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Showing posts from February, 2016

ज़रूरत है ऐसे अदब की

 https://www.brainpickings.org/2016/02/24/walt-whitman-democratic-vistas/ (अनुवाद मेरा है) जैसे हालात आज देश में हैं, समाज के कुछ हिस्सों को औरों से लकीर खींच कर अलग रखना - उन्हें औरों की तरह सुविधाएँ न देना, उन्हें बिला-वजह अपमान और निचले स्तर पर रखना - इससे अधिक बड़ा खतरा किसी राष्ट्र के लिए और कुछ नहीं हो सकता। ह्विटमैन कहते हैं कि बेहतर बराबरी की ओर बढ़ने के लिए सबसे अच्छा औजार अदब है - ऐसा अदब जो छूटे हुओं की आवाज़ सामने लाता है, जो उनकी छटपटाहट को उरूज की ओर ले जाता है, उसे फैलाता है और उसमें ऐसी उमंग भर देता है जो उनके लिए समाज में अपनी अमिट भागीदारी का अधिकार दिखलाते अक्स बन कर आती है। ... ज़रूरत है ऐसे अदब की - नई ज़मीन पर खड़े अदब की, जो मौजूदा पैमानों में बसी ज़मीन की नकल नहीं है, या कि वाहवाही के पीछे भागता नहीं है... बल्कि ऐसे अदब की जो ज़िंदगी के बुनियाद से जुड़ा हो, जिसमें नैतिकता हो, जो विज्ञान-संगत हो, जो काबिलियत के साथ सभी बुनियादी मसलों और ताकतों से जूझ सके, लोगों को इल्म दे और उन्हें प्रशिक्षित करे - और, जिसके अंजामों में शायद सबसे बड़ी बात यह निकल...

'राष्ट्रवाद एक भयंकर बीमारी है' - रवींद्रनाथ ठाकुर

जे एन यू में क्या हुआ ? (पूरा लेख रविवार डॉट कॉम में यहाँ छपा है। भोपाल से प्रकाशित 'गर्भनाल' पत्रिका के मार्च अंक में यह लेख थोड़े बहुत बदलाव के साथ छपा है। अंतिम पैरा बिल्कुल नहीं आया है)  इंसान धरती पर तरक्की के उरूज पर पहुँच गया है। अधिकतर ग़रीब लोगों की आबादी के भारत जैसे मुल्क ने चाँद और मंगल ग्रह तक महाकाशयान पहुँचाएँ हैं। पिछली सदियों की तुलना में सारी दुनिया में लोकतांत्रिक ताकतें मौजूद हुई हैं। यह सब इंसानी काबिलियत , लियाकत और मेहनत से संभव हुआ है। तरक्की का चक्का औसतन आगे की ओर ही बढ़ता रहा है , पर कभी - कभार जैसे झटकों में वह पीछे की ओर मुड़ता है। हाल में जे एन यू परिसर में हुई और बाद में दिल्ली शहर में इसीसे जुड़ी और घटनाएँ उन झटकों का हिस्सा हैं जो भारत में पिछले कुछ सालों से लगते रहे हैं। खास तौर से पिछले दो सालों में ये झटके खौफनाक ढंग से बढ़ते जा रहे हैं। जे एन यू में बेवकूफाना ढंग से छात्रनेता की गिरफ्तारी और बाद में पटियाला हाउस अदालत में हुई हिंसा की घटनाओं से हमें अचरज नहीं होना चाहिए। ये एक लंबे सिलसिले की कड़ियाँ हैं , जो हिंदुस्तान की आवाम को नवउदा...

मुझे दिखते बादल मटमैले

संवाद मुझे दिखते बादल मटमैले आप कहते हैं कि अब तूफान नहीं आएगा मैं देखता हूँ कि हवा थमी ही नहीं आप विरक्त हैं आपके अंदाज़ में दया है मेरे पास दो रास्ते हैं एक कोना है जहाँ मैं सिमट सकता हूँ दूसरा यह कि मैं आप की आँखों की सर्जरी करूँ कि वे देख सकें जो चारों ओर है आप समझाते हैं कि मुझे बैठ जाना चाहिए नहीं देखना चाहिए जो दिखता है मैं कोने में सिमटने से पहले उछलना चाहता हूँ आप हैं जितने शिथिल टाँगें बेजान , मुट्ठियाँ बंद मेरा शरीर उतना ही है बेचैन मुझे बदली में दिखती है धूप हवा के कण परस्पर दूर भागते दीवारें पारदर्शी प्रकाश के साथ ताप का एहसास   ज़मीं से आस्मां तक धधकती फिजां आप को लगता है कि इन दिनों धरती रहने लायक नहीं रही मैं धरती को चूमता हूँ उन्मत्त नहीं , सधे ताल पर नाचता हूँ।      (वागर्थ 2016)