Sunday, December 28, 2014

जब रोशनी मद्धिम हो चलती है

 आज जनसत्ता में आई कविताएँः

साथ रहो

1
चारों ओर बेचैनी
आकाश-पथों पर दौड़तीं निरंतर

मेरा संज्ञान ढोतीं
छोटी-बड़ी गाड़ियाँ

उनकी तड़प ढँके रखती हैं पत्तियाँ
जिनको आँका गया है जरा सामने की ओर

ढलती धूप चैन से बिछी हुई
अचानक तुम्हारी याद

सांत्वना।

2
आकाश कहीं पूरा नहीं बचा

टुकड़े टुकड़े सँजो कर
तराशते हुए तुम्हें खुद को जान पाता हूँ

इतना सुंदर आकाश सचमुच
हर दृश्य पर हल्का मेरा स्पर्श
तुम्हें जगाता गहरी नींद में से

आकाश मुझे अपने नील में समा लेता है
                                                             3
किलकारियों से घिरा
आश्वस्त हूँ कि धरती पर बच्चे हैं
मुझसे सहमति जताते झूमते पेड़ों पर पत्ते
उतर रही शाम इस खुशी में
मुझे तुम्हारे घने केश दिखते

तुम मुस्कुराती आखिरी धूप में सराबोर
या कि धूप में रंगत तुम्हारे गालों की

किलकारियाँ
मेरे तुम्हारे होने के उल्लास में उत्सव मनाती हैं

हर नया पल
नए खेल

दौड़तीं धड़कनें प्रकाश-वर्षों की दूरियाँ।

4
जब बेवजह रोशनी मद्धिम हो चलती है
जब एक-एक धड़कन भारी होती रहती है

जब गीली हो आतीं आँखें
जब तड़पता सीना, दुखतीं बाँहें

कल्पना तुम्हारे स्पर्श की देती भरोसा
खिड़की से आती हर आवाज़ नई आशा

संगीत होता शोर भी तब
तुम्हें सोचता हल्की नींद में डूबता जब।                                      
5
मेरे साथ रहो

मैं लोगों के बीच हूँ
आगे-पीछे, दाँए-बाँए

फैली हुई है पसीने की वास
मैं लोगों के बीच हूँ

तुम मेरे साथ रहो
मैं लोगों में से हूँ

या कि लोग मेरे हैं
हमारे जुलूस पर तुम नीली छत बनी रहो

तुम्हारी छाया में हम गीत गाते हैं
कुछ पढ़ते हैं कुछ लिखते हैं
तुम रोशनी बन जाओ

तुम हवाओं में धुन बन आओ

मेरे साथ रहो।

6
तुम्हारे सिवा कहीं कोई ज़मीं नहीं

कोई गुफा कोई खंदक नहीं
जहाँ छिप सकूँ

मुझे सीने में छिपा लो
मैं नीहारिकाओं के रहस्य ढूँढूँ
तुम्हारे अणुओं में समा जाऊँ                                               

मुझे छिपा लो                                                  
रोओं के बीच
तुम्हारे अहसासों में सीखूँ
ताप और बिजली के खेल

अपनी धड़कनों में छिपा लो
भ्रूण मैं धड़कूँ तुम्हारे अंदर
बीजाणुओं में बंधनों में

मुझे छिपा लो

7
तुम किताब हो
पन्नों पर काले
कहीं रंगीन हर्फ हो तुम

तुम्हे पढ़ता हूँ
ईश्वर की हर शरारत पढ़ता हूँ

हर्फों पर उँगली रखता हूँ
तुम्हारी पलकों से नासिकाओं तक
पढ़ता हूँ

ईश्वर का गीत – अक्कड़ बक्कड़ बंबे बो
रेंगते हर्फ बनते प्राणवंत पशु-पक्षी
मेरी उँगली पर धड़कती तुम
अस्सी नब्बे पूरे सौ खेलता ईश्वर

देर तक तुम्हारी नसों पर टिकी रहतीं
मेरी धड़कनें।

1 comment:

दिगम्बर नासवा said...

बहुत ही प्रभावी .... सोच को उद्वेलित करती रचनाएं ...