइयों से मवेशी सहानुभूति से देखते हैं पहाड़ सीना फैलाए दुख समेटते हैं और उन्हें नशीली शाम को दे देते हैं इच्छाएँ जम जाती हैं कुछ फिर भी पिघलता है वह न जाए तो मेरे जाने का क्या मतलब न चाहते हुए भी रहूँ ज़मीन पर, सपाट। - (विपाशा, 2018)
Labels: कविता
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