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Showing posts from December, 2014

चार कविताएँ

क्या ऐसे मैं बोलते रहो जो तुम्हें बोलना है उठाते रहो तूफान , झोंकते चलो आँखों में धूल क्या ऐसे मैं चुप हो जाऊँगा मेरी धरती मुझे सीना देगी और वह तुम्हारे शब्द - जाल से अनंत गुना बड़ा है। किस पौधे से पूछूँ अब और नहीं सहा जाता किस - किस पौधे से पूछूँ कि उसमें किस बच्चे की खो गई आत्मा बसी है तुम बुझाते रहो ज़िंदा साँसें मैं तुम्हारे धुँए से बचाता रहूँ पत्ते यह अब और नहीं सहा जाता पौधों को उठा लाता हूँ घर छूते हुए उनको साथ रोता हूँ नाश हो तुम्हारा नाश हो। लहरें चाहा यही कि कह दूँ कहा यही कि चुप हूँ सोचा कि सह लूँ जो कुछ नहीं कहूँ इस तरह जीवन ने मेरा रूबरू करवाया मुझ से लोग कहते हैं कि मैं चलता चला हूँ मैं खड़ा हूँ देखता महाशून्य में लहरें। सब छिन गए लोहड़ी होली दीवाली सब छिन गए ...

जब रोशनी मद्धिम हो चलती है

 आज जनसत्ता में आई कविताएँः साथ रहो 1 चारों ओर बेचैनी आकाश-पथों पर दौड़तीं निरंतर मेरा संज्ञान ढोतीं छोटी-बड़ी गाड़ियाँ उनकी तड़प ढँके रखती हैं पत्तियाँ जिनको आँका गया है जरा सामने की ओर ढलती धूप चैन से बिछी हुई अचानक तुम्हारी याद सांत्वना। 2 आकाश कहीं पूरा नहीं बचा टुकड़े टुकड़े सँजो कर तराशते हुए तुम्हें खुद को जान पाता हूँ इतना सुंदर आकाश सचमुच हर दृश्य पर हल्का मेरा स्पर्श तुम्हें जगाता गहरी नींद में से आकाश मुझे अपने नील में समा लेता है                                                              3 किलकारियों से घिरा आश्वस्त हूँ कि धरती पर बच्चे हैं मुझसे सहमति जताते झूमते पेड़ों पर पत्ते उतर रही शाम इस खुशी में मुझे तुम्हारे घने केश दिखते तुम मुस्कुराती आखिरी धूप में सराबोर या कि धूप में रंगत तुम्हारे गालों की किलकारियाँ मेरे तुम्हारे होने के उल्लास में ...

बुत हमको कहें काफ़िर...- प्रियंवद

बुत हमको कहें काफ़िर... प्रियंवद ( पहल 97 में प्रकाशित ) कुछ दिन पहले हलीम मुस्लिम कॉलेज से 'दास्तान' पर शम्सुर्रहमान फ़ारूकी साहब का व्याख्यान सुन कर निकला तो मन उदास था। इससे पहले की शाम जब एक दोस्त को बताया था तो उसने सहज रूप से पूछा था, 'दूसरे पाकिस्तान जाओगे?' अब सामान्यत: मध्य या उच्च मध्य वर्ग के हिन्दू इसी तरह बोलते हैं। बोलते नहीं, तो सोचते हैं। बहुत दिन बाद इस पुराने घने मुस्लिम इलाके में आया था। पहले बहुत आता था इसलिये कि वहां एक दूसरे से सटे तीन टॉकीज थे। 'रूपम' 'नारायण' और 'सत्यम' (नामों पर ध्यान दें)। वहाँ बीसियों फिल्म देखी थीं। तभी उन मुहल्लों की सड़कों पर घूमा था। मामूली रेस्त्रां में बासी सामोसे, टमाटर की चटनी के नाम पर कद्दू की लाल रंग की चटनी, ठंडी पकौडिय़ां, काली कड़वी चाय पी थी। हलीम मुस्लिम कॉलेज के मैदान से ही हमारे मशहूर क्रिकेट क्लब की पराजय गाथा शुरू हुयी थी। ज़फ़र नाम के लड़के को मैं गेंद फेंक रहा था। नौ रन पर उसका कैच छूटा, उसने फिर सैकड़ा मारा था और आठ विकेट भी लिये थे। हमें बाद में पता चला था कि ...

आओ अपनी बोलियों में मर्सिया लिखें

एक भले मित्र ने एक केंद्रीय सचिव की हिंदी के सरलीकरण की पहल को आधार बनाकर लिखे अंग्रेज़ी लेख को फेबु पर पोस्ट किया। उसे पढ़कर दोस्त को मेरा जवाब -   बॉस , अंग्रेज़ी वालों के लिए अंग्रेज़ी वालों के लिखे अंग्रेज़ी वाले लेखों को क्या पढ़ना पढ़ाना ? पहली बात तो यह कि जिसे उर्दू कहा जा रहा है उसमें और हिंदी में कोई फर्क नहीं है। उर्दू को अलग कहते ही हिंदी से बोलचाल के शब्दों को अलग करने के षड़यंत्र में हम शामिल हो जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि उर्दू किसी भाषा का नाम नहीं है। इसका मतलब सिर्फ यह है कि हिंदी और उर्दू एक ही भाषा के दो नाम हैं - अलग लिपियों के साथ जुड़े हुए। इन्हीं का एक और नाम हिंदुस्तानी है। आप ज़बरन फारसी या संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों का इस्तेमाल किसी भी भाषा में कर सकते हैं। ऐसा करनेवालों की यह अपनी सीमा है। इसकी वजह से भाषा की आम पहचान बदल नहीं जाती। दूसरी बात यह कि आसान प्रचलित शब्दों को हटाकर ज़बरन अंग्रेज़ी शब्द थोपनेवाले जिन ट्रेंडी न्यूज़पेपर का लेख में ज़िक्र हुआ है , वे ऐसे हैं जो पाकिस्तान शब्द को दुश्मन शब्द से अलग लिख नहीं पाते , यानी कि वे ट्रेंडी नही...

तूने प्यार दिया - इसलिए मैं भी तुझे प्यार देता हूँ

समाजवादी चिंतक अशोक सक्सेरिया से मैं तीन बार मिला हूँ। उन जैसा स्नेह विरल ही मिलता है। अभी कुछ समय पहले समान शिक्षा पर मेरा लिखा आलेख पढ़कर उन्होंने लेख को बढ़ा कर ' सामयिक वार्त्ता ' के लिए तैयार करने को कहा था। फ़ोन पर वह उनसे आखिरी बात थी। कल पता चला अब वह नहीं रहे। आज का पोस्ट मैं उनकी स्मृति को समर्पित करता हूँ। पिछले पोस्ट में लिखे मुताबिक ' सदानीरा ' के ताज़ा अंक में प्रकाशित ह्विटमैन की  कविताओं के अनुवाद में एक और यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ। साथ में जो आलेख आया है , वह भी नीचे दे रहा हूँ। 21 मैं देह का कवि हूँ और मैं आत्मा का कवि हूँ , स्वर्ग के सुख मेरे पास हैं और नर्क की पीड़ाएँ मेरे साथ हैं , सुखों को मैं बुनता हूँ और उन्हें बढ़ाता हूँ , दुःखों कों नई भाषा में बदल देता हूँ।   मैं उतना ही स्त्री का कवि हूँ जितना कि पुरुष का , और मैं कहता हूँ कि स्त्री होना पुरुष होने जैसा ही गरिमामय है , और मैं कहता हूँ कि मानव की माँ से बड़ा कुछ नहीं होता।   मैं संवृद्धि या गौरव के गीत गाता हूँ ,   बहुत हो चुका बचना बचाना , मैं दिखलात...